बौद्धकालीन शासन में सनातन धर्म से विमुखता के परिणाम – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी बौद्धिक शासनकाल में सनातन धर्म से विमुखता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि बौद्धादि के शासनकाल में अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – संज्ञक पञ्चशील को सनातन वर्णाश्रमोचित रीति से जीवन में शनैः – शनैः पूर्णरूप से सन्निहित करने की परिपाटी विलुप्त हो चुकी थी। सनातन धर्म के अनुसार सुशीलता , ओजस्विता तथा शूरता से सम्पन्न जीवन दर्शन विलुप्त हो चुका था। शूरता तथा ओजस्विता अराजकता के रूप में और सज्जनता अन्याय सहिष्णुता और कायरता के रूप में परिणत हो चुकी थी। अहिंसादि की पूर्ण प्रतिष्ठा के नाम पर हिंसादि का ताण्डव नृत्य परिलक्षित हो रहा था। अभिप्राय यह है कि अहिंसा के नाम पर हिंसा का , सत्य के नाम पर मिथ्या भाषण का , अस्तेय के नाम पर चौर्य का , ब्रह्मचर्य के नाम पर व्यभिचार का और अपरिग्रह के नाम पर परिग्रह का साम्राज्य छा चुका था। देश की मेधाशक्ति , रक्षाशक्ति , अर्थशक्ति तथा श्रमशक्ति का अनर्गल दोहन तथा दुरुपयोग चरम सीमा तक पहुँच चुका था। विज्ञानवादी बौद्ध बौद्ध – प्रत्यय रूप क्षणिक बुद्धि को स्वप्रकाश आत्मा मान चुके थे। उनके इस अनर्गल प्रलाप के कारण अज , अनन्त , अपरिच्छिन्न , स्वप्रकाश , अद्वय चिदात्मतत्त्व तिरोहित हो चुका था। शून्यवादी बौद्ध बुद्धि के विलय स्थान अहम् तथा इदम् से अतीत अनिर्वचनीय अव्यक्त को विज्ञेय तथा विज्ञान का उद्गम स्थान शून्य उद्घोषित  कर  नैरात्म्य वाद की विभीषिका में वैदिक ज्ञान – विज्ञान को विलुप्त कर रहे थे I शैव , वैष्णवादि उपासना के नाम पर अग्निहोत्रादि वैदिक कर्मों का परित्याग कर चुके थे। बोद्धों के प्रभाव से और शैव , वैष्णवादि के प्रमाद से वैदिक वर्णाश्रम धर्म का प्रायः विलोप हो चुका था। कापालिक द्विजशिर पंकज से भैरवोपासना में निमग्न थे। वैदिक कहे जाने वाले पूर्व मीमांसकों का धर्म अधर्म के फलस्वरूप सुख – दुःखादि परिणाम को प्राप्त जड़ाजड़ रूप आत्मवाद विज्ञानवादी बौद्धों के क्षणिक विज्ञानवाद को निरस्त करने में असमर्थ सिद्ध हो चुका था। तद्वत् उनका निरीश्वरवाद बौद्धों के शून्यवाद को निःसार सिद्ध करने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हो रहा था। तद्वत् उनका जीवन पर्यन्त अग्निहोत्रादि कर्म बौद्धों के भिक्षुवाद को निरस्त करने में नितान्त दुर्बल सिद्ध हो रहा था। उत्तर मीमांसकों का सौर , वैष्णव , शैव , शाक्त तथा गाणपत्य वाद परस्पर विवाद के पाश में निबद्ध होकर शून्यवाद , विज्ञानवाद , बौद्धविहार और संघवाद के सम्मुख बौना सिद्ध हो रहा था बौद्धों का शून्य विवर्तवाद पञ्चदेव उपासकों के ब्रह्म परिणाम वाद को निगल रहा था। उनका तन्त्रवाद जन साधारण के आकर्षण का केन्द्र बन चुका था। बौद्ध विहार बौद्ध भिक्षुकों का तथा राज दरवार बौद्ध विद्वानों का दुर्गम दुर्ग बन चुका था। इस प्रकार संकीर्ण मनोभाव, परस्पर विवाद , राजसत्ता के दबाव तथा लोकमत के तिरस्कार के कारण वैदिक कक्षगत मणिप्रभा के तुल्य हतप्रभ सिद्ध हो रहे थे।

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