

रायपुर (गंगा प्रकाश)। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहाँ की संघीय सरकार प्रत्येक पाँच वर्ष के अंतराल पर चुनाव के माध्यम से चुनी जाती है। देश के नागरिक इस चुनावी प्रक्रिया में सीधे तौर पर भाग लेते हैं।भारतीय संविधान के अनुसार देश में नियमित, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव आयोजित करने का अधिकार निर्वाचन आयोग को प्राप्त है। चुनाव आयोजित करने एवं चुनाव के बाद के विवादों से संबंधित सभी विषयों को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 एवं लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।किंतु आज वोट की राजनीति ने पूरा अपराध जगत खड़ा किया हुआ है। मतदान जैसी पवित्र विधा भी आज असामाजिक तत्वों के हाथों में कैद है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान पकड़ी गई नगदी, शराब और अन्य मादक पदार्थों के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। कब जन प्रतिनिधि राजनीति को सेवा और संसद को पूजा स्थल जैसा पवित्र मानेंगे? कब लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलेंगी? कब तक वोटो की खरीद फरोख्त होती रहेगी? सभी दल एवं नेता अभाव एवं मोह को निशाना बनाकर नामुमकिन निशानों की तरफ कौम को दौड़ा रहे हैं। यह कौम के साथ नाइन्साफी है। क्योंकि ऐसी दौड़ आखिर जहां पहुंचती है वहां कामयाबी की मंजिल नहीं, बल्कि मायूसी का गहरा गड्ढ़ा है। चुनाव का समय देश के भविष्य-निर्धारण का समय है। लालच और प्रलोभन को उत्तेजना देकर वोट प्राप्त करना चुनाव की पवित्रता का लोप करना है। इस तरह वोट की खरीद-फरोख्त होती रहेगी तो देश का रक्षक कौन होगा?
पांच राज्यों से अब तक जो आंकडे़ मिले हैं उनमें उत्तर प्रदेश की स्थिति अधिक चैंकानेवाली है। निर्वाचन आयोग के जांच दल ने अकेले उत्तर प्रदेश में करीब एक सौ सोलह करोड़ रुपए नगद, करीब अट्ठावन करोड़ रुपए की शराब और लगभग आठ करोड़ रुपए के मादक पदार्थ बरामद किए हैं। जाहिर है, चोरी-छिपे इससे कई गुना अधिक नगदी, शराब और मादक पदार्थों का प्रवाह हुआ होगा। पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार अवैध पैसे और मादक पदार्थों का प्रवाह तीन गुना से अधिक हुआ है। इसी तरह उत्तराखंड और पंजाब में भी चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को पैसे और नशीले पदार्थ बांटने का चलन पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी बढ़ा है।
राजनीति में चरित्र एवं सेवा के मूल्यों के नितांत अभाव ने अपराधीकरण के जाल को और फैला दिया है। देश में माफिया गिरोह की ताकत और नियंत्रण इतना ज्यादा हो गया है कि राजनीतिक पार्टियों को चुनाव जीतने के लिये इनकी सेवाओं का इस्तेमाल करना ही होता है। एक तरह से राजनीतिज्ञों, अपराधियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ है। उनके पास मजबूत तंत्र है। बाहुबलियों की फौज है। आलीशान मकान है। गुण्डा तत्व हैं। पांच सितारों का आतिथ्य है। जीवित व मुर्दा मांस है। इस प्रकार लूटखसोट का अपना भी एक ‘नेटवर्क’ बन गया है और चुनाव के समय यह नेटवर्क अधिक सक्रिय होकर नंगा नाच करता है। हैरानी की बात है कि चुनाव आयोग एवं अन्य निगरानी एजेन्सियों के बावजूद इन अपराधी तत्वों का नेटवर्क बेधड़क अपना कार्य करता है और हर पिछले चुनाव की तुलना में इनका उपयोग अधिक होता जा रहा है। पंजाब में पैसे और नशीले पदार्थ बांटने एवं अपराधी तत्वों की सक्रियता का यह आंकड़ा पिछले चुनाव से पांच गुना से अधिक है। जबकि इस बार पंजाब में मादक पदार्थों की अवैध बिक्री पर रोक लगाना एक अहम चुनावी मुद्दा था। नशामुक्ति एवं नारी उन्नयन के साथ-साथ राम के रामराज्य, अम्बेडकर के सामाजिक न्याय और गांधी की अहिंसा का जिस प्रकार स्वार्थ सिद्धि के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है, यह भी एक मनोवैज्ञानिक माफियापन ही है, जो वोट हड़पने का भड़काऊ तरीका है।
