
नई दिल्ली(गंगा प्रकाश):-आजादी मिले अभी 150 दिन भी नहीं हुए थे, देश का संविधान अभी बन ही रहा था, महात्मा गांधी जिंदा थे, देसी रियासतें और राजघराने अभी भी भारत के एकता के रास्ते के रोड़े बने हुए थे, हिन्दुस्तान पहली बार आजाद हवा में नये साल का जश्न मना रहा था, तभी 1 जनवरी 1948 को बड़ा गोलीकांड हुआ। आजाद भारत का यह पहला बड़ा गोलीकांड था। हजारों आदिवासियों की भीड़ पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलायी थी।इस गोलीकांड में हुई मौत का कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं हैं, लेकिन कहा जाता है कि आजाद भारत के इस ‘जालियावाला बाग कांड’ में अनगिनत आदिवासियों की मौत हो गयी थी। बड़ी संख्या में लोग बुरी तरह जख्मी हुए थे, कई लोगों का अब तक अता-पता नहीं है। इसी की याद में, हर वर्ष जब दुनिया भर के लोग अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नववर्ष का जश्न मनाते हैं, उस दिन खरसावां शहीद स्थल पहुंच कर हजारों लोग अपने पूर्वजों को नमन करते है।
क्यों हुआ था 1 जनवरी 1948 का खरसावां गोलीकांड
सरायकेला के राजा आदित्य प्रसाद देव ओडिशा में शामिल होना चाहते थे, लेकिन भाषाई और सांस्कृतिक तौर से आदिवासी किसी कीमत पर उड़िया भाषियों के साथ मिलने को तैयार नहीं थे। इसी को लेकर 1 जनवरी 1948 को खरसावां के बाजार में आमसभा आयोजित की गयी थी। सभा की इजाजत ली गयी थी और गैर अनापत्ति पत्र भी नई-नई स्थापित ओडिशा प्रशासन से लिया गया था। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था। सभा में चाईबासा, जमशेदपुर, मयूरभंज, राज ओआंगपुर और रांची के विभिन्न हिस्से से लोग पहुंचे थे। सभा शुरू होने के पहले आदिवासी नेता खरसावां के राजमहल पहुंचे और उनसे बातचीत हुई। राजा ने खरसावां को ओडिशा में शामिल करने की इजाजत दे दी थी, लेकिन आखिरी सेटलमेंट अभी लंबित था।उस दौरान आदिवासी सभा की ओर से अलग आदिवासी राज्य की मांग की जा रही थी। 1 जनवरी 1948 को दोपहर 2 बजे आदिवासी नेता महल से लौटे और सभा स्थल पहुंच कर भाषण किया। शाम 4 बजे सभा में मौजूद करीब 35 हजार लोगों को अपने घरों में लौटने के लिए कहा गया, लेकिन आधे घंटे बाद घर लौटते आदिवासियों पर ओडिशा प्रशासन ने मशीनगन से गोलियों की बौछार कर दी। करीब आधे घंटे तक फायरिंग चलती रही। सभा में आये महिला, पुरुष और बच्चों की पीठ गोलियां से छलनी हो गयी। यहां तक की गाय और बारियों को भी गोलियां लगी। खरसावां बाजार खून से लाल हो गया। इस सभा में जयपाल सिंह मुंडा को भी हिस्सा लेना था, लेकिन अंतिम क्षणों में उनका कार्यक्रम स्थगित हो गयी। बाद में आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने 11 जनवरी 1948 को खरसावां में ही एक सभा की और इस नरसंहार को आजाद भारत का जालियांवाला बाग करार दिया।लाशों को दफन किया गया, जंगली जानवरों के लिए फेंका गया, नदियों में बहाया गया
कहा जाता है कि इस गोलीकांड के बाद नृशंसता की सारी हदें पार करते हुए शाम ढलते ही लाशों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। 6 ट्रकों में लाशों को भर कर या तो दफन कर दिया गया या फिर जंगलों में बाघ तथा अन्य जंगली जानवरों के खाले के लिए छोड़ दिया गया। कुछ लाशों को नदियों की तेज धार में भी फेंक देने की बात कही जाती है। घायलों के साथ तो और भी बुरा सलूक किया गया। जनवरी की सर्द रात में कहराते लोगों को खुले मैदान में तड़पते छोड़ दिया गया और मांगने पर पानी भी नहीं दिया गया। जयपाल सिंह मुंडा की इसी सभा में खरसावां राहत कोष का गठन किया गया, जिसमें आदिवासी नेताओं ने 1 हजार मृतकों के परिजनों और इतने ही घायलों की मदद की जिम्मेदारी उठायी। हिन्दी में हस्तलिखित ये अपील आज भी राष्ट्रीय अभिलेखागार झारखंडियों की शहादत का सबूत है।
