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अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी -(गंगा प्रकाश)। हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पुरी शंकराचार्य जी प्रशस्त दिग्दर्शन के अंतर्गत चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि वेदादि शास्त्रों के तात्पर्य का संरक्षण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। वेदादि शास्त्रों के सर्वथा विपरीत आगम सर्वथा त्याज्य है। शास्त्र तात्पर्य को सर्वथा विपरीत , अयथावत् , दिशाहीन और अपूर्ण समझने पर व्यवहार भी सर्वथा विपरीत , अयथावत् , दिशाहीन और अपूर्ण हो जाता है। व्यवहार के सर्वथा विपरीत , अयथावत् , दिशाहीन और अपूर्ण होने पर परमार्थ पथ विलुप्त , दुर्गम , दुर्लभ और प्रतिबद्ध हो जाता   है। वैदिक  कर्म के उत्कर्ष और वेदों के स्वतः प्रमाणत्व की सिद्धि की भावना से भी ईश्वर का निराकरण भयप्रद है। कारण यह है कि अभ्युदय प्रद कर्मों की सिद्धि शब्द ब्रह्मात्मक वेदों से और वेदों की सिद्धि नि:श्रेयस प्रद स्वप्रकाश ब्रह्म से सम्भव है। उसके प्रति समर्पित तदर्थ कर्म का निःश्रेयस की सिद्धि में प्रयुक्त तथा विनियुक्त होना सुनिश्चित है। अन्यथा कर्म अपने कर्त्ता को अपूर्व संज्ञक यज्ञ के द्वार से पर्जन्य , अन्न तथा प्रजा और पुनर्भव का प्रदायक होता है। उक्त रीति से ऊर्ध्वमुख कर्म ब्रह्मसिद्धि रूपा पुनर्भव की असिद्धि में और अधोमुख कर्म पुनर्भव की सिद्धि में अमोघ हेतु है। कर्म कर्तृतन्त्र है। कर्त्तृत्व देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण सापेक्ष है। यद्यपि देहेन्द्रियादि के प्रयोक्ता का स्वातन्त्र्य सिद्ध है, तथापि देहादि के अधीन प्रयोक्तृत्व के कारण उसका पारतन्त्र्य भी चरितार्थ है। क्रिया से अनुचित करण और करण से अनुमित प्रयोक्ता अर्थात् कर्त्ता मान्य है। देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण निरपेक्ष कर्त्ता विभु , अविक्रिय , चिदात्म स्वरूप ब्रह्म है। इन्द्रिय , प्राण और अन्तःकरण का अभिव्यञ्जक संस्थान देह है। आत्मा अद्वय ज्ञानस्वरूप है , ना कि ज्ञानक्रिया का कर्त्ता। ज्ञानेन्द्रिय सहित बुद्धि के योग से उसमें ज्ञानशक्ति का तथा मनोयोगसे उसमें इच्छाशक्ति का तथा  कर्मेन्द्रिय सहित प्राण के योग से क्रियाशक्ति का संचार होता है। ज्ञाता, ज्ञान , ज्ञेयरूप कर्मनोदना के अनन्तर कर्त्ता , करण , कर्मरूप , कर्मसंग्रह रूप हेतुओं से कर्म निष्पाद्य है। कर्त्ता का ज्ञाता, करण का ज्ञान और कर्म का ज्ञेय पूर्वरूप है। निरुपाधिक चिद्धातु न ज्ञान का आश्रय ज्ञाता है, ना ज्ञान का विषय ज्ञेय ; तद्वत् वह ना करण का आश्रय है , ना करण का विषय। वह इनसे सर्वथा अतीत  सच्चित् सुख स्वरूप ही सिद्ध है। इस प्रकार कर्म वेदों का पूर्वतन्त्र है और ब्रह्म वेदों का उत्तरतन्त्र। कर्म ब्रह्म से प्रवृत्त तथा ब्रह्मार्थ प्रयुक्त होने योग्य है। ब्रह्म अनुमान सिद्ध नहीं , अपितु आगम का मूल तथा आगम सिद्ध है। कर्म प्रकरण में फल प्रदायक ईश्वर का निराकरण अप्रमत्ता की सिद्धि तथा अनुमान सिद्ध ईश्वर की अर्थ क्रियाकारिता में अगति सिद्धि के अभिप्राय से है , ना कि आगम सिद्ध ईश्वर के निराकरण के अभिप्राय से। अभिप्राय यह है कि प्रणवार्थ ब्रह्म की सिद्धि के लिये अपेक्षित अप्रमत्तता की निष्पत्ति के लिये अप्रत्यवाय रहित कर्मानुष्ठान में अपेक्षित शुद्धता , दक्षता और अप्रमत्तता के सम्पादन में ईश्वर के नाम पर प्रमाद सर्वथा आत्मघात होने के कारण कर्म मीमांसकों को ईश्वर का निराकरण अभिमत है। अनुमान सिद्ध अग्नि में अभिमत कार्यसिद्धि की शक्ति असम्भव है , अत: अनुमान सिद्ध ईश्वर का निराकरण अपेक्षित है। सर्वेश्वर में स्वाभाविक ज्ञान – इच्छा – प्रयत्न तथा सर्वभवन सामर्थ्य की सिद्धि केवल अनुमान के बल पर असम्भव है। समग्र जगत् की उत्पत्ति , स्थिति , संहृति , निग्रह और अनुग्रह कर्त्ता सर्वरूप सर्वेश्वर का साङ्गोपाङ्ग समग्र विज्ञान केवल अनुमान से असिद्ध है। अनुमान सिद्ध ईश्वर केवल जगत् का निमित्तकारण और सगुण – निराकार होता है। वह जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण सिद्ध नहीं होता। आगमिक युक्तियों के बल पर ही उसे सर्वाधिष्ठान सच्चिदानन्द स्वरूप सिद्ध किया जा सकता है।

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