जिला गरियाबंद में लव जिहाद का मामला ने पकड़ा तूल, सर्व हिंदू समाज के लोगों ने किया धरना प्रदर्शन,युवती को घर वापस लाने पुलिस को सौंपा ज्ञापन।

लव जिहाद हिंदू समाज और देश के लिए खतरा: विश्व हिंदू परिषद

काल्पनिक नहीं है लव जिहाद का मुद्दा, कोई किसी को प्रेमपाश में फंसाकर धर्मान्तरण का दबाव डाले तो उसे क्‍या कहें?

गरियाबंद/छुरा(गंगा प्रकाश):- गरियाबंद जिला में लव जिहाद का मामला तुल पकड़ लिया हैं। आज सर्व हिन्दू समाज के बैनर तले स्थानीय लोगों ने घटना का तीव्र निंदा करते हुए गरियाबंद जिले के छुरा ब्लाक मुख्यालय के स्वर्ण जयंती चौक पर धरना प्रदर्शन कर थाना प्रभारी को जल्द युवती को घर वापस लाने ज्ञापन सौंपा है।गौरतलब है कि छुरा थाना क्षेत्र के निवासी दयाराम (बदला हुआ नाम) की लड़की को मुस्लिम समुदाय के लड़के ने जबरदस्ती घर से उठाकर ले गया है और धर्मान्तरण कराया गया है, जिससे सर्व हिंदू समाज काफी आक्रोशित हैं। वहीं सर्व हिंदू समाज ने छुरा के स्वर्ण जयंती चौक पर धरना प्रदर्शन करते हुए पुलिस प्रशासन पर जमकर बरसे।इस दौरान सर्व हिंदू समाज ने आरोप लगाते हुए कहा हैं कि मुस्लिम समुदाय के लड़के द्वारा हिन्दू युवती का अपहरण कर धर्मांतरण कराया गया हैं। जिससे सर्व हिंदू समाज के लोगो मे काफी आक्रोश है। वहीं जल्द युवती को पुलिस परिजनों को नहीं सौंपेगी तब तक धरना प्रदर्शन उग्र आंदोलन जारी रहेगा। साथ ही कल पूरा गरियाबंद जिला बंद करने का भी आह्वान सर्व हिंदू समाज ने किया है।

लव जिहाद हिंदू समाज और देश के लिए खतरा: विश्व हिंदू परिषद

भारत में भी लव जेहाद नाम केरल उच्च न्यायालय ने दिया है। ऐसे ही एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर इस सेक्युलर बिरादरी को अवश्य बताने चाहिए।लव जिहाद पर विश्व हिंदू परिषद का कहना है कि जयपुर के आध्यात्मिक मेले में विश्व हिंदू परिषद द्वारा वितरित लव जिहाद संबंधित साहित्य पर जिस तरह की आपत्ति सेक्युलर बिरादरी ने की है। उससे उनकी हिंदू विरोधी मानसिकता स्पष्ट हो जाती है।विश्व हिंदू परिषद के महामंत्री सुरेंद्र जैन ने कहा है कि आज पूरा विश्व लव जिहाद के षड्यंत्र पर चिंता व्यक्त कर रहा है।पश्चिम में इसे रोमियो जिहाद कहा जाता है।

भारत में भी लव जेहाद नाम केरल उच्च न्यायालय ने दिया है।ऐसे ही एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर इस सेक्युलर बिरादरी को अवश्य बताने चाहिए।उन्होंने पूछा कि, ‘केवल हिंदू लड़कियां ही मुस्लिम लड़कों से शादी क्यों करती हैं? मुस्लिम लड़कियां हिंदू लड़कों से क्यों नहीं? ऐसी शादी के बाद क्यों केवल हिंदू लड़कियां ही धर्म परिवर्तन करती हैं, मुस्लिम लड़के क्यों नहीं? ऐसी शादी के बाद क्यों कई लड़कियां ढूंढने पर भी नहीं मिलती?’सुरेंद्र जैन का कहना है कि केरल कर्नाटक के बाद अब पूरे देश में इस तरह के हजारों उदाहरण सामने आ चुके हैं। बहुत मामलों में तो हिंदू लड़कियों ने स्वयं प्रेस के सामने उपस्थित होकर अपने उत्पीड़न की पीड़ा को व्यक्त किया है। इन सब के बावजूद सेक्युलर बिरादरी, हिन्दुओं द्वारा देश की रक्षा के लिए चलाये जा रहे, इस जागरण अभियान को कैसे अपमानित कर सकती है।

