
अरविन्द तिवारी की कलम से
जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता , विश्व मानवता के रक्षक पूज्यपाद पुरी शंकराचार्यजी एकमात्र ब्रह्मात्म तत्व की वरणीयता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि यद्यपि सबके शरीर पाञ्च भौतिक हैं और सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा भी सर्व प्राणियों में सदृश ही है ; तथापि समस्त भेदभूमियों का सदुपयोग करता हुआ अनात्म वस्तुओं से विविक्त और सर्वाधिष्ठान भूत आत्मा में व्यक्ति मन समाहित कर सके , तदर्थ बल और वेग का समुचित आधान वेदादि शास्त्र सम्मत वर्णाश्रमोचित भेद को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। इस तथ्य का वैदिक वाङ्मय में विस्तार पूर्वक वर्णन है। वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि – अशुद्धि , गुण – दोष और शुभ – अशुभ का जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ का ठीक – ठीक निरीक्षण – परीक्षण हो सके और यह योग्य है कि नहीं, ऐसा सन्देह उत्पन्न करके स्वाभाविक प्रवृत्ति को संकुचित किया जा सके। उनके द्वारा धर्म सम्पादन किया जा सके , समाज का व्यवहार समुचित ढङ्ग से सम्पादित हो सके तथा व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह में भी सुविधा हो सके। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासना मूलक सहज प्रवृत्तियों के द्वारा इनके जाल में ना फँस कर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियन्त्रित और मन को वश में करने में समर्थ होता है। इस आचार का मनु आदि का रूप धारण करके धर्म वहन करने वाले कर्म जड़ो के लिये सर्वेश्वर ने ही उपदेश किया है। पृथ्वी, जल , तेज , वायु और आकाश रूप पञ्चभूत ब्रह्मा से लेकर वृक्षादि पर्यन्त प्राणियों के शरीरों के उपादान हैं। इस तरह शरीरों में साम्य है। सब शरीरों में आत्मा भी एक ही है। ऐसा होने पर भी वेद विनिर्मित वर्णाश्रमादि पृथक् – पृथक् नाम रूप का प्रयोजन काम और कर्म का संकोच करके धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि हैं। अभिप्राय यह है कि अकृतार्थ प्राणियों को कृतार्थ होने का अवसर प्रदान करने की भावना से वेद विनिर्मित अनादि सिद्ध वर्णाश्रम विभाग है। देश , काल , यज्ञादि क्रिया , शाकल्यादि पदार्थ (द्रव्य) , कर्ता , मन्त्र , यागादि कर्म , स्रुवादि करण और फल में गुण – दोष का विधान उच्छृंखल प्रवृत्ति के निरोध की भावना से सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर ने की है। ध्यान रहे ; सच्चिदानन्द स्वरूप सत्यं शिवं सुन्दरम् होने के कारण ब्रह्मात्म तत्त्व ही एकमात्र निर्दोष और सम है। यह तथ्य निर्दोषं हि समं ब्रह्म – श्रीमद्भगवद्गीता के इस भगवद्वचन के अनुशीलन से सिद्ध है। अतएव भगवत् तत्त्व की ही वरणीयता सिद्ध है। वेदान्त प्रस्थान के अनुसार यह सृष्टि सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर को त्रिगुणात्मिका मायाशक्ति के द्वार से अभिव्यक्ति है। अतएव जगत् सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर का अभिव्यञ्जक संस्थान है। अतः परोवरीय (उत्तरोत्तर उत्कृष्ट) क्रम से इसका वरण और अतिक्रम सम्भव है। विषय , करण , सुर , जीव और शिव में चेतना का उत्तरोत्तर उत्कर्ष परिलक्षित है। तद्वत् पृथिव्यादि पञ्चभूत , स्थावर और जङ्गम जगत् में चेतना का उत्तरोत्तर उत्कर्ष परिलक्षित है। तद्वत् मनुष्य , मनुष्य गन्धर्व , देवगन्धर्व , पितृवर्ग , आजानजदेव , कर्मदेव , देव , इन्द्र , बृहस्पति , प्रजापति , ब्रह्मा और विष्णु में चेतना तथा आनन्द का उत्तरोत्तर उत्कर्ष परिलक्षित है। इस प्रकार तामस सर्ग की अपेक्षा राजस सर्ग का और राजस सर्ग की अपेक्षा सात्त्विक सर्ग का अधिक महत्त्व है। त्रिविध सर्ग की परार्थता भी सिद्ध है।श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भगवान् की दिव्य अभिव्यक्तियों की विभूति संज्ञा है। विभूति चिन्तन के फलस्वरूप सुलभ दिव्य जीवन की समुपलब्धि के अनन्तर विभूति सार सर्वस्व सर्वाश्रय एकमात्र ब्रह्मात्म तत्त्व की वरणीयता सिद्ध है।