सनातन धर्म में एक देववाद है चरितार्थ – पुरी शंकराचार्य


अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी सनातन धर्म में एक देववाद की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि साकार भाव को प्राप्त उन देवताओं के स्त्री , पुरुष , अङ्ग और अस्त्रादि की भी कल्पना की जाती है। विविध रूपों में अभिव्यक्त पञ्च देवात्मक परब्रह्म के अवतार विग्रह के शंख , चक्रादि से सम्पन्न चार , छह , आठ , दस , बारह , सोलह , अट्ठारह , सहस्र भुज तथा वर्ण और वाहनादि की और शक्ति सेनादि की उद्भावना भक्तों के सर्वविध उत्कर्ष की भावना से है। वेदमूर्त्ति सूर्य ब्रह्मा , विष्णु और शिव के अभिव्यञ्जक संस्थान रूप धाम हैं। इन चारों की अभेद बुद्धि से पूजा से सचराचर पूजित होते हैं I ब्रह्माधिष्ठिता मूल प्रकृति गुणों की साम्यावस्था है। उसे विचारशील मनीषी प्रकृति , प्रधान तथा अव्यक्त नाम से अभिहित करते हैं। प्रजा की सृष्टि , स्थिति तथा संहृति में वही हेतु है। गुणों मे क्षोभ के अनन्तर रजोगुण के नियामक ब्रह्मा , सत्त्वगुण के नियामक विष्णु और तमोगुण के नियामक शिवरूप से एक ही सर्वेश्वर व्यत्त होते हैं। एकमूर्ति की त्रिदेव के रूप में अभिव्यक्ति के कारण ही सनातन धर्म में एक देववाद चरितार्थ है। कृतयुग में एक वेद , एक मन्त्र , एक धर्म के सिद्धान्त का सर्वतोभावेन निर्वाह होता था , जैसा कि महाभारत के अनुशीलन से सिद्ध है। सत्ययुग में सब एक परमात्म देव को ही भजनीय समझकर उनमें ही चित्त लगाये रहते थे , एकमात्र उन्हीं के प्रणव प्रधान मन्त्र का जप करते थे तथा विधि सम्मत क्रिया का उन्हीं के लिये सम्पादन कर उन्हीं के प्रति क्रिया कलाप को समर्पित करते थे। धर्म और ब्रह्म की सिद्धि में एकमात्र वेद को प्रमाण मानते हुए ही अपने – अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप विविध धर्मों का अनुष्ठान करते थे। ऐसा होने पर भी सब वेद सम्मत सनातन धर्मका ही अनुगमन करनेवाले थे। ॐ ही यह ध्रुव एकाक्षर शब्द ब्रह्मरूप से सन्निहित है। व्यापक और वर्धनशील होने के कारण उसका लक्ष्यभूत तत्त्व ब्रह्म इस नामसे कहा जाता है। स्वयं निरतिशय बृहत् होता हुआ सबकी सत्ता , चित्ता में हेतु होने के कारण सबका वर्द्धक है , अतः चिद्धातु ब्रह्म अर्थात् परंब्रह्म है। जो विश्व का सर्जन , पालन और स्वात्म तादात्म्य अपादन रूप संहारात्मक भोग करता है , वह आत्मा है। क्योंकि साक्षाद परोक्ष यह सबको व्याप्त करता है , ग्रहण करता है और इस लोक में विषयों को भोगता है तथा इसका सर्वदा सद्भाव है ; अत: यह आत्मा कहा जाता है। जिस प्रकार स्वयं अक्षुब्ध रहता हुआ भी गन्ध अपनी सन्निधि मात्र से मन को क्षुब्ध कर देता है , उसी प्रकार काल पुरुष परमेश्वर स्वयं अविक्रिय रहता हुआ ही अपनी सन्निधि मात्र से प्रकृति को क्षुब्ध कर देता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरी अध्यक्षता मात्र से प्रकृति चर और अचर रूप व्यक्त तथा अव्यक्त की संरचना करती है। मुझसे अधिष्ठित प्रकृति का सर्वरूपों में परिणाम के कारण ही जगत् चक्र का परिचालन परिलक्षित है। वह यह आद्य अज , आत्म स्वरूप पुरुष प्रत्येक कल्प में स्वयं में स्वयं की स्वयं ही सृष्टि करते हैं, उसका पालन तथा संहार करते हैं।

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