द्रष्टा की दृष्टि में ,  ज्ञाता की ज्ञेय में तथा भोक्ता की भोग्य में प्रीति तथा प्रवृत्ति है अनुभव सिद्ध – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की शास्त्र सम्मत विधा की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि सृष्टि संरचना का प्रयोजन समझकर मोक्ष को परम पुरुषार्थ मानने वाले तदर्थ धर्म के अविरुद्ध और अनुकूल अर्थोपार्जन और विषयोपभोग के पक्षधर महानुभावों के जीवन में सन्निहित सुखद और शान्तिप्रद अर्थ और काम देहात्मनिष्ठ भौतिक वादियों का भी आकर्षण केन्द्र होता है। भौतिक वादियों के द्वारा मन:कल्पित आहार , विहार और सकल व्यवहार प्रबल विषाद में प्रयुक्त तथा विनियुक्त होता है ; जबकि वैदिक महर्षियों के द्वारा चिर परीक्षित तथा प्रयुक्त आहार , विहार और सकल व्यवहार पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि में प्रयुक्त तथा विनियुक्त है। नीति तथा प्रीति में ; तद्वत् स्वार्थ तथा परमार्थ में सामञ्जस्य साधने में निपुण अध्यात्म वादी भौतिक वादियों की भी आस्था के केन्द्र होते हैं। वे कर्म का पर्यवसान अकर्म में होने पर, प्रवृत्ति का पर्यवसान निवृत्ति में होने पर , नीति का पर्यवसान प्रीति में होने पर , स्वार्थ का पर्यवसान परमार्थ में होने पर, जन्म का पर्यवसान जन्मजय में होने पर , मृत्यु का पर्यवसान मृत्युजय में होने पर जीवन को सार्थक मानते हैं। ऐसे महानुभाव नीबू का त्याज्यांश छिलका भी जिस

प्रकार अचार बनाने की प्रक्रिया से अचार बन जाने पर ग्राह्य बन जाता है ; उसी प्रकार संस्कार के बल पर त्याज्य को भी ग्राह्य बनाने में समर्थ होते हैं। जो अनित्य और असुख अर्थात् अशाश्वत और दुःखालय ; तद्वत् विषम और सदोष जीवन का उपयोग और विनियोग नित्य , सम , निर्दोष सुखरूप ब्रह्मात्म तत्त्व की समुपलब्धि के लिये करते हैं ; वे बुद्धिमान् मनीषी अवश्य हैं। द्रष्टा की दृष्टि में , ज्ञाता की ज्ञेय में तथा भोक्ता की भोग्य में प्रीति तथा प्रवृत्ति अनुभव सिद्ध है। अतएव सिद्ध साध्य के लिये ; यह लौकिकी गाथा चरितार्थ है। परन्तु दृश्यादि शेष की प्रियता शेषी आत्मा के लिये ; यह श्रुति सिद्ध लौकिकी गाथा भी सुषुप्ति तथा समाधि में अनुभव सिद्ध है। अतएव साध्य सिद्ध के लिये ; यह लोक – वेद सम्मत गाथा भी चरितार्थ है। यज्ञ , दान , तप आदि साध्य वेदैक समधिगम्य ब्रह्मवेदन में प्रयुक्त तथा विनियुक्त हैं I सदोष और विषम चैत्य संज्ञक दृश्य प्रपञ्च की उपेक्षा करने पर चिदात्मा निर्दोष और सम निज वास्तव रूप से शेष रहता है। दोषापनयन तथा गुणाधान से संस्कार की सिद्धि होती है। मलिन दर्पण पर ईंट का चूर्ण रगड़ने से दर्पण संस्कृत हो जाता है। यह दोषापनयन का उदाहरण है। बीजपूर ( बिजौरी नीबू ) आदि के फूल को लाख के रस से तर कर देने पर उसका फल अन्दर से लाल हो जाता है , यह गुणाधान संस्कार है।

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