1 जनवरी 1948 : खरसावां गोलीकांड
जहां पूरी दुनिया में पहली जनवरी को नए वर्ष के आगमन पर जश्न मनाया जाता है, वहीं झारखंड के खरसावां और कोल्हान के जनजातीय समुदाय के लोग एक जनवरी को काला दिवस और शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। क्योंकि आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद ही खरसावां हाट बाजारटांड़ में पुलिस फायरिंग में कई आदिवासी मारे गए थे। इस घटना के कारणों की पड़ताल में हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा।
1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया। कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समूहों को मिलाकर छोटानागपुर उन्नति समाज का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यू. एल. लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित्त पृथक झारखंड की परिकल्पना बनी। 1935 में उड़ीसा का गठन हुआ। बंगाल से उड़ीसा के गठन के बाद आदिवासी नेताओं ने जब देखा कि संस्कृति और भाषाई आधार पर बिहार और उड़ीसा को अलग राज्य का दर्जा मिला, तो उन्होंने भी छोटानागपुर उन्नति समाज के बैनर तले छोटानागपुर क्षेत्र के कोल्हान और सिंहभूम इलाके में अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर तैयारी शुरू कर दी। इस अंचल में लगभग 80 प्रतिशत आदिवासी बसते थे। यह पूरा क्षेत्र जंगलों व पहाड़ों से घिरा था।
जयपाल सिंह मुंडा
इसी क्रम में 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संथाल परगना के आदिवासियों को भी जोड़ते हुए आदिवासी महासभा का गठन किया। आदिवासियों के इस सामाजिक संगठन के माध्यम से जयपाल सिंह मुंडा के द्वारा पृथक झारखंड की परिकल्पना को आजादी के पहले से ही राजनीतिक अमलीजामा पहनाने की कोशिशें होती रहीं। अंतत: जयपाल सिंह मुंडा की कोशिश को 1950 को कामयाबी मिली और राजनीतिक संगठन के रूप में “झारखंड पार्टी” का गठन हुआ। यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज में अपनी राजनीतिक भागीदारी की लड़ाई।
1951 में देश में जब वयस्क मतदान पर आधारित
लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक ताकवर राजनीतिक पार्टी के रूप में विकसित हुई। 1952 के पहले आम चुनाव में छोटानागपुर व संथाल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं। सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा। बिहार में कांग्रेस के बाद झारखंड पार्टी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। नतीजन 1957 के आम चुनाव में झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी।1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सामने पृथक झारखंड राज्य की मांग रखी गई थी। 1962 के आम चुनाव में झारखंड पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने एक सौदेबाजी के तहत झारखंड पार्टी के सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा को उनकी पार्टी के तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में मिला लिया। इस तरह से झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। शायद पहली बार खरीद-फरोख्त की संस्कृति आदिवासी नेताओं में प्रवेश हुई। अलग झारखंड राज्य का आंदोलन यहीं पर दम तोड़ दिया।