सुरेंद्र जैन ने कहा कि भारत में तो लव जिहाद का एक नया आयाम सामने आ रहा है। बहकाई गई कई लड़कियों को आतंकवादियों के पास भेजा जा रहा है. केरल में पहले एक पीड़ित पिता द्वारा गुहार लगाई गई थी।अब एक मां ने भी अदालत में अपील करके अपनी बेटी को बचाने की मांग की है।सर्वोच्च न्यायालय को इन मामलों की जांच एनआईए को सौंपनी पड़ी, केरल से गायब हुई कई लड़कियों को आतंकी संगठनों में भर्ती करने का अंदेशा समाज के कई वर्गों को है। आज लव जिहाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा बन चुका है।

एक बयान में विश्व हिंदू परिषद ने यह भी कहा कि भारत के कई स्थानों पर इन षड्यंत्रों के कारण भीषण असंतोष पनप रहा है।लद्दाख में कई वर्षों से जिहादियों के द्वारा चल रहे इस षड्यंत्र को अब चरम सीमा पर पहुंचाया जा चुका है।इसलिए पिछले दिनों कई बौद्धों ने कुछ जिहादियों की पिटाई भी की। पड़ोसी देश श्रीलंका में भी इसी कारण मुस्लिमों और बौद्धों में झड़पों के समाचार आ रहे हैं।म्यांमार में रोहिंग्याओं के साथ संघर्ष के मूल में भी लव जिहाद की ही घटनाएं थी।अब समय आ गया है की इस षड्यंत्र को सेकुलरिज्म की आड़ में छिपाने की जगह उजागर किया जाए और गैर मुस्लिमों को सावधान किया जाए,कश्मीर के उदाहरण से सब को सबक सीखना चाहिए।सुरेंद्र जैन का कहना है कि मुस्लिम समाज को म्यांमार से पाठ सीखना होगा,लद्दाख व श्रीलंका में शुरुआत हो चुकी है,लव जिहादियों के पापों को सेक्युलर बिरादरी कितना भी छुपा ले पीड़ित समाज एक सीमा के बाद प्रतिकार करेगा ही,इससे सौहार्द तो समाप्त होगा ही, सह-अस्तित्व के लिए भी संकट निर्माण होगा,उन्हें जेहाद के हर रूप से तौबा करनी होगी तथा गैर मुस्लिमों के साथ प्रेम से रहना सीखना होगा।

काल्पनिक नहीं है लव जिहाद का मुद्दा, कोई किसी को प्रेमपाश में फंसाकर मतांतरण का दबाव डाले तो उसे क्‍या कहें?

अक्सर चर्चा में रहने वाले लव जिहाद के मुद्दे को स्वयंभू बुद्धिजीवी वर्ग खारिज करता आया है। इसी सिलसिले में 14 जनवरी को नई दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने लव जिहाद को काल्पनिक बताते हुए इसे दक्षिणपंथी संगठनों के दिमाग की उपज बताने का प्रयास किया। क्या वास्तव में लव जिहाद जैसा कुछ है? या फिर यह इस्लामोफोबिया से जनित एक मिथक है? इसकी पड़ताल से वास्तविकता सामने आ ही जाएगी। वैसे तो भारत में अंतर-मजहबी प्रेम विवाह न तो नया है और न ही कोई अपराध, किंतु ऐसा क्यों है कि अब सामने आ रहे तमाम मामलों में लड़का ही मुसलमान और लड़की हिंदू, सिख या ईसाई होती है? वर्ष 2012 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने विधानसभा में बताया कि 2009-12 के बीच 2,687 गैर-मुस्लिम महिलाएं (2,195 हिंदू और 492 ईसाई) इस्लाम में मतांतरित हुईं, जिनमें विवाह ही मूल कारण रहा। स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में प्रेम के बजाय इस्लाम के विस्तार का मजहबी भाव अधिक होता है। शायद इसी कारण ‘लव-जिहाद’ जैसी शब्दावली का जन्म हुआ। इसमें मजहबी ‘सवाब’ पाने हेतु उस ‘तकैया’ का अनुसरण किया जाता है, जिसमें छल-कपट वाजिब है। इसलिए भारत में जितने भी ‘लव-जिहाद’ के मामले आते है, उनमें अधिकांश मुस्लिम अपनी इस्लामी पहचान छिपाने हेतु बिना किसी ‘कुफ्र’ बोध के माथे पर तिलक, हाथ में कलावा और हिंदू नामों आदि का उपयोग करते हैं।

