सनातन धर्म में लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष का मार्ग है सबके लिये प्रशस्त – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग के अवतीर्ण की गाथा की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि फारस के सम्राट् दारा प्रथम ने भारत की रक्षानीति को दुर्बल समझकर भारत के गान्धार , सिन्धु , पंजाब आदि क्षेत्रों पर आक्रमण कर इन्हें अपने अधीन कर लिया था। देश के सौराष्ट्रादि पश्चिमी भाग की महिलाओं का अपहरण कर उन्हें विदेशों में भेजना प्रारम्भ हो चुका था। अर्बुद सागर के तटवर्ती क्षेत्रों पर समुद्री बेड़ों द्वारा विदेशी आक्रमण कर रहे थे। ऐसी विकट और विषम परिस्थिति में साक्षात् सदाशिव व्यासपीठ , शासनतन्त्र तथा लोकतन्त्र के शोधन की भावना से भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य के रूप में अवतीर्ण हुये। विदेशी षड्यन्त्रकारियों के आघातों से तथा दिशाहीन दर्शन और शासनतन्त्र से , असमन्वित मत – मतान्तरों के चपेट से भारत को मुक्त कर धर्मनियन्त्रित पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद वैदिकार्य शासनतन्त्र की संस्थापना करने वाले श्रीभगवत्पाद सर्वथा अविस्मरणीय और अनुकरणीय हैं। वेदान्त दर्शन को मोक्ष दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले चार्वाक , बौद्ध , जैन तद्वत् न्याय , वैशेषिक , साङ्ख्य , योग तथा पूर्वमीमांसा को सत्य सहिष्णुता की क्रमिक अभिव्यक्ति में उपकारक सिद्ध करने वाले श्रीभगवत्पाद की गुणग्राहकता और सत्य सहिष्णुता सर्वतो भावेन सराहनीय है। मुण्डकोपनिषत् आदि श्रुतियों के अनुसार भगवत्पाद ने ब्रह्म अतिरिक्त सबकी असत्ता , अतएव सबकी अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्म रूपता , नानात्व में अभिनिवेश की भयप्रदता , अमृत स्वरूप  परमात्मा की सर्वशक्ति समन्विता माया के योग से सर्व रूपता अतएव विश्व की कुटुम्ब रूपता को ख्यापित कर , विभु एवम् अद्वय चिदात्मा की ब्रह्मरूपता को हृदयङ्गमकर सर्वात्मवाद, एकात्मवाद तथा एकेश्वरवाद को स्वीकार कर तत्त्वतः सबकी अद्वयता का प्रतिपादन किया। भगवत्पाद ने महाभारत , अनुशासन पर्व में उल्लेखित वचनों का अनुशीलन कर यह तथ्य उद्घोषित किया कि सनातन धर्म में वर्णाश्रम उचित कर्म विभाग होने पर भी फलचौर्य नहीं है।अभिप्राय यह है कि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्ष का और मोक्ष का मार्ग सबके लिये प्रशस्त है। शमादि ब्राह्मणोचित स्वभाव का परिशीलन सर्वहितप्रद है। सनातन धर्म में अधिकार अनधिकार का विधान होने पर भी किसी की प्रतिभा और प्रगति का अवरोध नहीं है तथा सबमें सबका अधिकार जैसा अनर्गल प्रलाप ना होने के कारण प्रगति के नाम पर प्रलयंकर उन्माद भी नहीं है I इसमें वर्णाश्रम विभेद दार्शनिक , वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर परम महत्त्वपूर्ण है , ना कि रागद्वेष मूलक। वर्णाश्रम विभागगत भेद का प्रयोजन प्रकृति प्रदत्त सर्वभेदों का सदुपयोग करते हुये सुखमय सामाजिक संरचना और समस्त भेदभूमियों से अतिक्रान्त निर्भेद आत्म स्थिति तक जीव की गति है।

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