भगवत् तत्त्व नित्य , सर्वगत , आत्मा , कूटस्थ और होता है निर्दोष – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)– ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज परब्रह्म की विभिन्न रूपों में परिलक्षित होने की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि उद्भासक संस्थान इन्द्रियों की देव संज्ञा है। ईशावास्य उपनिषत् के अनुशीलन से द्योतन शीला इन्द्रियों की देव संज्ञा है। इद्रियों से पर मन है , मन से पर बुद्धि है और बुद्धि से पर जीवात्मा है। अतएव इंद्रियों से पर मन, मन से पर बुद्धि और बुद्धि से पर जीवात्मा की देव संज्ञा है। जीव और जगत् के नियामक जगदीश्वर की परमदेव संज्ञा है। भगवत् तत्त्व नित्य , सर्वगत , आत्मा , कूटस्थ और निर्दोष है। वह स्वरूपतः निर्गुण और निष्कल है। वह आत्म माया से सर्गादि कृत्यों के निर्वाह की भावना से सकल और जलचन्द्रवत् विविध परिलक्षित होता है। वह उत्पत्त्यादि कृत्यों के सम्पादन के लिये हिरण्य गर्भात्मक सूर्य , आदित्य संज्ञक विष्णु , शिव संज्ञक रुद्र , गणपति और विद्या स्वरूपा शक्तिरूप से परिलक्षित होता है। उसकी विविधता को सत्य मानने वाले भ्रान्त हैं। सर्वानुगत , सर्वाधिष्ठान स्वरूप , सर्वभासक , सर्वसाक्षी , केवल , निर्गुण कर्माध्यक्ष एक देव ही सनातन प्रभु है। पञ्चब्रह्म उपनिषत् के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि पृथ्वी के नियामक सद्योजात , जल के नियामक अघोर , तेज के नियामक वामदेव , वायु के नियामक तत्पुरुष और आकाश के नियामक ईशान मान्य हैं। तद्वत् पृथ्वी के नियामक अधिदैव शिव , जल के नियामक अधिदैव गणेश , तेज के नियामक अधिदैव शक्ति , वायु के नियामक अधिदैव सूर्य और आकाश के नियामक अधिदैव विष्णु हैं।विवक्षावशात् पृथिवी में उत्पत्ति की, जल में पालन की , तेज में संहार की , वायु में तिरोधान रूप निग्रह की और आकाश में अनुग्रह की शक्ति विद्यमान है। अतएव पृथ्वी के नियामक अधिदैव हिरण्य गर्भात्मक ब्रह्मा , जल के नियामक अधिदैव विष्णु , तेज के नियामक अधिदैव शिव , वायु के नियामक अधिदैव शक्ति और आकाश के नियामक अधिदैव गणपति हैं। शैव , सौर , गाणेश ( गणेशोपासक गाणपत्य ) , वैष्णव तथा  शाक्त संज्ञक पञ्च देवोपासक उस एक ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त कर लेते हैं , जिस प्रकार वर्षा का जल सागर को प्राप्त कर लेता है। वह एक ब्रह्म अचिन्त्य शक्ति के योग से उत्पत्ति – स्थिति –  संहृति – निग्रह (तिरोधान) – अनुग्रह रूप कृत्यों के निर्वाहक हिरण्य गर्भात्मक सूर्य , विष्णु , शिव , शक्ति और गणपति संज्ञक पञ्च देवों के रूप में वैसे ही परिलक्षित होता है ; जैसे एक ही व्यक्ति नाम – रूप – क्रिया तथा सम्बन्ध भेद से देवदत्त, श्याम , वैदिक और पुत्रादि रूप से निरूपित होता है। यद्यपि ब्रह्म चिन्मय , निष्कल , अशरीर है ; तथापि उपासकों के कार्य की सिद्धि के लिये उसके विविध विग्रह , मुख , भुज , वर्ण , वाहन और परिकरादि की उसके द्वारा लीलोपयुक्त कल्पना की जाती है।

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