इन तमाम घटना क्रमों के पहले 1948 में यानी आजादी के मात्र साढ़े चार माह बाद जो घटना हुई, वह आजाद भारत का पहला जनसंहार था ।बताते चलें कि 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के बाद सिंहभूम के आदिवासी समुदायों द्वारा 25 दिसम्बर 1947 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी किनारे एक सभा आयोजित की गयी थी, जिसमें तय किया गया कि सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में न रखा जाय। बल्कि इसे अलग झारखंड राज्य के रूप में रखा जाए। दूसरी ओर सरायकेला व खरसावां के राजाओं ने इसे उड़ीसा राज्य में शामिल करने की सहमति दे दी थी। आदिवासी समुदाय खुद को स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी पहचान कायम रखना चाह रहे थे, इसके लिए वे गोलबंद होने लगे और तय किया गया कि एक जनवरी को खरसवां के बाजारटांड़ में सभा का आयोजन किया जायेगा। जिसमें जयपाल सिंह मुंडा भी शमिल होंगे।इस सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आने की सहमति दी थी। वहीं जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसवां, सराकेला के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के लोग सभास्थल की ओर निकल पड़े थे। सभा में शामिल होने वाले लोग अपने साथ सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान, डेगची-बर्तन भी लेकर आए थे। वास्तव में उस दौरान आदिवासियों के मन में अलग झारखंड राज्य बने, इसका उमंग था ।सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार योगो पुर्ती बताते हैं कि उनके पिता स्व. बोंज हो (बोंच पुर्ती) खरसांवा की घटना पर हम बच्चों को बताते रहते थे। उस वक्त वे लगभग 14-15 साल के थे। वे बताते थे कि जयपाल सिंह मुंडा के बुलावे पर बड़े, बुढ़े, बच्चे, महिलाएं सभी 1 जनवरी 1948 को खरसावां हाट में जुटे थे। जयपाल सिंह मुंडा आए नहीं थे। लगभग 50 हजार की भीड़ थी, लोग जयपाल सिंह का इंतजार कर रहे थे कि अचानक फायरिंग होने लगी। फिर क्या था भगदड़ मच गई। हम लोग खेतों से होते हुए किसी तरह जान बचा कर भागे थे। पूर्व विधायक बहादुर उरांव के अनुसार एक जनवरी 1948 के दिन गुरूवार को हाट-बाजार था। आस-पास की महिलायें भी बाजार करने के लिए आई थीं। वहीं दूर-दूर से आये बच्चों एवं पुरूषों के हाथों में पारंपरिक हथियार और तीर धनुष से लैस थे। रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भी गाये जा रहे थे। एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था, दूसरी ओर सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में मिलाने के लिए, उड़ीसा के मुख्यमंत्री विजय पाणी भी अपना षडयंत्र रच चुके थे। क्योंकि सिंहभूम का क्षेत्र पहाड़ों और जंगलों से घिरा था, जो खनिज संपदाओं से भरपूर था, जिसकी जानकारी उड़ीसा के मुख्यमंत्री विजय पाणी को थी। इसी मोह के वशीभूत हो उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने क्रूरता की हद पार कर दी। उड़ीसा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया, जो चुपचाप मुख्य सड़कों से न होकर अन्य रास्ते से अंधेरे में 18 दिसम्बर 1947 को ही सशस्त्रबलों की तीन कंपनियां खरसावां मिडिल स्कूल पहुंची हुई थी। सीधे-सादे आदिवासी इस षडयंत्र को नहीं समझ सके और अलग राज्य की परिकल्पना लिए ये स्वतंत्रता के मतवाले इस षडयंत्र से बेखबर अपनी तैयारी में लगे रहे। आदिवासी जनमानस ‘जय झारखंड’ का नारा लगाने के साथ-साथ ही उड़ीसा के मुख्यंमत्री के खिलाफ भी नारा लगा रहा था।बताया जाता है कि 1 जनवरी 1948 की सुबह, राज्य के मुख्य सड़कों से जुलूस निकला गया था। इसके बाद आदिवासी महासभा के कुछ नेता खरसावां राजा के महल में जाकर उनसे मिले और सिंहभूम की जनमानस की इच्छा को बताया। इस पर राजा ने आश्वासन दिया कि इस विषय पर भारत सरकार से वे बातचीत करेंगे। सभा दो बजे दिन से चार बजे तक की हुई। सभा के बाद आदिवासी महासभा के नेताओं ने सभी को अपने-अपने घर जाने को कहा। सभी अपने-अपने घर की ओर चल दिए। उसके आधे घंटे बाद बिना किसी चेतावनी के फायरिंग शुरू हो गई।
1 जनवरी 1948 खरसांवा कांड में शहीद हुए लोगों के याद का स्तंभ

