अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों की देव संज्ञा की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति – इन तीन अवस्थाओं में जाग्रत् तथा स्वप्न में हम देहयुक्त होते हैं। जागरदेह और स्वप्नदेह में भेद भी होता है। जाग्रत् के नेत्रों से स्वप्नदेह का दर्शन सर्वथा असम्भव है। स्वप्न के नष्ट होने पर स्वप्न शरीर का अवशेष केवल मन ही सिद्ध होता है। कारण यह है कि आत्म चैतन्य से अधिष्ठित अर्द्धनिद्रित वासना गर्भित मनो मात्र ही स्वप्न होता है। मन असप्त धातुमय है। अतएव मनोमय स्वप्नदेह की असप्त धातुमयता सिद्ध है। तथापि उसकी सप्त धातुमयता की प्रतीति इन्द्रजाल सदृश चक्षुर्बन्ध के कारण ही सम्भव है। तद्वत् देवविग्रह की विलक्षणता तथा दिव्यता हृदयङ्गम करने योग्य है। कर्म विपाक सुलभ लोकभेद से , योनिभेद से प्राणियों की आकृति , प्रकृति तथा भौतिकता में प्रभेद तथा तारतम्य सिद्ध है। अभिप्राय यह है कि शरीरों मे स्थावर तथा जङ्गम प्रभेद, तामस – राजस – सात्विक – प्रभेद , पृथ्वी प्रधान , जल प्रधान , तेज प्रधान और वायु प्रधान – प्रभेद , उर्ध्व – मध्य – अधोलोक – प्रभेद कर्म विपाक सुलभ है। मर्त्यलोक गत उद्भिज्ज – संज्ञक स्थावर तथा स्वेदज , अण्डज , जरायुज – संज्ञक जङ्गम प्राणियों में प्रभेद सर्वमान्य है। मनसिज नारदादि के अस्तित्व में आस्था मनोराज्य के अनुशीलन से सिद्ध है। स्वयम्भू ब्रह्मा के अस्तित्व में आस्था स्वप्न के अनुशीलनसे सिद्ध है। स्वयं संज्ञक विष्णु के विद्या विग्रह में आस्था सविकल्प समाधि गत श्रीविग्रह के अनुशीलन से सिद्ध है। दिक् तथा कालावयव के देहप्रभेद की सहिष्णुता, तद्वत् मरीचि तथा कश्यपादि महर्षियों की धर्मपत्नियों के गर्भ से विविध स्थावर तथा जङ्गम प्राणियों की समुत्पत्ति की सहिष्णुता स्वप्न साक्षी तैजस और बुद्धि के योग से स्वप्न में विविध स्थावर तथा जङ्गम प्राणियों की निष्पत्ति के अनुशीलन से सिद्ध है। सत्त्व गुण के उत्कर्ष से उद्भासकों में आदित्य , चन्द्र तथा अग्नि की देव संज्ञा है , वृक्षों में दारु विशेष की देवदारु संज्ञा है , नदियों में गङ्गा की देवनदी संज्ञा है , मनुष्यों में ब्राह्मणों की भूदेव संज्ञा है , ज्ञानियों में उद्धारक आचार्य की गुरुदेव संज्ञा है। अस्तित्व प्रदायक और उपकारक जननी माता तथा जनक पिता की देव संज्ञा है , अतिथि की देवसंज्ञा है। गुरुमूर्ति माता , पिता , आचार्य और अतिथि रूप अग्नि में मुख्यदेव आत्मा की भावना देवोपासना है। पत्नी की देवी और पति की देवसंज्ञा सनातन जगत् में प्रसिद्ध है ही। श्रोत्र , त्वक् , नेत्र , रसन , नासिका , वाक् , पाणि , पाद , उपस्थ , पायु के अधिदैव दिक् , वात , अर्क , प्रचेता , अश्वि , वह्नि इन्द्र , उपेन्द्र , प्रजापति , यमके ; तद्वत् मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार के अधिपति चन्द्र , ब्रह्मा , विष्णु , शम्भू के अस्तित्व में आस्था नेत्र के उद्दीपक आदित्य के अनुशीलन से सिद्ध है। वृक्षादि के उपादान पृथ्वी की देव संज्ञा है। पृथ्वी के उपादान जल की देव संज्ञा है। जल के उपादान तेज की देव संज्ञा है। तेज के उपादान वायु की देव संज्ञा है। वायु के उपादान आकाश की देव संज्ञा है। आकाश के उपादान अव्यक्त की देव संज्ञा है। शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गन्ध और इनके अभिव्यञ्जक संस्थान स्रक् , चन्दन , वनिता और व्यञ्जनादि विषयों का ग्रहण श्रोत्र, त्वक् , नेत्र , रसन तथा नासिका से होता है। अतः उद्भासक संस्थान इन्द्रियों की देव संज्ञा है।