विकास के नाम पर बहिर्मुखता तथा परतन्त्रता की चिर दासता है अभिशाप – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)- हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी वस्तुशक्ति ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखती इस विषय की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि तुम्हारी चाह का विषय चित् संज्ञक अखण्ड विज्ञान तुम स्वयं हो इस उपदेश के अधिगम से ही अबोध जन्य वेदना से परित्राण सम्भव है। तद्वत् दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से सन्तप्त मानव अभीष्ट विषय के परिरम्भण से सुलभ प्रिय, मोद तथा प्रमोद संज्ञक विषयानन्द से संतृप्त नहीं हो सकता। तुम्हारी चाह का विषय सुख संज्ञक अखण्ड आनन्द तुम स्वयं हो इस उपदेश के अधिगम से ही त्रिविध तापों से परित्राण सम्भव है। अभिमत की समुपलब्धि से सुलभ आनन्द प्रिय है। अभीष्ट के सेवन से समुपलब्ध आनन्द मोद  है। इच्छित के यथेष्ट संश्लेष से सुलभ आनन्द प्रमोद है। प्रिय, मोद तथा प्रमोद – संज्ञक उत्तरोत्तर उत्कृष्ट आनन्द की तिलाञ्जलि देकर सुषुप्ति की भावना विषय जन्य आनन्द की पर प्रेमास्पदता निरस्त करती है। जहाँ विषयजन्य आनन्द है ; वहाँ भोक्ता, भोग्य और भोगरूप त्रिपुटी है। जहाँ त्रिपुटी है ; वहाँ द्वैत है। जहाँ द्वैत है ; वहाँ श्रम है। जहाँ श्रम है ; वहाँ निरतिशय आनन्द नहीं है। त्रिपुटी, द्वैत तथा श्रम – विहीन किन्तु द्वैतबीज सुषुप्ति से भी व्युत्थान की धारणा स्वप्रकाश अभोग्य आत्म स्वरूप आनन्द की पर प्रेमास्पदता सिद्ध करती है। अन्तःआराम, अन्तर्ज्योति और अन्तःसुख सम्पन्न सत्पुरुष का जीवन निस्सन्देह धन्य है। विकास के नाम पर बहिर्मुखता तथा परतन्त्रता की चिर दासता अभिशाप है। वस्तुशक्ति ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखती – विष तथा अमृत के अज्ञात सेवन की और अग्नि के अज्ञात संस्पर्श की भी फल प्रदता के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है। कस्तूरी का मृग वस्तु  वैभव के प्रभाव से निर्गन्ध तृणादि के आघ्राण से भी आमोद प्राप्त किये बिना नहीं रहता। परन्तु नाभिमण्डलस्थ कस्तूरी के अज्ञान वैभव के प्रभाव से भटके बिना वह नहीं रहता। अतएव वस्तुशक्ति ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखती ; तद्वत् अज्ञान वैभव अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता, यह अकाट्य तथ्य हृदयङ्गम करने योग्य है। आत्मदेव सच्चिदानन्द स्वरूप है, अतएव वह कभी अस्तित्व – ज्ञान – आनन्द विहीन नहीं होता। वह अनित्य, अज्ञान और दुःख का भी साक्षी ही सिद्ध है। यह वस्तुशक्ति ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखती  का ज्वलन्त उदाहरण है ; तथापि अनित्य, जड़ तथा दुःखप्रद अनात्म वस्तुओं में अहन्ता ममता रूप तादात्म्यापत्ति या अध्यास के कारण भवचक्र में भ्रमण किये बिना नहीं रहता। यह अज्ञान शक्ति का अमोघ प्रभाव है। नाश, जड़ता तथा दुःख से असङ्ग, अतीत और इनका अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्म सर्वहित स्वरूप है। वही सबका विश्राम स्थान और वरेण्य है। उसे आत्मीय समझकर उसके सेवन से मृत्यु, मूढ़ता तथा दुःख से त्राण उसी प्रकार सम्भव है ; जिस प्रकार दाहक और प्रकाशक अग्नि के सान्निध्य से शीत तथा अन्धकार का निवारण सुनिश्चित है। उसकी आत्म रूपता के अधिगम से अविद्या, काम तथा कर्मकृत मृत्यु, मूढ़ता तथा दुःख का आत्यन्तिक उच्छेद उसी प्रकार सम्भव है ; जिस प्रकार दाहक और प्रकाशक वह्निरूपता से शीत तथा अन्धकार का आत्यन्तिक उच्छेद स्वतः संप्राप्त है। सुषुप्ति में अनात्म वस्तुओं के अनुरूप आत्म मान्यता का विलय होने के कारण मृत्यु, मूर्खता तथा दुःख से अतीत स्थिति आत्मा की सच्चिदानन्द रूपता की सहिष्णुता में प्रबल हेतु है।

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