प्रभु श्रीराम एवं अगस्त्य मुनि संवाद – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)। हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वतीजी महाराज श्रीराम एवं अगस्त्य मुनि के बीच हुये संवाद की चर्चा करते हुये उद्घृत करते हैं कि यात्रा प्रसङ्ग में पद्मपाद श्रीफुल्ल मुनि के आश्रम में पहुँचे। यह वही आश्रम है , जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम देवी सीता को दुष्ट रावण के चंगुल से मुक्त करने की भावना से पीपल के वृक्ष के नीचे दर्भ आसन पर बैठ कर विचार किया था। हमारे सहायक शाखामृग बन्दर हैं। इनकी गति पृथ्वी और वृक्षों तक सीमित है। परन्तु जानकी समुद्र पार लंका की अशोक वाटिका में शोकातुर प्रतीक्षारत है। इन बन्दरों को लेकर समुद्र पार पहुँचना कैसे सम्भव है। इतने में चिन्तातुर प्रभु श्रीराम तथा लक्ष्मण आदि ने नभोमार्ग से उनकी ओर आते हुये एक तेजः पुञ्ज का दर्शन किया। जो कुछ सन्निकट पहुँचने पर युग्माकार परिलक्षित हुआ। सम्मुख सन्निकट पहुँचने पर उन्होंने उसे देव – मुनि वन्दित लोपामुद्रा सहित महर्षि अगस्त्य समझा। श्रीरामभद्र सहित सबने उनका विधिवत् अभिवादन और अभिनन्दन किया। यद्यपि दर्शन मात्र से प्रभु श्रीराम ने स्वयं को सुफल मनोरथ समझा , तथापि उन्होंने महोदधि को भी आचमन मात्र से आत्मसात् करने वाले समर्थ मुनि पुङ्गव के पादपद्मों पर अपना मस्तक नवाया और अपनी अन्तर्व्यथा को व्यक्त करना आरम्भ किया कि हे प्रभो ! आप मेरे पितृतुल्य हैं। आपने दर्शन देकर मेरे सूर्यवंश को सनाथ तथा समर्थ बना दिया। इस विमल अंश में मेरे समान विपत्ति ग्रस्त ना कोई हुआ , ना हो ही सकता है। राज्य से च्युत होने के पश्चात् लक्ष्मण तथा सीता के सहित वन में भी निश्चिन्त नहीं रह सका। मायावी मारीच की माया से विमोहित सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है। प्राण वल्लभा सीता स्वभाव से कोमलाङ्गी और कृश है और इस विरह वेदना ने उसे अधिक दुर्वल बना दिया है। आप मेरे हितैषी , हितज्ञ, हित करने में तत्पर और समर्थ स्वामी हैं। आप कृपाकर मुझे वह उपदेश दीजिये जिसके अनुपालन से मैं अपने मित्रों , मन्त्रियों तथा सैनिकों के सहित समुद्र पार पहुँच कर समराङ्गण में रावण को मार कर सीता को प्राप्त कर सकूँ। महर्षि अगस्त्य ने कहा कि हे राम ! तुम शोक का परित्याग करो। विमल सूर्य तथा चन्द्रवंश में इसके पूर्व कई राजा हुये हैं , जिन्होंने दुःख को प्राप्त कर उसके चपेट से स्वयं को मुक्त कर प्रमुदित किया है। तुम स्वयं धनुर्धरों में अग्रणी हो , मनुष्यों में लक्ष्मण के समान कोई अन्य पराक्रमी नहीं है। सुग्रीव अद्वितीय योद्धा हैं। अतः दीनता का परित्याग कर प्रज्ञाशक्ति का उपयोग कर पराक्रम का परिचय दो। तुम्हारे पास सैन्यबल रूपा सहाय सम्पत्ति पर्याप्त तथा अद्भुत है। उनके लिये अन्न , जल , वस्त्र , वाहन , भवन तथा आयुध और प्रशिक्षण आदि की अपेक्षा नहीं है। रही बात, हितोपदेष्टा की ; वह मैं तुम्हें प्राप्त हूँ ही। तुम स्वयं सुशीलता , शूरता , ओजस्विता , प्रज्ञा , तपस्या तथा कुलीनता से सम्पन्न धर्म तथा ब्रह्मरूप हो। इस प्रकार कुलीनता , सत्य शीलता , प्रज्ञा , सेना , मन्त्रणा , तप तथा ईश्वर आश्रयता रूप सामर्थ्य सम्पन्नता के कारण शोक का परित्याग करो। यह समुद्र तुम्हारी विजय यात्रा में प्रतिबन्धक नहीं सिद्ध हो सकता। इसे तुम वत्सपद चिह्नगत जलवत् समझो। आवश्यकता पड़ने पर मैं पूर्ववत् समुद्र कै पुनः पी जाऊँगा। उठो, विलम्ब मत करो। सैन्यबल तथा सूझबूझ का परिचय देकर सेतु बाँधकर और देवी सीता का अपहरण करने वाले रावण को मारकर चन्द्र , तारे की अवधि पर्यन्त कीर्ति लाभ करो।

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