घंटों गोली चलती रही और गोली चलाने के लिए उस वक्त के आधुनिक हथियारों का प्रयोग किया गया। इस फायरिंग में लोग कटे पेड़ की तरह गिरने लगे। साथ ही घर लौटते लोगों पर भी उड़ीसा सरकार के सिपाहियों ने गोलियों की बौछार कर दी। इस गोलीकांड से बचने के लिए कुछ लोग जमीन पर लेट गए, कुछ लोग भागने लगे, कई लोग जान बचाने के लिए पास के कुआं में भी कूद गए, जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें चली गयी। मगर सिपाहियों की ओर से गोलियां चलाने का सिलसिला थमा नहीं। भागती औरतों, पुरूषों के अलावा बच्चों की पीठ पर भी गोलियां दागी गयीं। यहां तक कि घोड़े, बकरी और गाय भी इस खूनी घटना के शिकार हुए। गोलियां चलने के बाद पूरे बाजार मैदान में लोगों के शव बिछ गए थे और साथ ही वहां कई घायल भी गिरे पड़े थे। घायलों को उड़ीसा सरकार के सिपाहियों ने चारों ओर से घेर रखा था। सिपाहियों ने किसी भी घायल को वहां से बाहर जाने नहीं दिया और ना ही घायलों की मदद के लिए किसी को अंदर आने की अनुमति ही दी। घटना के बाद शाम होते ही उड़ीसा सरकार के सिपाहियों की ओर से बड़ी ही निर्ममता पूर्वक इस जनसंहार के सबूत को मिटाना शुरू कर दिया गया था। सिपाहियों ने शव को एकत्रित किया और उसे लगभग 10 ट्रकों में लादकर ले गये और सारंडा के बीहड़ों में फेंक आए। सबसे दर्दनाक बात यह थी कि घायलों को सर्दियों की रात में पूरी रात खुले में छोड़ दिया गया और उन्हें पानी तक नहीं दिया गया। इसके बाद उड़ीसा सरकार ने बाहरी दुनिया से इस घटना को छुपाने की भरपूर भी कोशिश की।
बहादुर उरांव के अनुसार उड़ीसा सरकार नहीं चाहती थी कि इस जनसंहार की खबर को बाहर जाने दें और इसे रोकने की पूरी कोशिश की गई। यहां तक कि बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिये चिकित्सा दल और सेवा दल भेजा, जिसे वापस कर दिया गया। साथ ही पत्रकारों को भी इस जगह पर जाने की अनुमति नहीं दी।खरसावां के इस ऐतिहासिक मैदान में एक कुआं था, भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुआं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। गोलीकांड के बाद जिन लाशों को उनके परिजन लेने नहीं आए, उन लाशों को भी उस कुआं में डाल दिया गया और कुआं का मुंह बंद कर दिया गया । जहां पर शहीद स्मारक बनाया गया हैं। इसी स्मारक पर 1 जनवरी को फूल और तेल डालकर शहीदों को श्रदांजलि दी जाती है।

1 जनवरी 1948 इसी जगह गोलीकांड हुआ था, जिसे अब पार्क का रुप दे दिया गया है
घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई। उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे। ऐसे में इस घटना का असर ये हुआ कि इस क्षेत्र का उड़ीसा में विलय रोक दिया गया।घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया, जिसका आदिवासी समाज और राजनीति में बहुत भावनात्मक व अहम स्थान है। खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है।
पहले यह पार्क आम लोगों के लिए भी खुलता था। मगर साल 2017 में यहां ‘शहीद दिवस’ से जुड़े एक कार्यक्रम के दौरान ही झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास का विरोध हुआ और जूते उछाले गए। इसके बाद से यह पार्क आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया है। अब देखना है कि हेमंत सरकार क्या इस पार्क को पुन: आम लोगों के लिए भी खोलती है या नहीं।एक ओर जहां एक जनवरी को शहीद स्थल पर आदिवासी रीति-रिवाज से पूजा की जाती है तो दूसरी ओर हर साल यहां झारखंड के सभी बड़े राजनीतिक दल और आदिवासी संगठन भी जुटते हैं।विजय सिंह बोदरा अभी शहीद स्थल के पुरोहित हैं। उनका परिवार ही यहां पीढ़ियों से पूजा कराता आ रहा है। विजय बताते हैं कि “एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है। लोग श्रद्धांजलि देते हैं। फूल-माला के साथ चावल का बना रस्सी (खीर) चढ़ा कर पूजा की जाती है। शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता है।

आदिवासी आंदोलन और संघर्ष है?
