
नईदिल्ली (गंगा प्रकाश):- कानून और नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद उसका परिणाम भुगतने से बच निकलना नेहरू-गांधी परिवार की खास फितरत रही है। अतीत में यह परिवार इसमें सफल होता रहा है लेकिन इस बार परिवार खुद को मुश्किल में फंसा देख रहा है। मामला मोदी सरनेम पर राहुल गांधी की टिप्पणी से जुड़ा है। यदि राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली तो परिवार की परंपरा टूट जाएगी।कानून और नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद उसका परिणाम भुगतने से बच निकलना है नेहरू-गांधी परिवार की खास फितरत रही है। अतीत में यह परिवार इसमें सफल होता रहा है, लेकिन इस बार परिवार खुद को मुश्किल में फंसा देख रहा है। ताजा मामला मोदी सरनेम पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की टिप्पणी से जुड़ा है। यदि राहुल गांधी को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली तो कानून के शिकंजे से बच निकलने वाली परिवार की परंपरा टूट जाएगी। इस सिलसिले की शुरुआत प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दौर से ही हो गई थी।नेहरू सरकार के दौर में हुए जीप घोटाले की जांच के लिए बनी समिति ने उसमें गड़बड़ी पाई, लेकिन उस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बाद में यह जानकारी आई कि जीप आपूर्ति करने वाली ब्रिटिश कंपनी के साथ सौदा संदिग्ध था। उस कंपनी से जीप खरीद के सौदे का निर्देश प्रधानमंत्री कार्यालय से ही सीधे लंदन स्थित उच्चायोग को दिया गया था। तब उच्चायुक्त रहे वीके कृष्ण मेनन ने अपने दस्तखत से जीप खरीद का सौदा किया, जबकि उस समझौते पर दस्तखत संबंधित अधिकारी के होने चाहिए थे। उस कंपनी को एक लाख 72 हजार पाउंड एडवांस भी दे दिए गए।
जब जीप घोटाले पर हंगामा हुआ तो मेनन के खिलाफ कार्रवाई के बजाय 3 फरवरी, 1956 को उन्हें केंद्र में बिना विभाग का मंत्री बना दिया गया। अगले साल उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया। मेनन को संतुष्ट इसलिए रखा गया ताकि जीप घोटाले का दाग किसी अन्य हस्ती पर न लगे। हालांकि, मेनन ने जीप घोटाले की असली कहानी 1969 में एक पत्रकार को बताई जो चुनावी सभाओं में मेनन के लिए दुभाषिये का काम कर रहे थे। मेनन तब बंगाल के मिदनापुर से लोकसभा का उपचुनाव लड़ रहे थे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कहानी तो बहुत पुरानी भी नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1975 में उनका लोकसभा निर्वाचन रद कर दिया। इंदिरा गांधी ने न्यायालय के आदेश का पालन करने के बजाय ऐसी परिस्थितियां बना दीं कि आपातकाल लगा दिया। उस दौरान तमाम ज्यादतियों के बावजूद वह कानूनी शिकंजे से बच निकलीं। स्पष्ट है कि यह परिवार हमेशा खुद को नियम-कानून से ऊपर मानता रहा, लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। पहले कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में रहती थी, मगर अब उसके पास लोकसभा में प्रतिपक्ष का नेता बनाने की पात्रता भी नहीं रही।
याद रहे कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी नेशनल हेराल्ड मामले में जमानत पर हैं। इस परिवार के साथ एक रुझान यह भी रहा है कि भले ही उन पर कार्रवाई अदालतें करें, लेकिन उनके समर्थक उसे सरकारों और विरोधी दलों की साजिश के रूप में प्रचारित करते आए हैं। 1977 में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरुद्ध कांग्रेसियों ने मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ हंगामा किया था। इसी तरह कांग्रेसियों ने राहुल गांधी के खिलाफ अदालती निर्णय को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ हंगामा किया और उसे जारी रखे हुए हैं। आपातकाल की ज्यादतियों के खिलाफ मोरारजी देसाई सरकार ने शाह आयोग गठित किया था। संजय गांधी और उनके समर्थकों ने शाह आयोग के सुनवाई स्थल पर जाकर भारी तोड़फोड़ की थी। 1979 में मोरारजी देसाई सरकार गिर गई।इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया। जब इंदिरा गांधी ने चरण सिंह को संदेश भिजवाया कि संजय गांधी के खिलाफ मोरारजी सरकार के दौर में शुरू हुए मुकदमे वापस करा लीजिए तो चरण सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए। इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह सरकार गिर गई। फिर 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो संजय के खिलाफ मामलों में अभियोजन पक्ष ने ढिलाई बरतनी शुरू कर दी और अंतत: न केवल संजय, बल्कि वीसी शुक्ल जैसे उनके साथी भी बरी हो गए।
बोफोर्स तोप खरीद में दलाली और घोटाले के दाग भी नेहरू-गांधी परिवार के दामन पर पड़े। राजीव गांधी भी इसकी जद में आए। उस खरीद में दलाली के भुगतान की बात थी जबकि दलाली लेने की भारत सरकार ने पहले ही मनाही कर रखी थी। वीपी सिंह सरकार में उस मामले में प्राथमिकी दर्ज हुई। वीपी सिंह सरकार गिरने के बाद राजीव के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर चंद्रशेखर सरकार बनवाई। सरकार बनते ही राजीव गांधी ने चंद्रशेखर पर यह दबाव डलवाया कि वह बोफोर्स केस को ठंडे बस्ते में डाल दें। चंद्रशेखर ने ऐसा करने के बजाय प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। राजीव गांधी को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने चंद्रशेखर को संदेश भिजवाया कि इस्तीफा वापस ले लीजिए, पर चंद्रशेखर ने यह कहते हुए उनकी बात ठुकरा दी कि ‘राजीव जी, प्रधानमंत्री के पद को मजाक का विषय मत बनाइए।’
वाजपेयी सरकार के दौरान सीबीआइ ने बोफोर्स मामले को लेकर कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल किया। राजीव गांधी के निधन के बाद उनका नाम आरोपपत्र के दूसरे कालम में दर्ज था जैसा कि मृतक आरोपित के साथ होता है। फरवरी, 2004 में जब दिल्ली हाई कोर्ट ने बोफोर्स मामले में राजीव गांधी तथा अन्य के खिलाफ घूसखोरी के आरोप खारिज कर दिए तो वाजपेयी सरकार ने उस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने में देर कर दी। इस बीच मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बन गई। उस सरकार से अपील की उम्मीद बेमानी ही थी।
उस दौरान इस मामले में एक अजीब बात जरूर हुई कि नवंबर 2019 में आयकर विभाग ने बोफोर्स दलाल विन चड्ढा के मुंबई स्थित फ्लैट को करीब 12 करोड़ रुपये में नीलाम कर दिया, क्योंकि आयकर न्यायाधिकरण ने पता लगा लिया था कि बोफोर्स सौदे में दलाली ली गई थी। उस रकम पर भारत में कर देनदारी भी बनती थी। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर नेशनल हेराल्ड मामले में कोर्ट और एजेंसियों ने नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ कार्रवाई शुरू की। वास्तव में तो यह पूरा मामला स्वामी, अदालत और परिवार के बीच का है। फिर भी कांग्रेस इसे राजनीतिक रंग देने से बाज नहीं आ रही। शायद परिवार इसी भ्रम में है कि वह किसी भी कानूनी कार्रवाई से परे है। पता नहीं यह प्रवृत्ति इस परिवार और पार्टी को कहां ले जाएगी?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)