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हरदीप छाबड़ा,

रायपुर(गंगा प्रकाश)।– श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई के हिंदी विभाग द्वारा हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में हिंदी भाषा की चुनौतियां एवं रोजगार के विविध अवसर विषय पर एक दिवसीय व्याख्यान का आयोजन किया गया. व्याख्यान के मुख्य वक्ता प्रो. (डॉ.) एल.एस.निगम रहें। विशिष्ट वक्ता के रूप में श्री पी.के. मिश्रा, कुलसचिव, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई की उपस्थिति रही। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो. निगम ने कहा कि संविधान सभा ने वर्ष 1949 में हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया था। आजादी के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के संबंध में तमाम बहस-मुहाबिसें हुईं। अहिंदी भाषी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे। इनमें भी दक्षिण भारतीय राज्य जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल प्रमुख थे। उनका तर्क था कि हिंदी उनकी मातृभाषा नहीं है और यदि इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाएगा तो ये उनके साथ अन्याय सरीखा होगा। अहिंदी भाषी राज्यों के विरोध को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने मध्यमार्ग अपनाते हुए हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया, इसके साथ ही अंग्रेजी को भी राज्यभाषा का दर्जा दिया गया। वर्ष 1953 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव दिया तब से ये दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। कुलपति डॉ. निगम ने कहा कि हिंदी भाषा की एक भाषा के तौर पर सामयिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो इसके समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो इसे ‘राष्ट्रभाषा की स्वीकार्यता’ का न मिलना है। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा के सामने एक प्रमुख चुनौती यह है कि यह अब तक रोजगार की भाषा नहीं बन पाई है। आज तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों के दैनिक कामकाज से लेकर कार्य संचालन की भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी अपने निहित स्वार्थों के लिए हिंदी का विरोध करते हैं। अभी भी भारत में उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का माध्यम ज्यादातर अंग्रेजी ही रहता है। हिंदी भाषा की हालत आज ऐसी है कि इसके संबंध में जागरूकता सृजन के लिए विभिन्न सेमिनारों, समारोहों और कार्यक्रमों का सहारा लेना पड़ता है। हालांकि इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने हिंदी भाषा के भविष्य के संबंध में भी नई राहें दिखाई है। प्रो. निगम ने बताया कि हिंदी को नई सूचना-प्रौद्योगिकी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो ये इस भाषा के विकास में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के स्तर पर तो प्रयास किए ही जाने चाहिए, निजी स्तर पर भी लोगों को इसे खूब प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हिंदी भाषियों को भी गैर हिंदी भाषियों को खुले दिल से स्वीकार करना होगा। उनकी भाषा-संस्कृति को समझना होगा तभी वो हिंदी को खुले मन से स्वीकार करने को तैयार होंगे। विशष्ट वक्ता पी.के.मिश्रा ने कहा कि यदि राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अंतर की बात की जाए तो इनमें दो प्रमुख अंतर हैं। एक अंतर इन्हें बोलने वालों की संख्या से है और दूसरा अंतर इनके प्रयोग का है। राष्ट्रभाषा जहाँ जनसाधारण की भाषा होती है और लोग इससे भावात्मक और सांस्कृतिक रूप से जुड़े होते हैं तो वही राजभाषा का सीमित प्रयोग होता है। राजभाषा का प्रयोग अक्सर सरकारी कार्यालयों और सरकारी कार्मिकों द्वारा किया जाता है। कुछ देश जैसे ब्रिटेन की इंग्लिश, जर्मनी की जर्मन और पाकिस्तान की उर्दू; की राष्ट्रभाषा और राजभाषा एक ही है। मगर बहुभाषी देशों के साथ यह समस्या है। यहाँ राष्ट्रभाषा और राजभाषा अलग-अलग होती है। उक्त कार्यक्रम का संयोजन डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव, विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग द्वारा किया गया। आभार प्रदर्शन डॉ. ललित कुमार, सहायक प्राध्यापक. पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग द्वारा किया गया। इस अवसर पर  प्रो. शिल्पी देवांगन प्रो. संदीप श्रीवास्तव. डॉ. रवि श्रीवास्तव, डॉ. नेहा सोनी, डॉ. राज श्री नायडू  डॉ. रुबीना बानो, डॉ. प्रतिभा बारीक डॉ. संजू सिंह, डॉ. सचिन दास, डॉ. निहारिका देवांगन, डॉ. सैफाली माथुर, डॉ. विजेता दीवान, डॉ. सुमिता सेनगुप्ता,  श्रीमती निकिता उपाध्याय, श्री मनीष साहू,  सुश्री निकिता चंद्राकर, सुश्री हिना गोदवानी, श्री संतोष सिंह, धीरेंद्र पराते,  रिंकू मिश्रा, सुश्री हीना कौसर, सुश्री निहारिका मिश्रा  गोपाल देशमुख ओमप्रकाश यादव , मंगल भट्ट  एवं विद्यार्थियों, अधिकारीयों-कर्मचारियों की गरिमामई उपस्थिति रहीं।

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