श्रेय संसिद्धि की भावना से सदा धर्माचरण ही है कर्त्तव्य – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज वैदिकी गाथा के महत्व का प्रतिपादन करते हुये संकेत करते हैं कि अविद्या – काम – कर्म तथा भोग्य वस्तु रूप द्रव्य और तज्जन्य सुख जीव के बन्धन में हेतु हैं। शास्त्रों में द्रव्य का त्याग करने के लिये यज्ञादि कर्म , भोग का त्याग करने के लिये व्रत , विषयोपभोग सुलभ सुख का करने के लिये तप और सर्व दुःखमूल अविद्या – काम तथा कर्म का त्याग करने के लिये अष्टाङ्ग योग , भक्ति योग तथा ज्ञान योग का उपदेश दिया गया है। यही त्याग की चरम अवधि है। वेद सदा सबके हित का ही उपदेश करते हैं। वे सदा सत्य का ही निरूपण करते हैं। वे मनुष्यों के लिये अद्रोह, दान तथा हितप्रद सत्य – सम्भाषण रूप तीन श्रेयस्कर व्रत का प्रतिपादन करते हैं। महर्षियों ने इस वेदवचन का परिपालन किया है। व्यासादि महर्षियों ने भी इस वैदिकी गाथा का समादर किया है तथा उपदेश दिया है। इस वेदानुवचन का दृढ़ता तथा दक्षता पूर्वक अनुपालन हमारा दायित्व है।  जो अहिंसक सर्व प्राणियों को अभय प्रदान करने वाला है , अवश्य ही धर्मात्मा है। जो सबके प्रति दयालु , सबके प्रति सुकोमल , सर्वात्मदर्शी है , वह निःसन्देह धर्मात्मा है। सबके प्रति सरल , सर्वहितैषी , सर्वहितज्ञ , सर्वहित में तत्पर और समर्थ अवश्य ही सर्व श्रुति स्वरूप है। क्षमाशील , जितेन्द्रिय , क्रोधविजयी , धर्मनिष्ठ , अहिंसक और सदा धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है। धर्माचरण से श्रेय की समुपलब्धि और वृद्धि सुनिश्चित है , तद्वत् अधर्माचरण से श्रेय की अनुपलब्धि और अधोगति भी सुनिश्चित है। अतः श्रेय संसिद्धि की भावना से सदा धर्माचरण ही कर्त्तव्य है। विधिवत् समनुष्ठित धर्म ही अनात्म – वस्तुओं के प्रति आसक्ति रूप राग का शोधन कर ब्रह्मानुसन्धान और ब्रह्म विज्ञान में अधिकृत करता है , जबकि धर्म से विमुखता अधोगति में हेतु है तथा विषय सुख की समुपलब्धि की भावना से धर्मानुष्ठान प्रकृति प्रदत्त संसृति चक्र के अनुवर्तन में हेतु है। धर्मनिष्ठा तथा ब्रह्मनिष्ठा विहीन व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के अजस्र प्रवाह का अतिक्रमण नहीं कर पाता। विचार पूर्वक धर्माचरण के फलस्वरूप भवभय वारक – भवताप निवारक – भवतारक आत्मबोध सुनिश्चित है। यज्ञ , अध्ययन , दान , तप , सत्य , क्षमा तथा इन्द्रिय सहित मन का संयम और लोभ का परित्याग – ये धर्म के आठ मार्ग अर्थात् धर्मसाधक हेतु हैं। धर्म करने से श्रेय की वृद्धि होती है और अधर्माचरण से व्यक्ति का अकल्याण होता है। विषयासक्त प्रकृति तथा प्राकृत प्रपञ्च में भटकता रहता है , जबकि विरक्त आत्मबोध लाभकर मुक्त होता है। जो आलस्य रहित , धर्मात्मा , यथाशक्ति सत्पथ का अनुगमन करने वाला, सच्चरित्र और प्रबुद्ध होता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्त करने में समर्थ होता है। निवृत्ति परम धर्म है, निवृत्ति परम सुख है। जो मन से  सर्व विषयाशा से निवृत्त हो गये हैं, उन्हें विशाल धर्मराशि की प्राप्ति होती है।

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