विधानसभा चुनावों की घोषणा से पहले जब केंद्र ने नोटबंदी का फैसला किया तो माना जा रहा था कि इस बार राजनीतिक दल अपने अनाप-शनाप खर्चों पर अंकुश लगाएंगे, मतदाताओं को रिझाने के लिए नगदी, शराब और दूसरे नशीले पदार्थ नहीं बांटेंगे। मगर इस प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी दर्ज होना चिन्ताजनक होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। राजनीतिक दलों का अपने स्वार्थों के लिये किसी भी हद तक गिर जाना लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अनास्था को ही जाहिर करता है और इस तरह की स्थितियां निर्वाचन आयोग के लिए भी चुनौती है। फिर यह सवाल भी है कि नोटबंदी और राजनीतिक चंदे पर अंकुश लगाने के बावजूद अवैध का प्रवाह रोक पाने में सरकार से कहां चूक हुई? सवाल यह भी है यदि हमारे प्रतिनिधि ईमानदारी से नहीं सोचेंगे और आचरण नहीं करेेंगे तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर कैसे करेंगी? जैसे बुद्धिमानी एक ‘वैल्यू’ है, माफियापन भी एक ‘वैल्यू’ है और मूल्यहीनता के दौर में यह वैल्यू काफी प्रचलित है। आज के माहौल में यह वैल्यू ज्यादा फायदेमन्द है यही कारण है कि इसका प्रचलन दिन-दुना, रात चैगुना बढ़ रहा है।
चुनाव पर खर्च को लेकर निर्वाचन आयोग के स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं, पर शायद ही कोई प्रत्याशी तय सीमा का पालन करता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा तो तय है, पर पार्टियों का खर्च तय नहीं है, इसलिए प्रत्याशी अपना खर्च पार्टियों के खाते से दिखाकर निर्वाचन आयोग के सवालों से बच निकलते हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से राजनीतिक दलों के नगदी चंदे की सीमा तय की गई। यह भी सख्ती की गई कि अगर राजनीतिक दल अपने आय-व्यय का ब्योरा पेश नहीं करेंगे, तो उन्हें आयकर में मिलने वाली छूट से वंचित होना पड़ सकता है। मगर उसका भी कोई असर नजर नहीं आ रहा। इसकी वजह साफ है कि चुनाव के दौरान पार्टियों और प्रत्याशियों को आर्थिक मदद करने वाले अपने काले धन का इस्तेमाल करते हैं। पर सवाल है कि काले धन पर अंकुश लगाने के मकसद से सरकार ने जो सख्त कदम उठाए, उसका असर क्यों नहीं हो पाया। सरकार की नियत पर भी सवाल खड़े होना लाजिमी है।
अपराध परिणाम है, जड़ परिग्रह है, जड़ सत्ता है। और आज की बदली व्यवस्था में काफी अंशों तक जड़ चुनाव है। चुनावों में आश्वासन दिए जाते हैं, दिवास्वप्न दिखाए जाते हैं, किसानों को ऋण मुक्ति का, छात्रों को लेपटाॅप का, व्यापारी को तरह-तरह के करों को हटाने का, पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण देने का। और ये आश्वासन हमेशा अधूरे रहे। इस वादा-खिलाफी ने भी अपराध वृत्ति को बढ़ावा दिया। जग जाहिर है कि चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रत्याशी पैसे, शराब, नशीले पदार्थ और साड़ी, कंबल जैसी चीजें बांटते हैं। गरीब और निरपेक्ष मतदाता को पैसे देकर उससे अपने पक्ष में वोट डलवाया जाता है। हालांकि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए निर्वाचन आयोग के जांच दल निगरानी रखते हैं, पर दूर-दराज के इलाकों में उनके लिए नजर रख पाना आसान काम नहीं है। इस तरह हर चुनाव में वोटों की खरीद-बिक्री से निष्पक्ष और साफ-सुथरे चुनाव का उद्देश्य आधा-अधूरा ही रह जाता है और लोकतंत्र की शुचिता पर प्रश्नचिह्न टंक ही जाता