मिथ्या ज्ञान , अधर्म , आसक्ति , हेतु तथा च्युति नामक पांच मल पशुता में है हेतु – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज पाशुपत मत परिष्कार की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि भस्म से त्रिषवण स्नानादि पशुपति प्रापक व्यवहार विधि है। व्रतचर्या के अनुपालन से शिवतनु की सिद्धि होती है। भस्म स्नान , भस्म शय्या पर शयन , त्रिकाल सन्ध्या , पशुपति समर्चा , मन्त्रजप तथा ध्यान , प्रदक्षिणा , शुद्ध परिधान से विमल बोध सुलभ होता है। उपहार अपचार के अनुपालन से शिवानुचर भाव की सिद्धि होती है। कण्ठ और ओठों को फैलाकर ही ध्वनि हसितोपचार है। जिह्वा और तालु के संयोग से वृषभ तुल्य हुडुकार है। भाव और स्वर सम्पन्न नाम संकीर्तन गीतोपचार है। शिवगुण स्मरण पूर्वक शरीर स्पन्दन नृत्योपहार है। नमस्कार तथा भक्तिरस आप्लापित मनःस्थिति जप्योपहार है। स्वरूप गोपन की भावना बाह्यचर्या अनर्गलता का सन्निवेश – संक्षक द्वार भी शिव सान्निध्य में हेतु है। क्राथन ( निद्राभिनय ) , स्पन्दन (स्वप्नाभिनय) , मण्टन (मूर्च्छाभिनय) , शृङ्गारण (कामुकानुकृति) , तन्द्रा , आलस्य , प्रमाद , मूढ़ता , विलाप , हास , उन्मत्तता , अशौच , क्रन्दन , काम , क्रोध , लोभ , लोकैषणादि से सुदूर रहते हुये भी कहीं जड़ता , कहीं उन्मत्तता , कहीं विषय लम्पटता रूप लोक निन्दित व्यवहार से अकल्मषता और असङ्गता का सुदृढ़ अभ्यास शैव साधकों में परिलक्षित होता है। विशद और प्रशस्त मनोभाव की संसिद्धि से दुःखान्त शिव भावापत्ति की संसिद्धि सम्भव है। अहिंसा , सत्यादि रूप सर्व शिवप्रद व्यवहार से सबकी शुभकामना के फलस्वरूप शिवता की स्फूर्ति शीघ्र सम्भव है। दुःख संयोग का आत्यन्तिक वियोग मोक्ष है। दुःख का उच्छेद तथा शिवानुग्रह लब्ध ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति रूप ऐश्वर्य का सन्निवेश सर्व दुःखों का आत्यन्तिक उच्छेद है। मिथ्या ज्ञान , अधर्म , आसक्ति , हेतु तथा च्युति – नामक पाँच मल पशुता में हेतु हैं। इसकी आत्यन्ति की निवृत्ति के लिये कर्मेन्द्रियों , ज्ञानेन्द्रियों और मन , अहम् तथा बुद्धि में शिवानुग्रह से अद्भुत शक्ति का सञ्चार अपेक्षित है। अणिमादि अष्ट सिद्धियों का सन्निवेश आवश्यक है। महेश्वर तुल्य विभुता की स्फूर्ति से उत्क्रमण और पुनर्भव का निवारण सुनिश्चित है। शिव सायुज्य आपत्ति भेद सहिष्णु अभेद रूपा है। पशु संज्ञक जीव में दृक् – शक्ति – क्रिया शक्ति का स्फुरण शिवत्व है। अद्वितीय शिव में विलयोत्तर साम्य को मुक्ति मानना उचित नहीं। ऐसी मुक्ति महाप्रलय में पृथिव्यादि भूतों को तथा स्थावर – जङ्गम सर्व प्राणियों को सुलभ होती है। परन्तु अकृतार्थतावश महासर्ग के प्रारम्भ पुनर्भव सुलभ होता है। ध्यानजा मुक्ति की अनित्यता ही सिद्ध है। भृङ्गी कीट का ध्येय भृङ्गी से देहेन्द्रिय प्राणान्त: करणगत भेद सर्व मान्य है। केवल पूर्व और स्वभाव का ही तन्मयता के प्रभाव से विलोप परिलक्षित है।

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