“चार साल से जल रही उम्मीदों की चिता, 10 हजार की रिश्वत लेते पकड़ा गया ‘नौकरी का सौदागर’!”

स्वास्थ्य विभाग के लिपिक की करतूत बेनकाब, एंटी करप्शन टीम की कार्रवाई से हड़कंप

सहारनपुर/मध्यप्रदेश(गंगा प्रकाश)। सरकारी दफ्तरों में जब संवेदनाएं खत्म हो जाती हैं और कुर्सियाँ इंसानियत को निगलने लगती हैं, तब कहीं न कहीं एक मनोज कुमार जैसा व्यक्ति हिम्मत करता है, और भ्रष्टाचार की गंदी दीवारों में दरार डाल देता है।

मामला है सहारनपुर के स्वास्थ्य विभाग के मलेरिया शाखा का, जहां एक मासूम लड़की की जिंदगी की चाबी 50 हजार की रिश्वत में गिरवी रखी गई थी। और यह चाबी पकड़े बैठा था एक सरकारी लिपिक – राकेश कुमार, जिसे एंटी करप्शन टीम ने शुक्रवार को 10 हजार रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों दबोच लिया।

माँ की मौत, बेटी की उम्मीदें, और सिस्टम की बेरहमी

नवादा तिवाया गांव की रहने वाली शशिबाला स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत थीं। चार साल पहले जब वह इस दुनिया से चली गईं, तो उनकी बेटी को सरकारी नियमों के अनुसार मृतक आश्रित की नौकरी मिलनी चाहिए थी। लेकिन फाइलें धूल खाती रहीं, और राकेश कुमार जैसे “फाइलों के दलाल” बार-बार यह कहते रहे –

“काम करवा देंगे, लेकिन थोड़ा खर्चा-पानी लगेगा… 50 हजार चाहिए।”

चार साल तक मनोज कुमार और उसकी बेटी सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाते रहे। हर बार एक ही जवाब –

“अभी साहब मीटिंग में हैं… फाइल ऊपर नहीं भेजी गई…”

असल में फाइल फंसी नहीं थी, फाइल ‘फंसाई’ गई थी – रिश्वत के जाल में।

शिकायत की चिंगारी बनी आग

थक-हार कर मनोज कुमार ने दो दिन पहले एंटी करप्शन विभाग का दरवाज़ा खटखटाया। पूरा मामला बताया गया।

टीम ने तुरंत प्लान बनाया। शुक्रवार की दोपहर, जैसे ही राकेश कुमार ने 10 हजार रुपये की रिश्वत ली, टीम ने उसे दबोच लिया। कोई बहाना नहीं, कोई बचाव नहीं।

सामने थी ‘इंसानियत को बेचने वाली’ वो खुली नंग-धड़ंग सच्चाई, जिसे अब कैमरे भी छिपा नहीं सकते थे।

क्या सिर्फ एक लिपिक दोषी है?

अब बड़ा सवाल उठता है –

  • क्या चार साल तक सिर्फ एक बाबू फाइल रोक सकता है?
  • क्या ऊपर बैठे अधिकारी इससे अंजान थे?
  • या ये पूरा सिस्टम ही “मृतक आश्रित की नौकरी” को एक कमाई का जरिया बना बैठा है?

जनता में गुस्सा, अफसरों में खलबली

एंटी करप्शन की इस कार्रवाई के बाद सहारनपुर के स्वास्थ्य विभाग में हड़कंप है। आम जनता आक्रोश में है। लोगों का कहना है कि –

“जब एक मरे हुए कर्मचारी की बेटी को नौकरी के लिए चार साल परेशान किया जा सकता है, तो जीवितों का क्या होगा?”

न्याय की पहली जीत, लेकिन लड़ाई बाकी है

मनोज कुमार की बेटी को अभी नौकरी नहीं मिली है, लेकिन उम्मीद जागी है – कि ‘सिस्टम को हिलाया जा सकता है, अगर आवाज़ बुलंद हो।’

राकेश कुमार पर भ्रष्टाचार की धाराओं में केस दर्ज कर लिया गया है। अब देखना होगा कि क्या बाकी जिम्मेदार अफसरों पर भी कार्रवाई होती है, या यह मामला सिर्फ एक ‘बली के बकरे’ तक सिमट जाएगा?

यह कोई कहानी नहीं, एक सच्चाई है – उस भारत की, जहां सरकारी कुर्सियाँ संवेदनहीनता की सबसे ऊँची मिसाल बनती जा रही हैं। लेकिन शुक्र है कि अभी कुछ दरवाज़े बंद नहीं हुए हैं – जैसे एंटी करप्शन का दरवाज़ा और आम आदमी की आवाज़।

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