सर्व ऋद्धि सिद्धियों का उद्गम स्थान है धर्म – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी पुरुषार्थ सिद्धि की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि देहात्म वादियों के मत में मृत्यु पर्यन्त सुखमय जीवन की स्वस्थ विधा नीति संज्ञक धर्म है। चेतना का सर्वथा विलोप मृत्यु है। मृत्यु मुक्ति है। अतएव चेतना विशिष्ट शरीर को आत्मा मानने वाले देहात्म वादियों को देहान्तर से सम्बद्ध आत्म सापेक्ष धर्म तथा देहेन्द्रिय प्राणान्त: करण से अतीत आत्म सापेक्ष मोक्ष अमान्य है। पुरुष संज्ञक जीव को लेकर उक्त मान्यता के कारण देहात्म वादियों को पश्वादि शरीरों में भी सुलभ अर्थकाम रूप पुरुषार्थ द्वय ही मान्य है। भौतिक वादियों की दृष्टि में भोग्य समग्री अर्थ है। भोग्य सामग्री का उपभोग और उससे प्राप्त आह्लाद काम है। वृक्षादि उद्भिज्ज संज्ञक प्राणियों में देश – काल – जाति – वय के अनुरूप स्वभाव सिद्ध प्रवृत्ति – निवृत्ति की निसर्ग सिद्ध निर्धारित विधा ही नीति या धर्म है तथा अनुकूल आहार – विहार रूप अर्थ की समुपलब्धि से सुलभ आह्लाद ही काम है। मर्त्य लोक में सुलभ मानवेतर जङ्गम पश्वादि प्राणियों में भी देश – काल – जाति – वय के अनुरूप स्वभाव सिद्ध प्रवृत्ति – निवृत्ति की निसर्ग सिद्ध निर्धारित विधा ही नीति या धर्म है तथा अनुकूल आहार – विहार रूप अर्थ की समुपलब्धि से सुलभ आह्लाद ही काम है। जातिस्मर यमलार्जुन तथा मृग भरतादि में विलक्षण प्रवृत्ति – निवृत्ति का कारण पौर्व दैहिक प्रज्ञा की स्फूर्ति है। देहान्तर से सम्बद्ध आत्म वादियों के मत में प्रवृत्ति तथा निवृत्ति का नियामक वेदादि शास्त्र सम्मत विधि तथा निषेध का अनुपालन धर्म है। उनके मत में देहेन्द्रिय प्राणान्तः करण से विविक्त तथा सर्वथा अतीत सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा में आत्म बुद्धि और तदनुरूप आत्म स्थिति मोक्ष है। उनकी दृष्टि में परम अर्थ परमात्मा की अभिव्यक्ति आकाश , वायु , तेज , जल , पृथ्वी और इनसे मण्डित निखिल सृष्टि का न्याय उपार्जित सुलभ अंश अर्थ है और उसके उपयोग और उपभोग से प्राप्त आह्लाद और तदर्थ (भगवदर्थ) बल तथा वेग काम है। धर्म अर्थ और काम का साधक तथा मोक्ष का ख्यापक है। अतः धर्मालम्बन आवश्यक है। धर्म से अर्थ सुलभ होता है , धर्म से काम समुत्पन्न होता है , धर्म स्वयं धर्म है ही ; अपवर्ग रूप मोक्ष का अभिव्यञ्जक भी धर्म ही है। धर्म से अर्थ समुपलब्ध होता है तथा धर्म से सुख समुपलब्ध होता है। धर्म से सब सुलभ होता है। यह जगत् धर्मसार है , अभिप्राय यह है कि सर्व ऋद्धि – सिद्धियों का उद्गम स्थान धर्म है। स्वस्थ , शान्त तथा सुखमय जीवन की समुपलब्धि की भावना से सञ्चित विषयोपभोग की सामग्री अर्थ है। विषयोपभोग से सुलभ स्वस्थ , शान्त तथा सुखमय जीवन की समुपलब्धि काम है। अर्थ से काम की सिद्धि सनातन सिद्धान्त है। प्रलयोत्तर महासर्ग के प्रारम्भ में सर्वेश्वर जीवों के देह , इन्द्रिय , प्राण और अन्तःकरण से युक्त जीवन की तथा बाह्य जगत् की संरचना इस अभिप्राय से करते हैं कि महाप्रलय के अव्यवहित पूर्वक्षण पर्यन्त अकृतार्थ प्राणी पुरुषार्थ चतुष्टय के माध्यम से भोग और मोक्ष सुलभ कर सकें।

0Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *