अरविन्द तिवारी

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी जातक के विभिन्न संस्कारों एवं उनकी महत्ता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि गर्भशुद्धि कारक हवन, जातकर्म, चूड़ाकरण (मुण्डन), मौजीबन्धन (उपनयन) – संस्कारों से द्विजों के वीर्य तथा गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट होते हैं । महर्षि हारीत के अनुसार संस्कारों की ब्राह्म एवं दैव – संज्ञक दो श्रेणियाँ हैं। गर्भाधानादि स्मार्त संस्कारों को ब्राह्म कहते हैं। इनसे सम्पन्न ऋषिसदृश होकर ऋषिसायुज्य लाभ करते हैं। पाकयज्ञ ( पकाये हुए भोजनकी आहुतियाँ), यज्ञ (होमाहुतियाँ) और सोमयज्ञादि दैवसंस्कार कहे जाते हैं। विधिवत् गर्भाधान से पत्नी के गर्भ में भगवत्तत्त्व में आस्थान्वित वेदार्थ के अनुशीलन में अभिरुचि सम्पन्न जीव का प्रवेश होता है। पुंसवन संस्कार से गर्भ को पुरुषभाव से भावित किया जाता है। सीमोन्तोनयन के द्वारा माता पिता से उत्पन्न दोष दूर किया जाता है। बीज, रक्त तथा भ्रूण से उत्पन्न दोष जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म और समावर्तन से दूर होते हैं। इस प्रकार गर्भाधान, पुंसवन, सीमोन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण और समावर्तन से पवित्रता का सम्पादन होता है। उपनयनादि अष्टविध संस्कारों से देव – पितृ – कार्यों में परम पात्रता प्राप्त होती है। ब्रह्मा यज्ञ को मन से सम्पन्न तथा संस्कृत करते हैं, इस स्थल में श्रुति ने संस्कृत शब्द का प्रयोग किया है। नारदपरिव्राज कोपनिषत् की श्रुति में चौवालीस संस्कार सम्पन्नता का उल्लेख किया है। वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविद्य व्रत, पूजा, सन्तानोत्पत्ति, ब्रह्मयज्ञादि महायज्ञों से तथा ज्योतिष्टोमादि यज्ञों से ब्रह्माभिव्यञ्जक शरीर की अर्थात् देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण रूप जीवन की प्राप्ति होती है। संस्कार रूप आचार से देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, द्रव्य, देश और क्रिया की शुद्धि होती है। श्रीहरि त्रिगुणमयी माया के द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवादि करण, यागादि कर्म, मन्त्र, शाकल्यादि द्रव्य और फल – इन नौ रूपों में व्यक्त होकर निरूपित होते हैं। श्रौत – स्मार्त सम्मत संस्कारों से जीवन सत्वगुण का होता है। सत्त्वगुण का उत्कर्ष होने पर देशकालादि की शुद्धि है। इनकी शुद्धि से मन सविशेष और निर्विशेष परमात्मा में समाहित होता है। परमात्मार्थ चित के समाहित होने पर जीव को ब्रह्मात्म तत्त्व का एकत्व विज्ञान से होता है। ब्रह्मात्म तत्त्व के एकत्व विज्ञान से अविद्यादि प्रतिबन्ध का निरास और निरावरण आत्मा का प्रकाश होता है। सांख्य और सांख्यगर्भित वेदान्त प्रस्थान के अनुसार सत्व, रजस् तथा तमस् – संज्ञक तीन गुण हैं। गुणानुरूप प्राणियों की गति, मति तथा स्थिति शास्त्र, युक्ति तथा अनुभूति सिद्ध है। विशुद्ध सत्त्व से ध्यान, समाधि और अविप्लव विवेक ख्याति तथा निर्वृति रूपा मुक्ति सुलभ होती है। मलिन सत्त्व से यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा पर्यन्त निवृत्ति योग सुलभ होता है। रजोगुण से अर्थ और काम पर्यवसायी धर्मानुष्ठानों में प्रीति तथा प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। तमोगुण की प्रगल्भता से निद्रा, आलस्य, प्रमाद या हिंसादि क्रूर कर्मों में प्रीति तथा प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।