
अरविन्द तिवारी की कलम से
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)– हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की अभिव्यक्ति और उनके अभिव्यञ्जक संस्थान की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि छादोग्य् उपनिषत् में जो पृथ्वी , द्यु – आदि लोकों का नियामक तथा धारक और पापादि दोषों से नित्य पारङ्गत है , उस आदित्य मण्डलान्तर्गत परमात्मा नख पर्यन्त सुवर्ण सदृश केशादि का वर्णन है। यह सृष्टि अभिव्यङ्ग्य सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की अभिव्यक्ति और उनका अभिव्यञ्जक संस्थान है। अतएव सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की सर्वरूपता सिद्ध है। एक से सब और सबसे एक , एक में सब और सबमें एक , वस्तुत: एक ही एक – सनातन दर्शन है। स्थावर से अव्यक्त पर्यन्त सब कार्य कारणात्मक भूतों में एक अनादि , अनन्त , अगुण , अभिन्न , अनश्वर ; अतएव अव्यय और आद्वय आत्मा को जिस ज्ञान के अमोध प्रभाव से देखता है , वह सात्त्विक है , ऐसा समझना चाहिये। विषम तथा सदोष परिलक्षित सबमें सन्निहित सम और निर्दोष ब्रह्मात्म तत्त्व के दर्शन में दक्ष समाहित अन्त:करण योगयुक्त समदर्शन पृथ्वी से अव्यक्त पर्यन्त कार्य कारणात्मक अचित् पदार्थ संज्ञक सर्वभूतों में अनुगत आत्मा को एवम् सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा में अधिष्ठित सर्वभूतों को देखता है। जो ईश्वर में सर्वात्मा को समस्त अचित् पदार्थों में और उनमें तादात्म्यापन्न (रचे – पचे ) स्थावर – जङ्गम प्राणियों में देखता है और उन सबको ईश्वर में सन्निहित समझता है , उसकी दृष्टि से ईश्वर और ईश्वर की दृष्टि से वह कभी ओझल नहीं होता। एक – दूसरे को एक – दूसरे का अदर्शन रहित दर्शन सदा सुलभ रहता है। सर्वभूतों में परमाश्रय रूप से सन्निहित ईश्वर का स्वयं को तद्रूप समझकर भजन करता है, वह विधि निषेधानुरूप सब प्रकार से विहरण करता हुआ भी ईश्वर में ही अविकम्प भाव से सन्निहित विमुक्त मान्य है। ईशावास्योपनिषत् के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि शोक तथा मोह की निवृत्ति के लिये एकत्व दर्शन अपेक्षित है। तात्त्विक अभेद दर्शन के लिये प्रकृति प्रदत्त अविद्या – काम – कर्म प्रसूत समस्त भेदभूमियों का वैदिक विधा से सदुपयोग और अनुगत निर्भेद ब्रह्मात्म तत्त्व में मनोयोग अपेक्षित है। सनातन शास्त्रों में द्योतनशील स्वप्रकाश सुखरूप सर्वेश्वर को देव कहा गया है। उत्पत्ति , स्थिति, संहृति, निग्रह और अनुग्रह लक्षण लक्षित परमात्मा की जगत् कल्याणार्थ विविध अभिव्यक्तियों को देव कहा जाता है। सत्त्वोत्कर्ष सम्प्राप्त पुण्यसार सर्वस्य द्रव्य सूक्ष्म विपात्मक ( यज्ञ समुद्भूत पुण्यसार सर्वस्य ) दिव्य विग्रह सम्प्राप्त द्युलोकादि निवासी पुण्यसार सर्वस्व जीवों को देव कहा जाता है। कर्मोपासना के अमोघ प्रभाव से और तारतम्य से देववैभव सम्प्राप्त प्राणी को सार्ष्टि भाव संयुक्त देव कहा जाता है। कर्मोपासना के अमोघ प्रभाव से और तारतम्य से देवलोक सम्प्राप्त प्राणी को सालोक्य भाव सम्प्राप्त देव कहा जाता है। कर्मोपासना के अमोघ प्रभाव से और तारतम्य से देवविग्रह सम्पन्न प्राणी को सारूप्य भाव संयुक्त देव कहा जाता है। कर्मोपासना के अमोघ प्रभाव से और तारतम्य से देव सामीप्य सम्प्राप्त प्राणी को सामीप्य भाव संयुक्त देव कहा जाता है।