
अरविन्द तिवारी की कलम से
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)– ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाभाग जीव के चाह के वास्तव विषय की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि जितने समय तक प्राणी जल के बिना जीवित रह सकता है , उतने समय तक शरीर में स्थित तेज ( ऊष्मा) के बिना जीवित नहीं रह सकता। जितने समय तक वह तेज (ऊष्मा) के बिना जीवित रह सकता है , उतने समय तक प्राण वायु के बिना जीवित नहीं रह सकता। जितने समय तक वह प्राण पवन के बिना जीवित रह सकता है , उतने समय तक देहस्थित अवकाशप्रद आकाश के बिना जीवित नहीं रह सकता। कारण यह है कि पृथ्वी का कारण जल , जल का कारण तेज , तेज का कारण वायु और वायु का कारण आकाश है। पृथ्वी में शब्द , स्पर्श , रुप , रस और गन्ध – पाॅंच ;जल में शब्द , स्पर्श , रूप , रस – चार ; तेज में शब्द , स्पर्श, रूप – तीन ; वायु में शब्द तथा स्पर्श – दो और आकाश में केवल शब्द नामक गुण सन्निहित है। अतएव पृथ्वी से जल , जल से तेज , तेज से वायु और वायु से आकाश – उत्तरोत्तर सन्निकट निर्विशेष होने के कारण पूर्वापेक्षा उत्तर का अधिक महत्व है। परन्तु ये पञ्चभूत जड़ होने के कारण चेतन जीव के लिये प्रयुक्त तथा विनियुक्त हैं। जीव की चाह के वास्तव विषय उसका वास्तव रूप जीवन धन अद्वय सच्चिदानन्द स्वरूप जगदीश्वर ही हैं। प्रत्येक अंश स्वभावतः अपने अंशी की ओर ही आकृष्ट होता है , यह सनातन सिद्धान्त है। पुष्प , फलादि पार्थव पदार्थ स्वाश्रय से च्युत होकर तथा ऊपर उछाले जाने पर वेग के निरस्त होने पर अंशी पृथ्वी से समाकृष्ट होकर उसी की ओर गतिशील होते हैं। जलप्रपात उसके उद्गमस्थल उदधि की ओर ही समाकृष्ट होता है। दीपशिखा उसके उद्गमस्थल नभोमण्डल में सन्निहित सूर्य की ओर आकृष्ट होती है। तद्वत् जीव भी नामरूपात्मक जगत् में अनुगत अपने अंशी – सदृश सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की ओर ही आकृष्ट होता है , वे ही उसके विश्रामस्थान सिद्ध हैं। जीव मृत्यु के चपेट से विनिर्मुक्त सत्संज्ञक मृत्यंजय पद अमृतत्व चाहता है। वह अज्ञता के चपेट से विनिर्मुक्त चित्संज्ञक अखण्ड बोध चाहता है। वह दैहिक , दैविक तथा भौतिक त्रिविध तापों के चपेट से विनिर्मुक्त अखण्ड आनन्द चाहता है। वह द्वैताभिनिवेश विनिर्मुक्त अद्वयात्म स्थिति चाहता है। जीव यद्यपि अद्वय सच्चिदानन्द स्वरूप ही है ; तथापि उसकी चाह का विषय सच्चिदानन्द उसी तरह है , जिस तरह जल अर्थात् उसके अधिदैव वरूण की चाह का विषय जल। जिस प्रकार जल की प्यास को जल पिलाकर दूर करने की आवश्यकता नहीं ; अपितु उसे मात्र निज जलरूपता की स्मृति दिलाने की आवश्यकता है ; उसी प्रकार जीव को विषयसंसर्ग सापेक्ष जीवन , बोध और आनन्द दिलाने की आवश्यकता नहीं ; अपितु उसे मात्र निज सच्चिदानन्द रूपता की स्मृति दिलाने की आवश्यकता है। सच्चिदानन्दरूप ब्रह्माण्ड तत्व ही निर्विशेष तथा सविशेषरूप से भजनीय है। उसके बिना जीवन और जगत् की कल्पना ही असम्भव है। वह सर्वोपरि प्रेमास्पद ही नहीं , अपितु एकमात्र परम प्रेमास्पद है।