है। पार्टियों और प्रत्याशियों से नियम-कायदों के पालन की अपेक्षा करना बेमानी होता गया है, इसलिए निर्वाचन आयोग से ही उम्मीद की जा सकती है कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए वह कोई कठोर कदम उठाए, मजबूत तंत्र बनाये। इसके लिए उसे कठोर दंडात्मक अधिकार मिलने जरूरी हैं। असली बदलाव तो आम आदमी के जागने से आयेगा, यदि वह ठान ले तो एक क्रांति घटित हो सकती है। यदि इस सन्दर्भ में हमारे कदम गलत उठते हैं, हम पैसें, शराब या अन्य प्रलोभन में आ जाते हैं या हम अपने मतदाता होने के दायित्व को ठीक नहीं निभाते हंै तो अच्छे आदमी नेतृत्व से जुड़ नहीं पाते और अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में देश का भाग्य सौंप दिया जाता है जिसका परिणाम देश की जनता ज्यादा भुगतती है। क्योंकि इन स्थितियों में हत्या, हत्या के प्रयास, भ्रष्टाचार, घोटाले और तस्करी के आरोपी-अपराधी एवं माफिया तत्व ताकतवर बन कर उभरते हैं और समाज में अराजकता फैलाते हैं।
क्या मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने खोल ली है साड़ी और बैग की दुकान ? घर पहुंच सुविधा भी हैं उपलब्ध?
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2023 इसी साल के अंत तक होने वाला है, जिसके लिए सभी दलों की तैयारियां जोरों पर हैं।राज्य में मुख्य मुकाबला दो प्रमुख पार्टियों के बीच है।ये दो दल हैं, सत्तारूढ़ कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा,2023 की शुरुआत में हुए कर्नाटक चुनाव में जीत हासिल करने से जोश में आई कांग्रेस पार्टी छत्तीसगढ़ में भी उसी प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश कर रही है।पार्टी के दिग्गज आदिवासियों की बड़ी आबादी वाले इस हरे-भरे राज्य में राज्य में एक बार फिर सत्ता में बने रहने की रणनीति तैयार करने में लगे हैं।छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यों वाली विधानसभा का चुनाव 2023 के अंत तक होने के आसार हैं। राज्य की सत्ता पर अभी कांग्रेस का कब्जा है, जो उसे बनाए रखने की पुरजोर कोशिश करेगी, दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस को कांटे की टक्कर देकर सत्ता में वापसी की कोशिशों में जुटी है। इलेक्शन कमीशन यानी चुनाव आयोग ने अब तक चुनाव की तारीखों का एलान नहीं किया है। लेकिन राज्य के राजनीतिक माहौल की सरगर्मियां हर दिन बढ़ती जा रही हैं।जो इन दिनों कोरबा में जोर शोर से देखने को मिल रहा है जी हां कोरबा विधायक जयसिंह अग्रवाल को कहीं आप भूल तो नहीं गए न? आप भूल न जाएं इसलिए नेताजी ने विशेष प्रबंध कर रखा है पहले इलाके के लोगो को अपने नाम छपे बैग बंटवा दिया बाद में किसी ने बताया कि लोग नाम से शायद न पहचाने क्योंकि पिछले कई महीनों से तो बैनर और विज्ञापनों में आपने जयसिंह अग्रवाल अपने फोटो के साथ लिखवाया है ऐसे में वो कोई और जयसिंह अग्रवाल विधायक कोरबा न समझ लें तो नेताजी ने चतुराई दिखाई थोक में 1 लाख साड़ियां मंगवाई और एक रिश्तेदार को इसके वितरण का जिम्मा दिया ताकि कोई हेर फेर न हो। भरोसे का मामला तो उनका आप सभी जानते ही हैं साड़ियों के साथ बांटे गए झोले में बकायदा जयसिंह अग्रवाल विधायक के साथ अपना फोटो डलवाना भी नेताजी इस बार नहीं भूले है। साड़ियों की कीमत केवल विधानसभा चुनाव में आपका वो बहुमूल्य वोट है जिसकी पेशगी अभी अदा की जा रही है। साड़ी से ज्यादा अच्छी क्वालिटी झोले की है। क्योंकि झोले में नेताजी की तस्वीर लगी हुई है ये साड़ियां रमन सिंह के उस स्मार्ट फोन को तरह ही है जो था तो स्मार्ट लेकिन काम करता था पूरा सपाट ?साड़ियों को झोले से निकालते ही बांटने वाले को मतदाता अच्छे शब्द कहते नहीं चूकते है।
