चतुराम्नाय चतुष्पीठों का प्रमाणित स्थापना काल – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी चतुराम्नाय चतुष्पीठों की स्थापना काल की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि श्रीशिवावतार शंकर ने तुङ्गभद्रा के तट पर शृङ्गेरीमठ की स्थापना, युधिष्ठिर सम्वत् 2648 , तदनुसार 490 बी.सी. फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन की युधिष्ठिर सम्वत् 2655 , तदनुसार 484 बी. सी. पौष शुक्ल पूर्णिमा / वैशाख शुक्ल दशमी के दिन इस मठ के प्रथम श्रीमज्जगद्गुरु – शंकराचार्य पद पर श्रीहस्तामल को प्रतिष्ठित किया। श्रीशिवावतार शंकर ने अरब सागर और गोमती के तट पर द्वारका – शारदामठ की स्थापना युधिष्ठिर सम्वत् 2648 , तदनुसार 490 बी. सी. कार्तिक कृष्ण पञ्चमी के दिन की। युधिष्ठिर सम्वत् 2649 , तदनुसार 489 बी. सी. माघ शुक्ल सप्तमी के दिन इस मठ के प्रथम श्रीमज्जगद्गुरु – शंकराचार्य पद पर श्रीसुरेश्वराचार्य को प्रतिष्ठित किया। श्रीशिवावतार शंकर ने अलकनन्दा के तट पर उत्तराखण्ड में ज्योतिर्मठ को स्थापना युधिष्ठिर सम्वत् 2646 , तदनुसार 492 बीसी. के दिन की। युधिष्ठिर सम्वत् 2654 , तदनुसार 484  बी. सी. पौष शुक्ल पूर्णिमा / वैशाख शुक्ल दशमी के दिन इस मठ के प्रथम श्रीमज्जगद्गुरू – शंकराचार्य पद पर श्रीतोटकाचार्य को प्रतिष्ठित किया। भगवत्पाद शिवावतार  शंकराचार्य महाभाग ने ऋग्वेद से सम्बद्ध पूर्वाम्नाय गोवर्द्धनमठ – पुरी पीठ का गोत्र काश्यप , यजुर्वेद से सम्बद्ध दक्षिणाम्नाय श्रृंगेरी पीठ का गोत्र भूर्भुवः , सामवेद से सम्बद्ध पश्चिमाम्नाय द्वारिका पीठ का गोत्र

अविगत तथा अथर्ववेद से सम्बद्ध उत्तराम्नाय ज्योतिर्मठ का गोत्र भृगु निर्धारित किया। दिशाविहीन अवैदिक बर्बर शासन के कारण श्रीबदरीनाथ, श्रीजगन्नाथ तथा द्वारकानाथ आदि की विलुप्त पूजा – प्रतिष्ठा से आहत श्रीभगवत्पाद ने इन दिव्य देवमूर्तियों की पुनः प्रतिष्ठा की। कृतयुग की अपेक्षा त्रेता तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में , द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवम् धर्म और अध्यात्म का हास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान् दक्षिणामूर्ति ने  केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में नारायण अवतार भगवान् दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायण अवतार भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा महापुराणादि को एवम् ब्रह्मसूत्रों की संरचना कर एवम् शुक तथा लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षित कर धर्म तथा अध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीशिवावतार शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्र ग्रन्थों की संरचना कर, विधर्मियों  – पन्थायियों एवम् मीमांसकादि से शास्त्रार्थ कर , परकाया प्रवेश कर , नारदकुण्ड से अच्छा विग्रह श्री बद्रीनाथ एवम् भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाचादि दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राज सिंहासन समर्पित कर एवम् चतुराम्नाय – चतुष्पीठों की स्थापनाकर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और अध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।

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