छत्तीसगढ़: नक्सलियों पर वार सफल, पर भ्रष्टाचार से हारते विकास के सपने

 

संपादक- प्रकाश कुमार यादव

रायपुर (गंगा प्रकाश)। एक राज्य जो कभी नक्सली हिंसा का पर्याय माना जाता था, आज उस अंधेरे से निकलकर विकास की रौशनी की ओर बढ़ रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह रौशनी आख़िरी गाँव तक पहुँची है? और अगर नहीं, तो क्यों?

24 वर्षों में चार मुख्यमंत्री बदले, लेकिन एक चीज़ नहीं बदली—भ्रष्टाचार। योजनाओं की घोषणाएँ होती रहीं, उद्घाटन पट्टियाँ लगती रहीं, और बजट घोषणाओं की तालियों में गांव के आखिरी घर तक सिर्फ़ आशाएँ पहुँचीं—विकास नहीं।

सरकारी नीतियाँ और ज़मीनी सच्चाई: एक गहरी खाई

अजीत जोगी ने राज्य को प्रशासनिक आकार दिया, लेकिन विकास की रफ्तार सीमित रही।

रमन सिंह के 15 वर्षों में पीडीएस सुधार और सस्ते चावल की स्कीम चर्चित हुई, पर उसी दौरान चावल घोटाले जैसे मामले भी उभरे।

भूपेश बघेल ने ग्रामीण योजनाओं को प्राथमिकता दी, पर खनिज और पंचायत विभाग में भ्रष्टाचार के आरोप छिप नहीं सके।

विष्णूदेव साय की सरकार ने पारदर्शिता की बात की, पर शुरुआती समय में ही विभिन्न विभागों में गड़बड़ियाँ उजागर होने लगीं।

तो यह दोष किसका है?

नक्सलवाद हारा, लेकिन क्या भ्रष्टाचार जीता?

पिछले एक दशक में सुरक्षा बलों और प्रशासनिक प्रयासों से नक्सलवाद पर लगाम लगी है। बस्तर, सुकमा, दंतेवाड़ा जैसे इलाके अब पहले जैसे डर से ग्रस्त नहीं हैं। लेकिन अब एक नया डर राज्य को खोखला कर रहा है—भ्रष्टाचार का साम्राज्य।

यह ‘नया नक्सलवाद’ अफसरशाही की कोठियों में पलता है, जहाँ स्कूलों का बजट किताबों तक नहीं, पर गोलमाल तक ज़रूर पहुँचता है। जहाँ ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर कम, मगर फाइलों में खर्चा ज़्यादा दिखता है।

हर परियोजना का हिस्सा बनता है ‘कट’:

  • ग्रामीण सड़क योजना में कमीशन: गाँव के लोग कहते हैं, “सड़क आती है, लेकिन पहले ठेकेदार और अधिकारी की जेब भरती है।”
  • मनरेगा के नाम पर कागजी मजदूर: पेमेंट तो हुआ, लेकिन काम किसी ने किया नहीं।
  • स्कूल भवन अधूरे, फिर भी पेमेंट पूरा।

प्रशासन की आँखें अब भी बंद क्यों हैं?

जनता पूछती है—“जब नक्सलियों पर रॉकेट चल सकता है, तो भ्रष्टाचारियों पर एक्शन क्यों नहीं?”

कितनों को बलि चढ़ाना होगा? और क्या यही हमारी आज़ादी है—जहाँ योजनाएँ योजनाकारों की जेब में खत्म हो जाएँ?

कब तक जनप्रतिनिधि और अधिकारी जनता की मेहनत की कमाई को फाइलों में छिपाते रहेंगे?

जनता की आवाज बन रहा है सवाल:

  • “क्या विकास अब भी सिर्फ़ चुनावी जुमला है?”
  • “क्या सिस्टम सिर्फ उन तक काम करता है जिनके पास ‘सिस्टम से रिश्ता’ है?”
  • “क्या अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने वाला पैसा, पहले अधिकारी की मेज पर क्यों अटकता है?”

समाप्ति नहीं, शुरुआत चाहिए: एक नए संघर्ष की

छत्तीसगढ़ अब नक्सलियों से नहीं डरता, लेकिन भ्रष्टाचार की खामोशी सबसे बड़ा खौफ बन चुकी है। यह वक्त है कि जनता, पत्रकार, न्यायपालिका और जिम्मेदार नेता—सब एक साथ खड़े हों और पूछें:

“विकास के दुश्मन कौन हैं?”

क्योंकि जबतक यह सवाल ज़िंदा रहेगा, तब तक उम्मीद भी ज़िंदा रहेगी।

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