मंत्री जी ओह फिलहाल कोरबा विधायक जयसिंह अग्रवाल जी का मैनेजमेंट भी गजब का है दुकान के नाम से साड़ियां मंगवा ली गई जो किसी भी चेकिंग पॉइंट में नहीं पकड़ी गई अब लगातार वितरण भी हो रहा है और कोई धर पकड़ नहीं हो रही है। प्रशासन के मुखबिर भी वितरण की कोई सटीक सूचना नहीं दे पा रहे है। वरना थोक के दाम में ही 40 से 60 रुपए मिलने वाली ये साड़ियां पकड़ में आने के बाद कोरबा प्रशासन का मान जरूर बढ़ता ! बीजेपी भी इसको मुद्दा नहीं बना रही है क्योंकि उनको भी आगे कुछ न कुछ वितरण तो करना ही है। इसीलिए विशाल केलकर का वो जिंगल काफी फेमस हुआ 10 का मुर्गा खाओगे तो ऐसे ही सड़क पाओगे ! साड़ियां लेने में बुराई नहीं है लेकिन मतदान किसी भी पार्टी को उनके कामों के आंकलन से करना हम सबका फर्ज बनता है। गुणवक्ताहीन साड़ियों को देख तो संगीतगार अज़ीज़ नाज़ा के कव्वाली के वो बोल याद आते है “आज जवानी पर इतराने वाले कल पछतायेगा, चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा”ज्ञात हो कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस, भाजपा राजनीतिक दलों के दिग्गज नेताओं ने एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगाते हुए चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। चुनाव जीतने से पहले नेताओं के द्वारा अनेकों लुभावने प्रोत्साहन, एवम् वादे आम लोगों को दिए जाते हैं परंतु चुनाव जीतने के बाद यह वादे और इरादे जमीनी स्तर पर मैदान-ए-हश्र में खोखले नजर आते हैं।जानकारी मिली है कि छत्तीसगढ़ राज्य के राजस्व एवं आपदा मंत्री जय सिंह अग्रवाल ने आम लोगों के घरों में झोला, साड़ी और बैग बांटने शुरू कर दिए हैं। इससे पूर्व के चुनाव दौरान आमलोगों के घरों में पैसे, 10 रुपए रसीद संबंधित मुर्गे, कंबल, साड़ी एवं अनेकों प्रकार के सामग्री बांटे गए थे। परंतु अब समूचे छत्तीसगढ़ और कोरबा जिले के छत्तीसगढ़िया मूल निवासी तथा आम लोग मंत्री जी के ऐसे उल्टे सीधे हरकतों से समझ चुके हैं कि क्यों संबंधित सामग्रियों को घरों में बांटा जा रहा। वोट मांगने के नाम पर नया फार्मूला अपनाया जा रहा है। परंतु अब सामग्रियों के बदले जनता जनार्दन के द्वारा वोट नहीं बेचा जाएगा।
चुनाव नहीं लड़ूंगा, लोग शराब और पैसे के लिए वोट देते हैं:अन्ना हजारे
अन्ना हजारे ने 28 अप्रैल 2012 को एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर वह चुनाव लड़ेंगे तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी, क्योंकि मतदाताओं को पर्याप्त जानकारी नहीं है और गांवों में लोग पैसे और शराब से प्रभावित हो सकते हैं।मौजूदा चुनाव प्रणाली में अपने विश्वास की कमी को उचित ठहराते हुए, भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता ने कहा था कि मुझे लगता है कि मुझे चुनाव लड़ना चाहिए, लेकिन अगर मैं ऐसा करता हूं, तो मैं अपनी जमानत खो दूंगा… मैं ऐसा नहीं करूंगा।हजारे इंडियन एक्सप्रेस समूह के मराठी दैनिक लोकसत्ता में आइडिया एक्सचेंज कार्यक्रम में बोल रहे थे ।हजारे ने कहा था कि ”मतदाता सतर्क नहीं हैं।” “एक जागरूक मतदाता लोकतंत्र का मूल है। गांवों में आज भी अगर लोगों के सामने 500 रुपये का नोट लहराया जाए तो वे आपको वोट देंगे, और अगर किसी शराबी को शराब देने का वादा किया जाए तो वह आपको वोट देगा।हजारे पहले भी भारतीय मतदाताओं में अपने विश्वास की कमी की बात कह चुके हैं। उन्होंने लगभग एक साल पहले भी यही बात कही थी – कि वह कभी चुनाव नहीं जीत सकते क्योंकि लोग अपना वोट “100 रुपये या शराब की एक बोतल या एक साड़ी” के लिए दे देते हैं।
क्या भारतीय वोटर पैसे लेने के बाद भी वोट नहीं देते?