डेमोग्राफिक इस्लामाइजेशन

 नान-मुस्लिम्स इन मुस्लिम कंट्री’ नामक एक दस्तावेज में फ्रांसीसी विद्वान फिलिप फर्ग्यूस ने बताया कि कैसे प्रेम और विवाह के माध्यम से इस्लामीकरण किया जा रहा है और अब प्रेम-विवाह इस्लामीकरण की सतत प्रक्रिया में वही भूमिका निभा रहा है, जो काम अतीत में बलपूर्वक किया जाता था। इस्लामी शोधार्थी हसाम मुनीर ने ‘हाउ इस्लाम स्प्रेड थ्रूआउट द वर्ल्ड’ शीर्षक से तैयार शोधपत्र में उल्लेख किया है, ‘इस्लाम के प्रसार में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच अंतर-मजहबी विवाह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। इस प्रक्रिया से इस्लाम में मतांतरित होने वाले लोगों में सर्वाधिक महिलाएं थीं।’

इस्लामी इतिहासकार क्रिश्चियन सी. साहनर ने ‘क्रिश्चियन मार्टयर्स अंडर इस्लाम: रिलीजियस वायलेंस एंड मेकिंग आफ द मुस्लिम वर्ल्ड’ में लिखा है कि ‘इस्लाम शयन कक्ष के माध्यम से ईसाई दुनिया में फैला।’ ऐसे तमाम उद्धरणों से स्पष्ट है कि गैर-मुस्लिम महिलाओं से मुस्लिम पुरुषों का विवाह विशुद्ध मजहबी एजेंडा है और यह केवल भारत तक सीमित नहीं। ब्रिटेन में लेबर पार्टी की नेता सारा चैंपियन ब्रिटिश संसद में मुस्लिम युवकों (अधिकांश पाकिस्तानियों) द्वारा ईसाई और सिख युवतियों के संगठित यौन शोषण का मुद्दा उठा चुकी हैं।स्मरण रहे कि देश में ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ यदि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अन्य हिंदूवादी संगठन मुखर हैं तो अन्य वर्गों के साथ ही कुछ कम्युनिस्ट-कांग्रेसी नेता भी इस मुद्दे पर आवाज उठा चुके हैं। जुलाई 2010 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ वामपंथी नेता वीएस अच्युतानंदन राज्य में योजनाबद्ध ढंगे से मुस्लिम युवकों द्वारा विवाह के माध्यम से हिंदू-ईसाई युवतियों के मतांतरण का उल्लेख कर चुके हैं। केरल उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस संबंध में सुरक्षा एजेंसियों को जांच के निर्देश दे चुका है। यही नहीं, ‘लव-जिहाद’ के खिलाफ केरल के ईसाई संगठनों ने वर्ष 2009 में सबसे पहले आवाज बुलंद की थी।ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अधिकांश अंतर-मजहबी प्रेम संबंधों या विवाहों में पुरुष मुसलमान और महिला गैर-मुस्लिम क्यों होती है? ऐसा इसलिए, क्योंकि इस्लाम से बाहर उनकी शादी वर्जित है। यह मजहबी पाबंदी मुस्लिम समाज का अकाट्य हिस्सा आज भी है। अमेरिकी शोध संस्था ‘प्यू’ के अनुसार, मुस्लिम परिवारों में पुत्रों द्वारा किसी गैर-मुस्लिम से विवाह की स्वीकार्यता काफी सघन है, लेकिन वे अपनी पुत्रियों का अंतर-मजहबी विवाह या तो बहुत कम पसंद करते हैं या इसकी सख्त मनाही है। भारत में भी स्थिति इससे अलग नहीं है। क्या यह मजहबी निषेधाज्ञा किसी भी सूरत में आधुनिक या उदार कही जा सकती है? क्या कोई समाज इस तरह की मजहब प्रेरित धोखेबाजी को प्रेम की संज्ञा देकर सभ्य होने का दावा कर सकता है?

