वस्तु को भोग या अपवर्ग के अनुरूप बनाने की विधा है संस्कार – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज गर्भ शुद्धि कारक संस्कारों की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि वस्तु को भोग या अपवर्ग के अनुरूप बनाने की विधा संस्कार है। जगत् नाम (समाख्या), रूप तथा कर्मात्मक है। सनातन शास्त्रों में इन्हें संस्कृत करने की अपूर्व विधा का वर्णन है। सुखद व्यवहार की सिद्धि और परमार्थ में अभिरुचि का साधक भाव और क्रियाकलाप संस्कार है। देव, ऋषि, पितर और परमेश्वर के प्रसाद का तथा दैवी सम्पत् का अभिव्यञ्जक कर्म तथा भाव संस्कार है। सत्ता स्फूर्ति तथा सुखोपलब्धि उसका फल है। दोषापनयन तथा गुणाधान से संस्कार की सिद्धि होती है। मलिन दर्पण पर ईंट का चूर्ण रगड़ने से दर्पण संस्कृत हो जाता है। यह दोषापनयन का उदाहरण है l बीजपूर यानि बिजौरी नीबू आदि के फूल को लाख के रस से तर कर देने पर उसका फल अन्दर से लाल हो जाता है l यह गुणाधान संस्कार है। वैदिक संस्कार सम्पन्न ब्राह्मणादि द्विज होते हैं। वैदिक संस्कारों से देह, इन्द्रिय प्राण और अन्तःकरण का शोधन होता है। लौकिक तथा पारलौकिक अभ्युदय सुलभ होता है तथा निःश्रेयस रूप मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। अतएव इस लोक में तथा देहत्याग के पश्चात् परलोक में सुखप्रद जीवन की भावना से ब्राह्मणादि वर्णों का पवित्र संस्कार वेदोक्त मन्त्रों से अवश्य करना चाहिये। गर्भ शुद्धि कारक हवन, जातकर्म, चूडा़करण (मुण्डन), मौजी बन्धन (उपनयन) – संस्कारों से द्विजों के वीर्य तथा गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट होते हैं l महर्षि हारीत के अनुसार संस्कारों की ब्राह्म एवं दैव – संज्ञक दो श्रेणियाँ हैं। गर्भाधानादि स्मार्त संस्कारों को ब्राह्म कहते हैं। इनसे सम्पन्न ऋषि सदृश होकर ऋषि सायुज्य लाभ करते हैं। पाक यज्ञ ( पकाये हुए भोजन की आहुतियाँ ), यज्ञ ( होमाहुतियाँ ) और सोमयज्ञादि दैवसंस्कार कहे जाते हैं। विधिवत् गर्भाधान से पत्नी के गर्भ में भगवत्तत्त्व में आस्थान्वित वेदार्थ के अनुशीलन में अभिरुचि सम्पन्न जीव का प्रवेश होता है। पुंसवन संस्कार से गर्भ को पुरुष भाव से भावित किया जाता है। सीमोन्तोनयन के द्वारा माता पिता से उत्पन्न दोष दूर किया जाता है। बीज, रक्त तथा भ्रूण से उत्पन्न दोष जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडा़कर्म और समावर्तन से दूर होते हैं। इस प्रकार गर्भाधान, पुंसवन, सीमोन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडा़करण और समावर्तन से पवित्रता का सम्पादन होता है। उपनयनादि अष्टविध संस्कारों से देव पितृ कार्यों में परम पात्रता प्राप्त होती है l वेदाध्ययन, व्रत, होम, त्रैविद्य, व्रत, पूजा, सन्तानोत्पत्ति, ब्रह्मयज्ञादि, महायज्ञों से तथा ज्योतिष्टोमादि यज्ञों से ब्रह्म अभिव्यञ्जक शरीर की अर्थात् देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरण रूप दिव्य जीवन की प्राप्ति होती है l संस्कार रूप आचार से देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, द्रव्य, देश और क्रिया की शुद्धि होती हैl

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