आखिर भारत में एक वोटर को किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने के लिए कौन-कौन सी चीज़ें प्रभावित करती हैं? आमतौर पर उम्मीदवार की पहचान, उसकी विचारधारा, जाति-धर्म या उनके काम वोटरों को प्रभावित करते हैं।यह भी समझा जाता है कि ग़रीब वोटरों को रिश्वत देकर उनके मत प्रभावित किए जाते हैं।कर्नाटक चुनावों से कुछ दिन पहले वहां के अधिकारियों ने 136 करोड़ रुपए से अधिक मूल्य के कैश और ‘अन्य प्रलोभन’ के सामान ज़ब्त किए थे।अभी तक की यह रिकॉर्ड ज़ब्ती थी,एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि कार्यकर्ता वोटरों के खातों में पैसे ट्रांसफर कर रहे थे। ये वैसे वोटर थे जिन्होंने उनके उम्मीदावर को वोट देने का वादा किया था।
रिपोर्ट में आगे यह दावा किया गया था कि अगर उनके उम्मीवार जीतते हैं तो उन्हें और पैसे दिए जाएंगे।भारत में चुनावों के दौरान कैश और अन्य उपहारों से वोट ख़रीदने की कोशिश पुरानी है। इसका पहला कारण ये है कि राजनीति में प्रतिस्पर्धा ज़्यादा है।
साल 2014 के चुनावों में 464 पार्टियां मैदान में थीं, वहीं, स्वतंत्र भारत में 1952 में हुए पहले चुनावों में केवल 52 पार्टियां लोकतंत्र की लड़ाई में शामिल थीं।2009 में जीत का औसत अंतर 9.7 फ़ीसदी था, जो पहले के चुनावों के मुक़ाबले सबसे कम था,2014 के चुनावों में 15 फ़ीसदी के अंतर से भाजपा की जीत को बड़ी जीत कहा गया था।
अमरीका में 2012 में हुए चुनावों में हार-जीत का अंतर 32 फ़ीसदी था और ब्रिटेन में 2010 में हुए चुनावों में यह अंतर 18 फ़ीसदी का था।भारत में चुनाव अस्थिर हो गए हैं। पार्टियों का अब वोटरों पर नियंत्रण नहीं है जैसा पहले कभी हुआ करता था,पार्टी और उम्मीदवार अब चुनाव परिणामों को लेकर अनिश्चित रहते हैं,पहले ऐसा नहीं था।यही कारण है कि वो वोट को पैसों के बल पर ख़रीदना चाहते हैं, अमरीका के डर्टमाउथ कॉलेज के असिस्टेंड प्रोफ़ेसर साइमन चौचर्ड का नया शोध यह कहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि रिश्वत लेने वाले वोट दे हीं।प्रतिस्पर्धा ज़्यादा होने की वजह से ही उम्मीदवार कैश, शराब जैसे उपहार देने के लिए प्रेरित होते हैं। इसके साथ पैसे के पैकेट भी दिए जाते हैं जो कई मामलों में प्रभावी नहीं होते हैं।
डॉ. चौचर्ड तर्क देते हैं कि उम्मीदवारों को द्वंद्व में रहना पड़ता है जहां कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता है और हर कोई अपने हित के लिए काम करता है।वो कहते हैं कि उन्हें डर होता है कि उनके विरोधी पैकेट बाटेंगे,वो इसे ख़ुद बांटते हैं ताकि विरोधियों की रणनीति का मुक़ाबला किया जा सके।
समाज के प्रभावशाली लोग बांटते हैं पैसे-शराब?