अंतरधार्मिक विवाह और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

पिछले कई दशकों के दौरान समाज सुधार के बड़े प्रयासों के बावजूद आज भारत में धर्म और जाति के नाम पर होने वाले विवादों की कमी नहीं है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बाद भी कई बार अलग-अलग धर्मों के हितों की रक्षा हेतु किये जाने वाले प्रयास उनके बीच विभाजन की रेखा को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं। हाल ही में देश के कई राज्यों (जैसे-मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश) द्वारा ऐसे विवाहों को रोकने के लिये कानूनों के निर्माण की बात कही गई है जिन्हें उनके द्वारा ‘लव जिहाद’ की संज्ञा दी गई है। गौरतलब है कि  ‘लव जिहाद’ के निर्धारण का न तो कोई कानूनी आधार है और न ही संवैधानिक। इसके साथ ही बिना किसी मज़बूत आधार के कानूनों के माध्यम से अंतरधार्मिक विवाह को रोकना लोगों को संविधान से प्राप्त अधिकारों का भी उल्लंघन होगा।ज्ञात हो की वर्ष 2018 में उच्चतम न्यायालय के हादिया मामले के बाद पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अंतरधार्मिक विवाह के कई मामले सामने आए, जहाँ अलग-अलग मामलों में जन्म से हिंदू या मुस्लिम महिलाओं ने धर्मांतरण के माध्यम से दूसरे धर्म से संबंधित व्यक्ति से विवाह किया था।हाल ही में मध्य प्रदेश राज्य सरकार द्वारा ‘लव जिहाद’ की घटनाओं पर रोक लगाने के लिये ‘धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक, 2020’ नामक एक विधेयक लाने की बात कही गई है।

इसके तहत किसी से झूठ बोलकर या दबाव बनाकर उसे विवाह के लिये विवश करना पाँच वर्ष के सश्रम कारावास के रूप में दंडनीय होगा। हालाँकि यदि कोई व्यक्ति विवाह के लिये स्वेच्छा से धर्मांतरण करना चाहता है, तो उसे एक माह पहले ही इसके लिये आवेदन देना होगा।  

इसी प्रकार हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों की सरकारों द्वारा भी ‘लव जिहाद’ के विरुद्ध ऐसे ही कानूनों को लाने की बात कही गई है। 

भारत में लागू प्रमुख विवाह कानून

भारत में ब्रिटिश शासन के समय समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास किया गया परंतु कई समाज सुधारकों और सरकारों के प्रयासों के बाद भी कानूनों में व्याप्त धार्मिक अंतर को दूर नहीं न किया जा सका है। इसके परिणामस्वरूप देश में अलग-अलग धर्मों से जुड़े लोगों के विवाह का पंजीकरण अलग-अलग कानूनों के तहत किया जाता है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:….  

हिंदू विवाह अधिनियम 1955

मुस्लिम पर्सनल लॉ, 1937

भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872

पारसी विवाह और विवाह विच्छेद अधिनियम, 1936

धर्मांतरण और अंतरधार्मिक विवाह:   

भारत में यदि दो अलग-अलग धर्मों के लोग विवाह करना चाहते हैं तो वे या तो ‘विशेष विवाह अधिनियम, 1954’ के तहत विवाह कर सकते हैं अथवा उनमें से कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के धर्म को अपना ले और संबंधित धर्म के रीति-रिवाज़ों के तहत विवाह कर वे अपने विवाह का पंजीकरण करा सकते हैं। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। यह अनुच्छेद किसी भी व्यक्ति को भारत में किसी भी धर्म को मानने, उसके नियमों का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।

ऐसे में भारत में कोई भी व्यक्ति इस अनुच्छेद में प्राप्त अधिकार के तहत यदि अपनी स्वेच्छा से किसी व्यक्ति से विवाह करने के लिये अपना धर्म परिवर्तन करता है तो वह पूर्णतयः उसके अधिकारों के अधीन होगा।

विशेष विवाह अधिनियम 1954

भारत में सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण अंतरजातीय तथा अंतरधार्मिक विवाहों के लिये उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को दूर करने के लिये वर्ष 1954 में ‘विशेष विवाह अधिनियम को लागू किया गया था।यह अधिनियम वर्ष 1873 के विशेष विवाह अधिनियम को प्रतिस्थापित करता है।  

यह अधिनियम देश में अलग-अलग धर्मों से संबंधित लोगों को बगैर अपने धर्म में परिवर्तन किये ही विवाह पंजीकरण का अधिकार प्रदान करता है।

यह अधिनियम विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों पर भी लागू होता है।इस अधिनियम के तहत विवाह के पंजीकरण के लिये अधिनियम की धारा-4 में कुछ अनिवार्यताओं का निर्धारण किया गया है, जो निम्नलिखित हैं:….

