अन्त:करण के मन , बुद्धि , चित्त तथा अहंकार संज्ञक चार प्रभेद – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)– ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज अन्त:करण के प्रभेदों की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि अभ्यन्तर पवन के प्राण , अपान , व्यान , उदान , समान ; नाग, कूर्म, कुकर , देवदत्त तथा धनञ्जय संज्ञक दस प्रभेद हैं। प्राण के योग से उच्छवास, अपान के योग से श्रवण , व्यान के योग से उन्नयन , उदान के योग से ग्रहण और समान के योग से समीकरण की सिद्धि सम्भव है। नाग के योग से उद्गार , कूर्म के योग से उन्मीलन, कृकर के योग से क्षुत्करण , देवदत्त के योग विजृम्भण और धनञ्जय के योग से श्लेष्मादि की सिद्धि सम्भव है। आत्मा में प्राणनादि क्रिया का कर्तृत्व औपाधिक है। अन्त:करण के मन , बुद्धि , चित्त तथा अहंकार संज्ञक चार प्रभेद हैं। अन्त:करण से ज्ञातृत्व की , मन से संकल्प की , बुद्धि से निश्चय की , चित्त से स्मरणात्मक अनुसन्धान की और अहंकार से अभिमान की सिद्धि होती है। शब्द तथा ज्ञान की सहस्थिति संकल्पादि की सिद्धि है। केवल ज्ञान आत्मा है। वाक्यपदीयम्  के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि व्यवहार साधक बोध में शब्द का योग सुनिश्चित है। संकल्प – विकल्प , निश्चय , स्मरण और गर्व – संज्ञक प्रत्यय में शब्द सन्निवेश अनुभव सिद्ध है। किसी भी भाषा के शब्द या शब्द जन्य संस्कार का आलम्बन लिये बिना संकल्पादि की सिद्धि सर्वथा असम्भव है। अभिमत शब्द, स्पर्श , रूप , रस , गन्ध और इनके अभिव्यञ्जक संस्थान स्रक् , चन्दन , वनिता और व्यञ्जनादि से मनोयुक्त – इन्द्रिय संस्पर्श सुलभ आनन्द का जाग्रत में जीव भोक्ता होता है। अर्धनिद्रित मनोवैभव रूप अभिमत शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गन्ध और इनके अभिव्यञ्जक संस्थान स्रक् , चन्दन , वनिता और व्यञ्जनादि संस्पर्श सुलभ आनन्द का स्वप्न में जीव भोक्ता है। विषयेन्द्रिय मनोयोग विहीन अहंग्रहातीत चित्त सत्त्व संश्लिष्ट तमसाच्छन्न आनन्द का सुषुप्ति में जीव भोक्ता होता है। स्वप्रकाश अभोग्य आनन्द साक्षात् आत्मा है। विभु आत्मा परमात्मा है। वह भास्य प्रकृति सहित प्राकृत प्रपञ्च का अधिष्ठानात्मक परमाश्रय है। अद्वय परमात्म भावापत्ति मुक्ति है I मुक्ति की स्फूर्ति के लिये श्रीहरि – गुरुकरुणा के अमोघ प्रभाव से शक्तिपात अपेक्षित है। सन्मार्गस्थ साधक के हृदय में साधन सम्पत् की परिपक्व दशा में सम्वित् तथा आह्लाद संज्ञक शक्ति विशेष की स्वत: अजस्त्र स्फूर्ति भी सम्भव है। ज्ञान तथा आनन्द की स्फूर्ति शक्तिपात का लक्षण है। प्रबोध और आनन्द की अभिव्यञ्जिका प्रबोध और आनन्द रूपिणी परा शक्ति है। उसके बिना शुद्धि , शिवाचार , बुद्धि , विद्या , सिद्धि तथा मुक्ति असम्भव है। आनन्द और बोध के सूचक अन्तःकरण की विक्रिया के द्योतक कम्प , रोमाञ्च , स्वरभेद , नेत्र नर्तनादि प्रसिद्ध हैं। बोधोत्तर तत्काल देहपात अथवा भावाद्रेक की दशा में भूमिगत देह में रोमाञ्च , कम्प , पसीना तथा हर्षोल्लास , आनन्द की स्फूर्ति – शक्तिपात के लक्षण हैं।

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