
अरविन्द तिवारी की कलम से
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी आचार्य शंकर द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों का सनातन दर्शन के आधार पर किये गये खंडन की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्य को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत – स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भाव पूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामञ्जस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्व सुमङ्गल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीत दर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधन कर दोनों में सैद्धान्तिक सामञ्जस्य साधा। श्री भगवत्पाद ने भूत संघात अतत्त्व रूप दृश्य देह की आत्म रूपता असिद्ध है। दृश्य तथा अतत्त्व अनात्मा ही हो सकता है , ना कि आत्मा अनुमान आदि विहीन केवल प्रत्यक्ष के बल पर पश्वादि का व्यवहार भी असम्भव ही है। अभिव्यञ्जक के अधीन अभिव्यंग्य की अभिव्यक्ति होने पर भी अभिव्यञ्जक से अभिव्यंग्य की भिन्नता अवश्य ही सिद्ध है , जैसे युक्तियों के बल पर चेतना विशिष्ट शरीर को आत्मा मानने वाले चार्वाकों के मत का दक्षता तथा सुगमता पूर्वक निराकरण किया। उन्होंने विकल्पना निरधिष्ठान नहीं होती , बाध असाक्षिक नहीं होता , नाश निरन्वय नहीं होता, उत्पत्ति असन्मूलक नहीं होती , जैसे अकाट्य युक्तियों से बौद्ध दर्शन को बौना बना दिया। उन्होंने देह – परिणाम परिमित उपचय तथा अपचय शील जीव नित्य नहीं हो सकता जैसे अकाट्य युक्तियों से जैन मत को निरस्त किया। कर्तृत्व – भोक्तृत्व , बन्ध – मोक्ष की सिद्धि के लिये औपाधिक आत्मभेद ही अपेक्षित है , ना कि तात्त्विक ; देशकृत – कालकृत – वस्तुकृत – परिच्छेद शून्य सच्चिदानन्द स्वरूप ही आत्म तत्त्व हो सकता है , ना कि अन्य ; जड़निष्ठ ईक्षण गौण ही हो सकता है , ना कि सृष्टि – स्थिति – संहृति रूप कृत्य निर्वाहक मुख्य ; आगन्तुक संश्लेष की अनित्यता के तुल्य अन आगन्तुक संश्लेष की अनित्यता सुनिश्चित है ; अतः त्रिगुण के अनागन्तुक संश्लेषात्मक प्रधान की कूटस्थ नित्यता असिद्ध है , ना कि सिद्ध ; द्व्य अणुक आरम्भक परमाणु संश्लेष परमाणुओं की नश्वरता का ही ख्यापक हैं , ना कि नित्यता का। कृतक की नश्वरता कर्म फलात्मक मोक्ष की अनित्यता का द्योतक है। अचित् चित् का शेष होता है , यह तथ्य अनुभव सिद्ध है। अनुष्ठान सिद्ध भव्य यागादि का स्वत: सिद्ध चित् स्वरूप भूत संज्ञक आत्मा का शेष होना सुनिश्चित है। भव्य यागादि सिद्ध पृथिवी आदि भूत तथा भूतोत्पादक स्वत: सिद्ध परमभाव रूप आत्मा का शेष सिद्ध है। अतएव भव्य भूत के लिये है ; ना कि भूत भव्य के लिये जैसे युक्तियों से आचार्य शंकर ने सांख्य , योग , वैशेषिक , न्याय , मीमांसा के अमान्य पक्ष का दक्षता पूर्वक निराकरण और स्वपक्ष का प्रतिपादन तथा परिपालन कर वैदिक प्रस्थान के वास्तव स्वरूप को ख्यापित किया।