घटिया और नकली दवाएं दे रहीं हैं जन स्वास्थ्य को बड़ी चुनौती

2017 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार विकासशील देशों में कम-से-कम 10% दवाएं, घटिया या नक़ली थीं। इस रिपोर्ट ने यह भी स्पष्ट रूप से कहा था कि ये आंकड़े बहुत कम रिपोर्ट हो सके हैं जब कि संभवत: यह समस्या इससे कहीं अधिक बड़ी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ फिलिप मैथ्यू ने एएमआर डायलॉग्स सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि यदि थोक विक्रय के आंकड़े देखें, तो विकासशील देशों में घटिया और नक़ली दवाओं पर अमरीकी डॉलर 30.5 अरब से अधिक व्यय होता है। हर साल निमोनिया के इलाज करवा रहे 70,000 से 170,000 बच्चे (5 साल से कम आयु के), घटिया और नकली दवाओं के इस्तेमाल के कारण मृत होते हैं।

प्रख्यात अधिवक्ता लीना मेंघाने ने बताया कि बिहार में एचआईवी के साथ जीवित लोगों को, जिन्हें एडवांस्ड एचआईवी रोग है, को सबसे बड़ा जानलेवा खतरा दवा प्रतिरोधक संक्रमण से है -जैसे कि क्रिप्टोकॉकल मेनिनजाइटिस। एक ओर बड़ी संख्या में वे लोग हैं जिन्हें दवाएँ मुहैया ही नहीं हैं, और दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो दवा प्रतिरोधक संक्रमणों से जूझ रहे हैं।

सबको बराबरी, अधिकार और सामाजिक न्याय के आधार पर स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना पहले से ही एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। चाहे कोई भी रोग हो, सब को जल्दी और सही जांच, सही इलाज और देखभाल मिलना, जमीनी स्तर पर काफ़ी दुर्लभ है। जब दवाएं कारगर नहीं रहतीं क्योंकि दवा प्रतिरोधकता या रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस) हो जाती है तो यह चुनौती अधिक जटिल बन जाती है। अब कल्पना करें कि ऐसे में यदि दवाएं घटिया या नकली होंगी तो जन स्वास्थ्य की समस्या कितनी अधिक पेचीदा हो जाएगी।

घटिया या नकली दवाएं क्या हैं?

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुसार जो दवाएं गुणवत्ता मानकों और विनिर्देशों को पूरा नहीं करती वे घटिया या नकली श्रेणी में आती हैं। ऐसी घटिया या नक़ली दवाओं से इलाज नहीं हो पाता क्योंकि उनमें या तो उचित सामग्री नहीं होती या सही मात्रा में नहीं होती। यदि दवाओं में मिलावट होगी या विषैले पदार्थ होंगे तो वह फायदेमंद होने के बजाय उल्टा नुकसानदायक भी हो सकती हैं। और ऐसी घटिया और नकली दवाओं से दवा प्रतिरोधकता भी बढ़ती है।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ कामिनी वालिया ने कहा कि जब रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु दवाओं से मृत नहीं होते हैं तो उसे रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस) कहते हैं – यानी कि जीवाणु दवा प्रतिरोधक हो चुके हैं और वह दवाएं इन पर असरकारी नहीं होंगी। अब इलाज के लिए नई दवाओं की ज़रूरत होगी और नई दवाएं या तो अत्यंत सीमित और महँगी हैं या है ही नहीं। हर साल 50 लाख लोग रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण मृत होते हैं। यदि रोगाणुरोधी प्रतिरोध को रोका नहीं गया तो 2050 तक 1 करोड़ से अधिक व्यक्ति प्रति वर्ष इससे मृत होंगे और वैश्विक अर्थ व्यवस्था को अमरीकी डॉलर 100 ट्रिलियन से अधिक का नुक़सान होगा।

