आधिपत्य वह राज्य प्रणाली है जिसमें नीति – प्रीति , स्वार्थ और परमार्थ के सामञ्जस्य से राज्य का सञ्चालन हो – पुरी शंकराचार्य


अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज आदर्श शासक की विशेषताओं की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि दार्शनिक धरातल पर धर्मराज्य और रामराज्य देने वाले हमारे आदर्श शासक का यह उद्घोष है कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है , ना अदाता , ना मद्यप , ना अनाहिताग्नि , ना अविद्वान् और ना परस्त्रीगामी ही है , फिर कुलटा स्त्री का होना तो सम्भव ही कैसे हैI वेदों में राज्य के साम्राज्य , भौज्य , वैराज्य , महाराज्य , आधिपत्य , समन्त (सामन्त) – पर्यायी माण्डलिक , स्वाराज्य और पारमेष्ठ्यादि विविध प्रभेदों का वर्णन है। अखिल भूमण्डल का वह सम्राट् जिसके अनुगत सब शासक आर्योचित शील का निर्वाह करते हुये शासन करते हों , उसके उस शासन का नाम साम्राज्य है। द्वीपों और वर्षों की प्रकृति प्रदत्त पर्वत , जलाशय , वन आदि के द्वारा निर्धारित सीमा में सन्निहित रहकर शासन करने वाला वह शासक जो समस्त स्थावर – जङ्गम प्राणियों के पोषण में संलग्न रहता हुआ मनुष्यों की सद्गति के अनुरूप अन्न , जल , वस्त्र , आवासादि की व्यवस्था का विधायक और निर्वाहक हो , उसके शासन का नाम भौज्य है। स्व सञ्चालित राज्य अर्थात् बिना राजा का राज्य वैराज्य है। विवेक बल पर एक दूसरे के हित का ध्यान रखकर राजा या जन प्रतिनिधि के बिना ही जीवन यापन करे , वह वैराज्य है। वृक्षों से वन तथा वनों से महावन के समान विविध राज्यों का वह समवेत स्वरूप जहाँ सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामञ्जस्य हो, महाराज्य है। राज्याधिकारियों के अधीन वह राज्य प्रणाली जिसमें नीति – प्रीति , स्वार्थ और परमार्थ के सामञ्जस्य से राज्य का सञ्चालन हो , उसे आधिपत्य कहते हैं। माण्डलिक राज्य को समन्त पर्यायी कहते हैं। यज्ञ , दान , तप आदि सत्कर्मों के द्वारा जिसमें जीव के देहेन्द्रिय प्राणान्तः करण का शोधन तथा स्वरूप स्थिति का प्रकल्प क्रियान्वित हो , उसे स्वाराज्य या स्वराज्य कहते हैं। जहाँ सच्चिदानन्द  स्वरूप सर्वेश्वर को राजा समझकर श्रुति , स्मृति , पुराण इतिहास के अनुरूप शासन प्रणाली हो , उसे पारमेष्ठ्य कहते हैं। हितैषी , हितज्ञ , हित करने में तत्पर तथा समर्थ शूर , सुशील , ओजस्वी और अमोघदर्शी राजा को आदर्श माना गया है। सभा , सभासद् , सभापति , सेना , सेनापति , भृत्य और प्रजा – इन सातों के साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव करने वाला शासक आदर्श मान्य है। आकर्षण शक्ति द्वारा और वायु पृथ्वी के धारक सिद्ध हैं ; वैसे ही प्रजा वत्सल संयत उत्तम शासक पुरोहित , मन्त्री , सेना , गुप्तचर आदि के द्वारा प्रजा के धारक होते हैं। नाम , गोत्र , देश , काल , सम्बन्ध के उल्लेख पूर्वक श्रद्धा तथा मन्त्र के योग से सम्पादित यज्ञ , दान , तप , श्राद्ध , तर्पणादि सर्व पोषक प्रकल्प सनातन धर्म के अतिशय महत्त्व के ख्यापक हैं।

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