आदिवासी भारत के प्रथम निवासी हैं, जिनकी जनसंख्या 10.43 करोड़ है जो देश के कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. इनके साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया गया है।सुप्रीम कोर्ट ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। यही वह समुदाय है जिसके संघर्ष और बलिदान का सबसे लंबा इतिहास है। आदिवासी इलाकों की मिट्टी उनके खून से सना हुआ है, यहां के सड़कों का हरेक मोड़ आदिवासियों के खून से रंगा है और प्रत्येक आदिवासी गांव का रास्ता शहीदों के कब्रों से होकर गुजरती है। यह संघर्ष 1784 में बाबा तिलका मांझी की बर्बरतापूर्ण हत्या एवं फांसी से शुरू होकर 2016 में खूंटी के सायको में अब्राहम मुंडा की पुलिस फायरिंग में निर्मम हत्या से आगे बढ़ चुका है। लेकिन इतना संघर्ष और बलिदान के बावजूद आदिवासी लोग हाशिये पर पड़े हुए हैं। आदिवासियों के खून की कीमत पर बने सीएनटी/एसपीटी जैसे भूमि रक्षा कानूनों से उनकी जमीन नहीं बच पा रही है। भारत के संविधान की पांचवी व छठवीं अनुसूची, आरक्षण का प्रावधान एवं अन्याय व अत्याचार से सुरक्षा देने का संवैधानिक प्रावधान उनके काम नहीं आ रहा है। एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989, पेसा कानून 1996, वन अधिकार कानून 2006 जैसे प्रगतिशील कानूनों से न उनके खिलाफ होने वाला अत्याचार रूक पा रहा है और न ही उन्हें अपने इलाकों में शासन करने तथा जंगल व जमीन पर अधिकार मिल रहा है। इसलिए हमें गंभीरता के साथ विश्लेषण करना चाहिए कि क्या आज आदिवासियों का संघर्ष दिशाहीन हो चुका है? आदिवासियों का यह संघर्ष राजसत्ता के अस्तित्व में आने के साथ ही शुरू हो गया था क्योंकि ब्रिटिश राजसत्ता ने आदिवासी इलाकों को बंदूक के बल पर कब्जा करना शुरू किया और आदिवासियों से उनकी जमीन का लगान मांगा। बाबा तिलका मांझी ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकारते हुए कहा कि जमीन हमें भागवान ने उपहार में दिया है तो ‘सरकार’ बीच में कहां से आयी? हम सरकार को लगान क्यों दें? जब आदिवासियों ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकार दिया तब ब्रिटिश हुकूमत ने बंदूक के साथ कानून का सहारा लेना शुरू किया। इसी के तहत 1793 में स्थायी बंदोबस्ती कानून लागू की गई और आदिवासियों से कहा गया के वे ब्रिटिश सरकार से अपनी जमीन के लिए कागज का टुकड़ा ;पट्टाद्ध हासिल कर लें। लेकिन बहुसंख्यक आदिवासियों ने अंग्रेजी सरकार से कागज का टुकड़ा लेने से इंकार कर दिया क्योंकि कागज का टुकड़ा लेने का अर्थ था राजसत्ता के अस्तित्व और अधीनता को स्वीकार करना। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने गैर-आदिवासियों की मद्द से आदिवासियों को पट्टा लेने पर मजबूर कर दिया और जिन्होंने पट्टा नहीं लिया उनकी जमीन गैर-आदिवासियों को दे दी गई। इस तरह से आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी हुईं। 1865 में पहला वन अधिनियम बनाकर जंगलों को भी आदिवासियों से छीन लिया गया और बाद में वनोपज पर भी लगान लाद दिया गया तथा 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून के द्वारा विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन हाथियाने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसके खिलाफ लंबा संघर्ष चला। आदिवासियों का मौलिक संघर्ष राजसत्ता के खिलाफ है इसलिए जो भी व्यक्ति सत्ता पर बैठता है वह आदिवासियों के उपर गोली चलवाता है। अंग्रेजी हुकूमत के समय अंग्रेजों ने आदिवासियों के उपर गोली चलाया और आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1 जनवरी 1948 को खरसावां में गोली चली, जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गये। इसी तरह झारखंड गठन के बाद बाबूलाल मरांडी के शासनकाल में 2 फरवरी 2001 को झारखंड के खूंटी जिले स्थित तपकारा में पुलिस ने आंदोलनकारियों के उपर गोली चलाकर 8 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया। राजसत्ता आदिवासियों के