अधिनियम के तहत विवाह पंजीकरण के समय किसी भी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित न हो। कोई भी पक्ष मानसिक विकार के परिणामस्वरूप विधिमान्य सहमति देने में असमर्थ न हो।

या विवाह की सहमति तो दे सकता हो परंतु इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित न हो कि वह विवाह अथवा संतानोत्पत्ति के अयोग्य हो।

पुरुष की आयु 21 वर्ष (न्यूनतम) और महिला की आयु 18 वर्ष हो आदि।

विवाह के लिये धर्मांतरण का कारण

धर्मांतरण सामान्य स्थितियों और विवाह के मामलों में भी किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है परंतु कई कानूनी और सामाजिक बाध्यताओं के कारण अंतरधार्मिक विवाह के मामलों में लोग विवाह के लिये धर्मांतरण को अधिक प्राथमिकता देते हैं।

विशेष विवाह अधिनियम की चुनौतियाँ

इस अधिनियम की धारा-5 के तहत विवाह के लिये ज़िले के विवाह अधिकारी को नोटिस देना अनिवार्य है, जिसके बाद विवाह अधिकारी द्वारा धारा-5 के तहत प्राप्त सभी नोटिसों को विवाह सूचना पुस्तक में दर्ज करने के साथ एक नोटिस बोर्ड पर चस्पा किया जाएगा जहाँ इसे किसी भी व्यक्ति द्वारा निशुल्क देखा जा सकता है। साथ ही यदि कोई भी पक्ष उस ज़िले का निवासी नहीं है तो इस नोटिस को संबंधित ज़िले के विवाह अधिकारी को भेजा जाएगा। इस नोटिस के जारी होने के 30 दिनों के अंदर कोई भी व्यक्ति धारा-4 के तहत निर्धारित शर्तों के उल्लंघन के आधार पर इस विवाह  को लेकर अपना आक्षेप व्यक्त कर सकता है। 

आक्षेप की लिखित जानकारी मिलने के बाद विवाह अधिकारी को 30 दिनों के अंदर जाँच कर अपना निर्णय देना होता है। साथ ही विवाह अधिकारी के निर्णय से असंतुष्ट रहने पर व्यक्ति ज़िला न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।हालाँकि इस प्रक्रिया में लगने वाले समय के दौरान अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह के मामलों में लोगों पर परिवार अथवा समाज से अनावश्यक दबाव बढ़ जाता है। कई मामलों में लड़के या लड़की को इस प्रकार के विवाह से रोकने के लिये उन पर जानलेवा हमला भी कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ मामलों में कई असामाजिक तत्त्व लोगों की सार्वजनिक जानकारी का गलत फायदा उठाकर उन्हें या उनके परिवार को परेशान करने का प्रयास करते हैं। 

हाल ही में केरल में विशेष विवाह अधिनियम के तहत अंतरधार्मिक जोड़ों की तस्वीरों और अन्य जानकारियों के दुरुपयोग के मामले सामने आने के बाद सरकार ने इस अधिनियम के तहत विवाह के नोटिस के ऑनलाइन प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। इन सब चुनौतियों से बचने के लिये अधिकांशतः लोग धर्म परिवर्तन का विकल्प अपनाते हैं।हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में SMA के तहत 30 दिन के नोटिस की अनिवार्यता को समाप्त करने की मांग की गई, इसके लिये तर्क दिया गया कि SMA की धारा-4 की शर्तों को शपथ पत्र और चिकित्सीय जाँच के माध्यम से भी पूरा किया जा सकता है।

अंतरधार्मिक विवाह का विरोध

कुछ संगठनों का आरोप है कि अंतरधार्मिक विवाहों के माध्यम से ज़बरन धर्म परिवर्तन कराने का प्रयास किया जाता है।     

‘हिंदू विवाह अधिनियम, 1955’ या अन्य कुछ धर्मों के कानूनों के तहत किसी भी व्यक्ति को एक ही विवाह की अनुमति दी गई है, ऐसे में कुछ मामलों में लोगों ने दूसरा विवाह करने के लिये  धर्मांतरण (विशेषकर इस्लाम जहाँ 4 विवाह तक की अनुमति है) का रास्ता अपनाया।  गौरतलब है कि इस्लाम धर्म के रीति रिवाज़ों के तहत एक से अधिक विवाह के मामले में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा-494 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।   

पूर्व के मामले

सरला मुद्गल (1995): वर्ष 1995 में कल्याणी नामक एक संस्था की संचालक सरला मुद्गल द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि कोई भी हिंदू बिना अपने पहले विवाह से तलाक की कार्रवाई को पूरा किये इस्लाम में धर्मांतरण के माध्यम से दूसरा विवाह नहीं कर सकता है और ऐसा करना IPC की धारा 494 के तहत दंडनीय होगा।  