डॉ वालिया ने कहा कि मानव स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य, पशुधन और मुर्गीपालन, तथा कृषि आदि में दवाओं के दुरूपयोग के कारण रोगाणुरोधी प्रतिरोध एक वैश्विक जन स्वास्थ्य चुनौती बना हुआ है। 60% दवाएं जो बनती हैं वे पशुधन और मुर्गीपालन में उपयोग की जाती हैं। दवाओं के दुरुपयोग के कारण रोगाणु, रोगाणुरोधी प्रतिरोध उत्पन्न कर लेते हैं और दवाएं रोगों पर कारगर नहीं रहती। अनेक दवा प्रतिरोधक जीवाणु हैं जो पशुओं से मनुष्य में पहुँच सकते हैं- जैसे कि साल्मोनेला, ई कोलाई, एस ऑरियस, कैंपीलोबैक्टर, क्लेब्सिएला, एंट्रोकॉकस, आदि। डॉ कामिनी वालिया ने चेताया कि हालांकि पशुओं से मानव तक संक्रमण फैलाव के संबंध में कुछ वैज्ञानिक प्रमाण हैं, परंतु बड़े स्तर पर शोध की आवश्यकता भी है।

घटिया और नकली दवाओं पर विराम लगे

डॉ फिलिप मैथ्यू ने बताया कि अनेक कारण हैं जिनकी वजह से घटिया और नकली दवाओं की चुनौती बरकरार है: कमजोर विनियामक प्रणालियाँ, आपूर्ति शृंखलाओं की जटिलता, सही दवाएं अत्यंत महंगी होना जिसके कारण लोग पैसा बचाने के लिए सस्ते विकल्प खोजते हैं, कमजोर स्वास्थ्य प्रणाली, आदि।

डॉ मैथ्यू का कहना है कि यदि लोग सार्वभौमिक स्वास्थ्य व्यवस्था या स्वास्थ्य बीमा से पूर्णत: लाभान्वित नहीं होंगे तो उनकी जेब से ही स्वास्थ्य व्यय होता रहेगा – जो अक्सर लोगों को अधिक गरीबी में धकेल देता है। इसी कारण से लोग सस्ते विकल्प खोजने को मजबूर होते हैं जो घटिया या नकली भी हो सकते हैं। विभिन्न स्तर पर भ्रष्टाचार और उपभोक्ता जागरूकता की कमी भी इस समस्या को बढ़ावा देती है।

कुछ महीने पहले (दिसंबर 2024 में) विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें घटिया और नकली दवाओं से संबंधित 2017-2021 के वैश्विक आंकड़ें हैं। डॉ मैथ्यू ने बताया कि “इस रिपोर्ट ने चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए क्योंकि घटिया और नकली दवाओं की दर कम होने के बजाए बढ़ोतरी पर थी। हर साल यह दर 36.3% बढ़ रही थी। इनमें अनेक प्रकार की दवाएं शामिल थीं, जैसे कि, एंटीबायोटिक, एंटी-वायरल, एंटी-फंगल, एंटी-पैरासिटिक (मलेरिया आदि की दवाएं), कैंसर की दवाएं, वैक्सीन या टीके। इस रिपोर्ट में 877 मामलों का विस्तार से ज़िक्र है जहाँ घटिया और नक़ली दवाएं पकड़ी गई थीं। स्पष्ट है कि इसके कारण दवा प्रतिरोधकता या रोगाणुरोधी प्रतिरोध का ख़तरा अधिक गंभीर हो गया है।

“मिनिमम इन्हिबिटरी कंसंट्रेशन”, दवाओं की उस न्यूनतम मात्रा को कहते हैं जिससे रोगाणु में बढ़ोतरी बंद हो जाती है। पर घटिया और नकली दवाएं अक्सर इस मानक पर खरी नहीं उतरती जिसके कारणवश न केवल रोगी अधिक पीड़ा झेलता है, संक्रमण का फैलाव नहीं रुकता, मृत्यु का ख़तरा बढ़ता है, बल्कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध भी बढ़ता है। डॉ मैथ्यू का कहना सही है कि घटिया और नकली दवाओं के कारण लोगों की आय का हर्जाना होता है, जेब से होने वाले स्वास्थ्य व्यय अनावश्यक रूप से बढ़ते हैं, और लोगों का स्वास्थ्य प्रणाली में विश्वास डगमगाता है।