संघर्ष को दबाने के लिए पुलिसिया दमन, चाटुकारिता और फर्जी सहानुभूति का सहारा लेती रही है, जिसमें आदिवासी लोग फंस जाते हैं। यहां सवाल यह है आखिर इस संघर्ष का अंत क्यों नहीं हो रहा है? राजसत्ता और आदिवासियों के बीच जारी संघर्ष का मौलिक कारण क्या हैं? आदिवासी लोग राजसत्ता की दोहरी चाल को क्यों नहीं समझ पाते हैं? ऐतिहासिक रूप से देखें तो आदिवासियों के पास अपना ‘आडिया आफ स्टेट’ मौजूद था। वे पुलिस के बगैर अपने-अपने इलाके में शासन व्यवस्था चलाते थे, जहां न्याय व्यवस्था भी मौजूद था। संताल दिशुम, मुंडा दिशुम, हो लैंड इत्यादि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इसलिए बाहर से थोपा गया शासन व्यवस्था को आदिवासियों ने नाकार दिया। बावजूद इसके आदिवासी इलाकों में जबर्रदस्ती राजसत्ता की स्थापना की गई। आज राजसत्ता चाहता है कि आदिवासी लोग भूमि, भू-भाग और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना मालिकाना हक का दावा छोड़कर इन्हें राजसत्ता को सौंप दें, वे तथाकथित मुख्यधारा में शामिल होने के नामपर जाति, नस्ल एवं लिंग आधारित भेदभाव से लैश भारतीय समाज का हिस्स बनते हुए अपनी मूल आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज को दफन कर दंे और स्वायतता, स्वशासन एवं पारंपरिक शासन व्यवस्था को त्याग कर गैर-आदिवासियों के शासन व्यवस्था को पूर्णरूप से स्वीकार कर लें। और जब बहुसंख्य आदिवासी लोग इसे स्वीकार नहीं किया तो राजसत्ता उनके खिलाफ पुलिसिया दमन, चाटुकारिता और फर्जी सहानुभूमि का सहारा ले कर उनके संघर्ष को खत्म करने का प्रयास में जुटा। कोल विद्रोह, संताल हुल और बिरसा उलगुलान के बाद विल्किंसन्स रूल्स, संताल परगना एक्ट एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम आदिवासियों को खुश करने का प्रयास था। इन कानूनों के द्वारा आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और परंपराओं की रक्षा को स्वीकृति मिली लेकिन आदिवासियों के जमीन का मालिक जिला के उपायुक्त को बना दिया गया, जो मूलतः गैर-आदिवासी ही होते हैं। के.बी. सक्सेना की जांच रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ रांची जिले के 8 उपायुक्तों ने आदिवासी जमीनों को गैर-आदिवासियों को गैर-कानूनी तरीके से हस्तांतरित किया। ये जमीन रक्षा कानून आदिवासियों की जमीन नहीं बचा सकते क्योंकि कानूनी तौर पर लूटेरों को ही पहरेदार बना दिया गया हैं। हकीकत में इन कानूनों का मकसद आदिवासियों की भूमि रक्षा नहीं बल्कि उन्हें खुश करते हुए उनके संघर्ष को समाप्त करना था। 1938 में आदिवासी महासभा की स्थापना के बाद आदिवासी स्वायतता की स्थापना के लिए जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों को एकजुट कर आदिवासी राजनीति को स्थापित किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय जब हिन्दुओं के लिए हिन्दुस्तान, मुसलमानों के लिए पाकिस्तान और दलितों के लिए दलिस्तान की मांग उठी तब जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी इलाकों को मिलाकर आदिवासियों के लिए ‘आदिवासीस्तान’ (संघीय संरचना के भीतर स्वायत्त आदिवासी राष्ट्र) के स्थापना की मांग की थी। उन्होंने संविधान निर्माण के समय आदिवासियों की मूल पहचान को संविधान में रखने की भी मांग की थी। आदिवासियों के लिए दो अनुसूचियों पर उन्होंने सवाल उठाए थे। लेकिन उनकी बात को दरकिनार कर पांचवी एवं छठवीं अनुसूची के साथ आरक्षण का झुनझुना थमा दिया गया। संविधान में एक सूची और एक आदिवासी पहचान नहीं रह जाने से तथा पांचवी एवं छठवीं अनुसूची के दो प्रावधानों के बन जाने से पूर्वोतर, मध्यभारत एवं दक्षिण भारत के आदिवासी अलग-थलग कर बिखेर दिए गए। वहीं आरक्षण के कारण भी उनकी आदिवासी एकता खंडित हुई और असम व पूर्वोत्तर आदि राज्यों में वे आपस में लड़ बैठे। इसके साथ देश के राष्ट्रपति एवं राज्यों के राज्यपालों को पांचवीं अनुसूची इलाके का भगवान बना दिया गया। क्या अबतक किसी राष्ट्रपति या राज्यपाल ने आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा की है? इन लोगों ने आदिवासियों की जमीन लूट को क्यों नहीं रोका? मौलिक सवाल यह है कि क्या बिल्ली दूध की रक्षा करेगी? आरक्षण आदिवासियों के लिए एक संवैधानिक प्रावधान है। जयपाल सिंह मुंडा ने कभी भी आरक्षण की मांग नहीं की थी बल्कि वे आत्म-निर्णय के अधिकार वाली स्वशासन व्यवस्था चाहते थे। आरक्षण ने आदिवासी समाज के अंदर एक मध्यवर्ग को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर आदिवासी समाज को कई टूकड़ों में बांट दिया। 