राज्य सरकारों द्वारा धर्मांतरण विरोधी कानूनों का प्रस्ताव

हाल में हरियाणा राज्य के गृहमंत्री द्वारा धर्मांतरण के विरुद्ध कानून के निर्माण की घोषणा के साथ हिमाचल प्रदेश में इस मामले पर पहले से सक्रिय एक कानून की जानकारी मांगी गई है। गौरतलब है कि वर्ष 2019 में हिमाचल विधानसभा द्वारा ‘धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक, 2019’ पारित किया गया था। 

हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2007 से ही एक कानून लागू था जिसके तहत बलपूर्वक या धोखाधड़ी से होने वाले धर्मांतरण पर रोक लगाई गई थी, हालाँकि वर्ष 2019 के विधेयक में इसके प्रावधानों को और अधिक कठोर कर दिया गया है।

वर्ष 2019 के विधेयक के अनुसार, कोई भी व्यक्ति बल, अनुचित प्रभाव, प्रलोभन, धोखे या विवाह के माध्यम से किसी दूसरे व्यक्ति का धर्मांतरण कराने का प्रयास तथा ऐसे कार्यों में सहयोग नहीं करेगा।

इस विधेयक के अनुसार, सिर्फ धर्मांतरण के उद्देश्य से किये गए विवाह को किसी भी पक्ष के आवेदन पर न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित किया जा सकता है।यदि कोई व्यक्ति विवाह के लिये स्वेच्छा से धर्मांतरण करना चाहता है, तो उसे एक माह पहले ही इसके लिये आवेदन देना होगा, साथ ही धर्मांतरण में शामिल धर्मगुरु को भी इसकी सूचना एक माह पहले ही ज़िला प्रशासन को देनी होगी। 

इसके तहत अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होंगे और इसके प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों को जुर्माने के साथ 5 वर्ष तक के कारावास का दंड दिया जा सकता है, यदि पीड़ित एक नाबालिग, महिला या अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य है तो उस स्थिति में कारावास के दंड को 7 वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है।

क्या है चुनौतियाँ

किन्हीं दो सहमत वयस्कों के बीच वैवाहिक संबंधों को विनियमित करने के लिये अनावश्यक कानूनी हस्तक्षेप न केवल संवैधानिक अधिकारों की गारंटी के खिलाफ होगा, बल्कि यह व्यक्तिगत (अनुच्छेद 21) और बुनियादी स्वतंत्रता की अवधारणा को भी क्षति पहुँचाता है।

बहुविवाह, बहुपत्नी प्रथा, अपहरण या बल प्रयोग आदि को पहले से ही अपराध माना गया गई और ऐसे अपराधों से IPC या अन्य कानूनों की विभिन्न धाराओं के तहत निपटा जा सकता है।

असामाजिक तत्त्वों द्वारा लोगों का शोषण करने या अराजकता फैलाने के लिये ऐसे कानूनों का दुरुपयोग किया जा सकता है।

आगे की राह

21वीं सदी में भी देश में धर्म और जाति के नाम पर होने वाला भेदभाव एक बड़ी चिंता का विषय है, ऐसे में वर्तमान में समाज में लोगों में निजता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता (विवाह, धर्म का चुनाव या अन्य मामलों में भी) के संदर्भ में व्यापक जागरूकता लाने की आवश्यकता है।

विवाह अधिनियम से जुड़े कानूनों में अपेक्षित बदलाव के साथ और उन्हें लागू करने में होने वाली अनावश्यक देरी को दूर करने के विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिये। 

कानूनों या धार्मिक रीति-रिवाज़ों के दुरुपयोग के माध्यम से लोगों के शोषण को रोकने के लिये युवाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिये।

भारत में विवाह से जुड़े कानूनों में व्याप्त जटिलता को दूर करने के लिये ‘समान नागरिक संहिता’ को अपनाया जाना बहुत ही आवश्यक है।दो सहमत वयस्कों के बीच वैवाहिक संबंधों को विनियमित करने के लिये अनावश्यक कानूनी हस्तक्षेप न केवल संवैधानिक अधिकारों की गारंटी के खिलाफ होगा, बल्कि यह व्यक्तिगत और बुनियादी स्वतंत्रता की अवधारणा को भी क्षति पहुँचाता है।’ इस कथन के संदर्भ में भारत में अंतरधार्मिक विवाह से जुड़ी कानूनी और सामाजिक चुनौतियों की समीक्षा कीजिये।

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