आत्मदेव अपरोक्ष होने के कारण है आनन्द स्वरूप – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की कलम से 

जगन्नाथपुरी – हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वतीजी महाराज कर्म के विभिन्न रूपों की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि आत्मदेव  स्वतः पर प्रेमास्पद अभोग्य होता हुआ अपरोक्ष होने के कारण आनन्द स्वरूप है। वह स्वत: सर्वाधिष्ठान स्वरूप होता हुआ अपरोक्ष होनेके कारण अद्वय है। अतः अनभीष्ट मृत्यु , मूर्खता , दुःख तथा द्वैत से अतिक्रान्त आत्म तत्त्व के आत्म अनुरूप विज्ञान से मृत्यु , मूर्खता तथा दुःख से परित्राण और अन्तः आराम , अन्तर्ज्योति , अन्तः सुखोपलब्धि स्वत: सिद्ध है। यद्यपि वस्तुस्थिति ऐसी है ; तथापि अनादि अविद्या, काम तथा कर्म के योग से आत्म देव को जन्म – मृत्यु, जड़ता तथा दुःख प्राप्त है। प्रति क्षण परिवर्तनशील मृत्यु ग्रस्त अनित्य शरीर तथा संसार में अहन्ता और ममता के कारण जन्म तथा मृत्यु ; दृश्य तथा जड़़ शरीर तथा संसार में अहन्ता और ममता के कारण मूढ़ता एवम् दुःख प्रद शरीर तथा संसार अहन्ता और ममता के कारण त्रिविध ताप प्राणियों को सम्प्राप्त हैं। सुषुप्ति में अहन्ता तथा ममता का आश्रय अहमर्थ के प्रसुप्त होने के कारण अनित्य , जड़ तथा दुःख रूप शरीर तथा संसार में अहन्ता और ममता असम्भव है , अतएव जीवों को मृत्यु का भय तथा अन्य में अन्य बुद्धि रूप अध्यास – संज्ञक अज्ञता और त्रिविध ताप रूप दुःख सर्वथा अप्राप्त है। उस अवस्था में केवल मृत्यु , मूर्खता तथा दुःख का बीज मूल अज्ञान ही शेष रहता है। कर्म तथा काम से अतिक्रान्त अविद्या भूमि सुषुप्ति से अतीत साक्षी अखण्ड विज्ञानघन ही सिद्ध है । कामना तथा कर्म के बीज तथा वेग से युक्त कर्माधिकारी यदि अनर्गल मान्यता के कारण करणीय कर्मों का आरम्भ ही ना करे , कर्म आरम्भ करके भी अनर्गल मान्यता के कारण अपक्व दशा में ही कर्म त्याग कर दे एवम् शम सिद्धि के बाद भी कर्म सन्यास न करे तो नैष्कर्म सिद्धि सम्भव नहीं है। गुणमय अनात्म भावों से अतीत आत्मा का आत्म अनुरूप अधिगम के लिये कर्म फलात्मक स्थूल शरीर तथा कर्म एवम् काम आश्रय रूप सूक्ष्म शरीर का शोधन अपेक्षित है। तदर्थ निषिद्ध तथा काम्य कर्म उपासना का त्याग तथा विहित कर्म उपासना का धृत्य उत्साह पूर्वक निष्काम भाव से भगवदर्थ सम्पादन अपेक्षित है। इसके फलस्वरूप चित्त का शुद्ध तथा समाहित होना सुनिश्चित है। कर्मेन्द्रियों में कर्म के प्रति तथा ज्ञानेन्द्रियों में भोग के प्रति प्रीति तथा प्रवृत्ति शान्त हो जाने पर और धारणा की दृढ़ता से चित्त के निर्मल तथा निश्चल हो जाने पर आरुरुक्षु कर्म सन्न्यास का प्रशस्त अधिकार सम्प्राप्त शमशील योगारूढ़ कहा जाता है। ब्राह्मण वेद सम्मत यज्ञ , दान , तप आदि स्व अनुरूप कर्म का निष्काम भाव से अनुष्ठान के फलस्वरूप उत्क्रमण और पुनर्भव प्रसूत अभ्युदय से अतीत निःश्रेयस प्रद साक्षाद परोक्ष प्रत्यगात्म स्वरूप ब्रह्म के वेदन की भावना से सम्पन्न होकर ब्रह्म परिमार्गण में प्रवृत्त होते हैं। वे अनात्म अनुरूप आत्म मान्यता का परित्याग कर गुणमय भावों से अतीत आत्म अनुरूप आत्म अधिगम के फलस्वरूप पुत्र , वित्त तथा मान , प्राण , परिजन रूप लोक की एषणा से उपराम आप्त काम परम निष्काम होकर अविक्रिय ज्ञान स्वरूप आत्मा के अनुरूप निवृत्ति तथा निर्वृति रूप सन्न्यास प्राप्त करते है।

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