1970 के दशक में इसी मध्यवर्ग ने अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए आदिवासियों के बीच में धर्म का विवाद पैदा किया, जिसकी नींव 1940-50 के दशक में आदिवासी महासभा और उसके नेतृत्व में चल रहे आदिवासी आंदोलन को तोड़ने के लिए कांग्रेस ने डाली थी। लोहरदगा सीट से लोकसभा चुनाव हारने के बाद कार्तिक उरांव ने एक साथ संघर्ष कर रहे आदिवासियों को राजनीतिक तौर पर सरना और ईसाई के नाम पर बांट दिया, जो बाद में संघ परिवार के लिए सबसे बड़ा हथियार बन गया। आरक्षण से उपजे मध्यवर्ग ने गैर-आदिवासियों का नकल करते हुए गाड़ी, बंगला और बैंक बैलेंश बनाने में व्यस्त हो गया तथा आदिवासी दर्शन को जमींदोज करते हुए आदिवासी पहचान, भाषा, संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज को भी दफन कर दिया। आज आदिवासी संघर्ष में यह मध्यवर्ग कहां खड़ा है? क्या आरक्षण से उपजा यह वर्ग गरीब आदिवासियों को मद्द करने के बजाये विदेशी नस्ल का कुता पालने मंे व्यस्त नहीं है? आरक्षण ने आदिवासी समाज को दो हिस्सों में बांट दिया है। आज आरक्षण से उपजा मध्यवर्ग ही सत्ता की दलाली कर रहा है और आदिवासी समाज को अपनी मूल मांग से भटका रहा है। आज राजसत्ता प्रयोजित धर्म की लड़ाई को कौन हवा दे रहा है? झारखंड आंदोलन के समय बिहार, झारखंड, ओडिसा, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों को मिलाकर बृहत झारखंड की मांग ‘अपनी धरती पर अपना राज’ का हिस्सा था, जिसके तहत आदिवासी लोग उपनिवेशी शासन को नाकारते हुए अपना शासन व्यवस्था स्थापित कर भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर अपना मालिकाना हक को सुरक्षित करना चाहते थे। लेकिन इसके ठीक विपरीत 2001 में झारखंड एवं छत्तीसगढ़ का गठन हुआ और ये दोनों राज्य गैर-आदिवासियों का उपनिवेश बन गया, जिन्होंने आदिवासियों को हासिये पर धाकेल दिया। अब केन्द्र के साथ इन दोनों राज्यों की राज्य सरकारें आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का अभियान चला रही हैं। इन्होंने सबसे पहले आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर कब्जा किया, उनकी स्वायतता तथा शासन व्यवस्था को नाकारा और फिर उनके विकास एवं उन्हें मुध्यधारा में लाने का अभियान चला रहे हैं। क्या यह आदिवासियों के साथ मजाक नहीं है? क्या राजसत्ता आदिवासियों को कभी न्याय दे सकता है? 1980 एवं 90 के दशक में देश के आदिवासी इलाकों में जबर्रदस्त तरीके से स्वशासन आंदोलन चला। कोल्हान रक्षा समिति ने कोल्हान को ‘हो’ लैंड के रूप में अलग देश घोषित कर दिया। इस तरह के स्वशासन की मांग को समाप्त करने के लिए राजसत्ता ने जहां एक ओर पुलिसिया दमन का सहारा लिया वहीं आदिवासियों को खुश करने के लिए आदिवासियों के सामने पेसा कानून 1996 जैसा एक हड्डी का टुकड़ा फेंक दिया। लोग खुश होकर ढोल और नगाड़ा लेकर ‘अपने गांव में अपना राज’ की स्थापना की खुशी में नाचने-गाने लगे। लेकिन यह नहीं समझ पाये कि पेसा कानून उनकी बची-खुची स्वशासन व्यवस्था को कुचलने का षडयंत्र था। सर्वसम्मति से चलने वाला आदिवासी समाज के उपर चुनाव थोपकर लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र लाद दिया गया। इस तरह से आदिवासी समाज बिखर गया। जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में कहा था कि लोकतंत्र आदिवासियों के खून में बसता है। लेकिन आज आदिवासी समाज क्यों आरक्षित सीटों में सर्वसम्मति से उम्मीदवार खड़ा नहीं कर पा