वैदिक संस्कारों से देह , इन्द्रिय , प्राण और अन्त:करण का होता है शोधन – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)।– हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी संस्कार सम्पन्नता की महत्ता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि वैदिक संस्कार सम्पन्न ब्राह्मणादि द्विज होते हैं। मन्त्रों का विनियोग संस्कारों में होता है। इस मन्त्र से यह संस्कार कर्त्तव्य है। ऐसा बोध ब्राह्मण भाग के द्वारा सम्भव है। इतिकर्त्तव्यता (सहायक व्यापार) का बोध सूत्रों से होता है। सूत्र से ब्राह्मण की और ब्राह्मण से मन्त्र की सार्थकता सिद्ध होती है। वैदिक संस्कारों से देह , इन्द्रिय , प्राण और अन्त:करण का शोधन होता है। लौकिक तथा पारलौकिक अभ्युदय सुलभ होता है तथा निःश्रेयस रूप मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। अतएव इस लोक में तथा देहत्याग के पश्चात् परलोक में सुखप्रद जीवन की भावना से ब्राह्मणादि वर्णों का पवित्र संस्कार वेदोक्त मन्त्रों से अवश्य करना चाहिये। गर्भशुद्धि कारक हवन , जातकर्म , चूड़ाकरण ( मुण्डन ) , मौजी बन्धन ( उपनयन ) – संस्कारों से द्विजों के वीर्य तथा गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट होते हैं। स्कन्द पुराण  के अनुसार मनुष्य जन्मजात असंस्कारी होता है और संस्कार से क्रोधित होने पर शाप सामर्थ्य सम्पन्न और प्रसन्न होने पर अनुग्रह सामर्थ्य सम्पन्न द्विजरूप होता है। पद्मपुराण के अनुसार ब्राह्मण जन्मजात असंस्कारी होता है, संस्कार सम्पन्न होने से द्विज , विद्या सम्पन्न होने से विप्र और जन्म, संस्कार तथा विद्या तीनों के योग से श्रोत्रिय होता है। महर्षि हारीत के अनुसार संस्कारों की ब्राह्म एवं दैव – संज्ञक दो श्रेणियाँ है। गर्भाधानादि स्मार्त संस्कारों को ब्राह्म कहते हैं। इनसे सम्पन्न ऋषि सदृश होकर ऋषि सायुज्य लाभ करते हैं। पाकयज्ञ ( पकाये हुये भोजन की आहुतियाँ ) , यज्ञ (होम आहुतियाँ ) और सोम यज्ञादि दैव संस्कार कहे जाते हैं। विधिवत् गर्भाधान से पत्नी के गर्भ में भगवत् तत्त्व में आस्थान्वित वेदार्थ के अनुशीलन में अभिरुचि सम्पन्न जीव का प्रवेश होता है। पुंसवन संस्कार से गर्भ को पुरुषभाव से भावित किया जाता है। सीमोन्तोनयन के द्वारा माता – पिता से उत्पन्न दोष दूर किया जाता है। बीज , रक्त तथा भूण से उत्पन्न दोष जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन , चूड़ाकर्म और समावर्तन से दूर होते हैं। इस प्रकार गर्भाधान , पुंसवन , सीमोन्तोनयन , जातकर्म , नामकरण , अन्नप्राशन , चूड़ाकरण और समावर्तन से पवित्रता का सम्पादन होता है। उपनयनादि अष्टविध संस्कारों से देव – पितृ – कार्यों में परम पात्रता प्राप्त होती है। छान्दोग्योपनिषत् के अनुसार ब्रह्मा यज्ञ को मन से सम्पन्न तथा संस्कृत करते हैं , इस स्थल में श्रुति ने संस्कृत ( संस्कार सम्पन्न ) शब्द का प्रयोग किया है। नारद परिव्राजक उपनिषत् में चौवालीस संस्कार सम्पन्नता का उल्लेख किया है। वेदाध्ययन , व्रत , होम , त्रैविद्य , व्रत , पूजा , सन्तानोत्पत्ति , ब्रह्मयज्ञादि महायज्ञों से तथा ज्योतिष्टोमादि यज्ञों से ब्रह्म अभिव्यञ्जक शरीर की अर्थात् देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण रूप दिव्य जीवन की प्राप्ति है। संस्कार रूप आचार से देह , इन्द्रिय , मन , बुद्धि , द्रव्य , देश और क्रिया की शुद्धि होती है।

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