यदि दवाएं सही अवधि तक, या सही मात्रा में नहीं दी जाएंगी तब भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध होने का ख़तरा बना रहता है और दवा प्रतिरोधक संक्रमण का फैलाव बढ़ता है।

एक ओर जहाँ हमें यह सुनिश्चित करना है कि सभी आवश्यक दवाओं की कमी न होने पाए और आपूर्ति शृंखला मज़बूत बनी रहे, तो दूसरी ओर यह भी पक्का करना है कि दवाएं घटिया या नकली न हों।

लीना मेंघने ने कहा कि सरकार को प्रभावित समुदाय को गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहिए। लीना ने एक उदाहरण साझा किया – 2024 में एचआईवी के साथ जीवित लोगों के नेटवर्क से शिकायत आने लगी कि नए बैच की जीवनरक्षक एंटीरेट्रोवायरल दवाएं बहुत कड़वी हैं और दवाओं की गोली टूट रही है। जब इसकी सूचना सरकार के राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम और अन्य औषधि विनियामक अधिकारियों को दी गई तो एक हफ़्ते के अंदर इन दवाओं को विश्व स्वास्थ्य संगठन की उन दवाओं से बदला गया जिनकी गुणवत्ता की जांच हो चुकी थी।

दवाओं की जैव समतुल्यता और स्थिरता

लीना का कहना है कि अक्सर गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया के अंतर्गत दवाओं के किसी बैच के सैंपल या नमूने की जाँच की जाती है कि उसमें कोई मिलावट न हो, दवाओं में ऐक्टिव फार्मास्यूटिकल एजेंट की मात्रा सही हो, आदि। परंतु गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में प्रायः यह  जांच नहीं होती कि दवाओं की जैव समतुल्यता और स्थिरता, विभिन्न मौसम तापमान और नमी में भी सही रहती है या नही। गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया में यह भी पुष्टि की जानी चाहिए कि दवाएं जैव समतुल्य और स्थिर रहें।

लीना मेंघने ने एक और उदाहरण साझा किया कि सरकार के राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तहत, नई दवाओं की ख़रीद हेतु जो टेंडर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं, उनमें दवाओं की गुणवत्ता के मानक एक समान नहीं हैं।

ग्रेट ब्रिटेन पाउंड 1 मिलियन का द ट्रिनिटी चैलेंज

विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ फिलिप मैथ्यू ने कहा कि घटिया या नकली दवाओं पर रोक लगाने के लिए नई तकनीकी खोज ज़रूरी है। इसी दिशा में, द ट्रिनिटी चैलेंज ने 1 मिलियन ग्रेट ब्रिटेन पाउंड की प्रतियोगिता की घोषणा की है जिससे कि घटिया और नकली दवाओं पर रोक लगाने हेतु, विकासशील देशों के लोग नवीन तकनीकी समाधान प्रस्तुत कर सकें।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ कामिनी वालिया ने कहा कि औषधि विनियमक अधिकारियों और स्थानीय निर्माताओं की क्षमता में विकास आवश्यक है जिससे कि नवीनतम निगरानी तकनीकियों का उपयोग हो सके और घटिया और नकली दवाओं पर विराम लग सके। वैश्विक आपूर्ति शृंखला को भी मजबूत करना होगा जिससे कि सभी आवश्यक जाँच और इलाज, सभी लोगों को सम्मान के साथ बिना विलंब मिल सके और रोगाणुरोधी प्रतिरोध की चुनौती का मुकाबला हम सब प्रभावकारी ढंग से कर सकें।

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