रहा है? क्यों चुनाव के नाम पर लाखों रूपये खर्च करने के लिए मजबूर है यह समाज जिनके पूर्वजों ने एक पैसा खर्च किये बिना ही शासन व्यवस्था चलाया था? जब आदिवासियों ने जंगल पर अधिकार की मांग की तो उन्हें वन अधिकार कानून 2006 दिया गया, जिसके तहत व्यक्तिगत अधिकार के नाम पर 10 के जगह पर 1 डिसमिल से लेकर 2 एकड़ जमीन का पट्टा दिया जा रहा है। क्या यह न्याय है? जब विकास के नाम पर उनकी जमीन को अधिग्रहण किया गया और जब पुनर्वास की मांग की गई तो केन्द्र सरकार ने 2013 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पनस्र्थापना कानून बनाया लेकिन क्या यह कानून लागू हुआ? इसी तरह विकास के लिए पैसा मांगा तो ट्राईबल सब-प्लान आया लेकिन पैसा कहां जा रहा है? क्यों आदिवासियों का पैसा खेलगांव और राष्ट्रीय राजमार्गों में खर्च किया जा रहा है? आदिवासियों को समझना चाहिए कि वे राजसत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं इसलिए राज्यसत्ता उन्हें झुनझुना पकड़ा रहा है। आदिवासियों का विकास करना है तो उन्हें उनकी भूमि, भू-भाग और संसाधनों को पहले की तरह उन्हें वापस दे होगा क्योंकि दोहन, शोषण और लूट पर आधारित विकास प्रक्रिया में वे कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं क्योंकि उनका जीवन दर्शन इसकी इजाजत नहीं देता है।
अंग्रेजी में एक शब्द है ष्मगचसवपजंजपवदष् जिसका अर्थ है ‘शोषण’ या ‘दोहन’, जो मौलिक तौर पर आदिवासी सभ्यता को दूसरों से अलग करता है। राज्यसत्ता मुटठीभर लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए प्रकृतिक संसाधनों का दोहन और उसपर आश्रित लोगों का शोषण करता है। इसलिए राजसत्ता के द्वारा बंदूक, कागज और कलम के बल पर आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों पर जबर्रदस्ती अधिपत्या जमाने के खिलाफ वे संघर्षरत हैं। लेकिन भौंकता कुता के सामने हड्डी फंेकने जैसा ही राजसत्ता बीच-बीच में एसपीटी/सीएनटी, पांचवी अनुसूची, आरक्षण, पेसा कानून, वनाधिकार कानून, इत्यादि से आदिवासियों को लालचाकर उनके संघर्ष को कई टूकड़ों में बांटते हुए उन्हें कमजोर कर दिया है, जो स्पष्ट दिखाई पड़ता है। फलस्वरूप, आदिवासियों का एक समूह एसपीटी/सीएनटी के संघर्ष का आहवान कर रहा है, तो कोई पांचवीं अनुसूची की मांग पर अटका हुआ है, कोई धर्म बचाने की बात करता है और कोई पेसा कानून, आरक्षण और वन अधिकार कानून को लागू करने का अभियान चला रहा है। इस तरह से आदिवासियों का मौलिक मांग हाशिये पर चला गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि राजसत्ता के पराधीनता को छोड़कर आदिवासी लोग अपने संघर्ष के केन्द्र में अपनी मूल मांगों को वापस लेकर आये। आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों के शासन व्यवस्था को स्वीकार करना ही आदिवासियों के बदहाली का मूल कारण है। आजादी के पिछले 70 वर्षों में गैर-आदिवासी शासकों ने आदिवासियों की भूमि, भू-भाग और संसाधनों को विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर लूटने और कब्जा करने के अलावा क्या किया? पिछले सात दशकों का अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया कि भूमि, भू-भाग और प्रकृतिक संसाधनों से बेदखल होकर आदिवासी समुदाय कभी भी नहीं बच सकता है। जमशेदपुर इसका सबसे सटीक उदाहरण है जहां मात्र एक सौ साल में आदिवासी लोग 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर आ गये हैं जबकि वहां आधुनिक विकास का चमचमाता इमारत खड़ा है। इसलिए आदिवासी संघर्ष को एक साथ स्वायतता, स्वशासन और भूमि, भू-भाग एवं संसाधनों पर मालिकाना हक हासिल करने पर केन्द्रित करना चाहिए। आदिवासियों को दृढ़संकल्प लेकर एक नई रणनीति के साथ संघर्ष करना चाहिए कि वे अपने इलाकों में स्वयं शासन व्यवस्था चलायेंगे, उन इलाकों का विकास उनके अनुसार होगा और उनकी जमीन, भू-भाग और संसाधनों पर उनका मालिकाना हक होगा। लेकिन सबसे पहले इसके लिए आदिवासियों को राजसत्ता के द्वारा फेंका गया ‘हड्डी’ चूसना बंद करना होगा।