प्रोफ़ेसर चौचर्ड और उनकी टीम ने मुंबई में 2014 में हुए विधानसभा और 2017 में हुए नगर निगम चुनावों में डेटा और सूचनाओं को जुटाया था।
उन्होंने इसके लिए बड़ी पार्टियों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बात की थी उन्होंने पाया कि उम्मीदवार इलाक़े और समाज के प्रभावशाली लोगों को पैसे और शराब बांटने के लिए देते हैं।उम्मीदवारों में से कुछ ऐसे उम्मीदवार भी थे जो हर वोटर पर एक हज़ार रुपए तक ख़र्च कर सकते थे।पार्टी के कार्यकर्ताओं ने शोधकर्ताओं से कहा कि पैसे के पैकेट कमोबेश समान होते हैं।अधिकतर पैसे वोटरों के पास नहीं पहुंच पाते हैं क्योंकि बांटने वाले ख़ुद पैसे रख लेते हैं।चुनाव में सबसे अधिक ख़र्च करने वाला उम्मीदवार चौथे नंबर पर रहा था। सभी पार्टियों के क़रीब 80 कार्यकर्ताओं ने शोध करने वाली टीम को बताया कि कैश और उपहार बहुत कम लोगों को प्रभावित कर पाया था।प्रोफ़ेसर चौचर्ड कहते हैं कि वोटरों को पैसा देना पूरी तरह व्यर्थ नहीं जाता है।आपको वोट नहीं मिलेंगे अगर आप ऐसा नहीं करते हैं।इससे आपको मैदान में बने रहने में मदद मिलती है।आप हार सकते हैं अगर आप उपहार नहीं बांटते हैं तो,अगर मुक़ाबला ज़्यादा कड़ा है तो यह मामले को एकतरफ़ा कर सकता है।
वोटर की उम्मीद
राजनीति विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि पार्टियों को यह लगता है कि वो ग़रीब लोगों के वोट पैसे के दम पर ख़रीद सकते हैं।यही कारण है कि वो वोटरों को रिश्वत देते हैं। सभी पार्टियां वोटरों पर पैसा खर्च करती हैं ताकि जो उनके वोटर नहीं हैं, उन्हें अपने पक्ष में लाया जा सके।सामजाकि वैज्ञानिकों को कहना है कि दक्षिण एशिया में ग़रीब मतदाता अमीर उम्मीदवारों की सराहना करते हैं. एक ग़ैरबराबरी समाज में रिश्वत और उपहार परस्पर का भाव पैदा करते हैं।भारत में संरक्षण की राजनीति का एक लंबा इतिहास है।कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान के जानकार अनस्तासिया पिलियावस्की ने राजस्थान के ग्रामीण इलाक़ों में वोटरों का अध्ययन किया और पाया कि वो उम्मीदवारों से खाने और पैसे की उम्मीद रखते हैं।वो मानती हैं कि ग्रामीण भारत में चुनावी राजनीति अक्सर परंपरागत सोचों पर आधारित होते हैं।उन्होंने पाया कि चुनावों का मूल मंत्र “दाता-नौकर के बीच का संबंध था, जिसमें सामानों का आदान-प्रदान किया जाता है और शक्ति का उपयोग होता है।चुनाव अधिकारियों की आंखों से बचने के लिए उम्मीदवार नक़ली शादी और जन्मदिन की पार्टियां देते हैं, जिसमें अनजान लोग, मतदाता के खाने-पीने और उपहार की व्यवस्था की जाती है।लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में समाज विज्ञान की प्रोफ़ेसर मुकुलिका बनर्जी के मुताबिक़ ग़रीब मतदाता “उन सभी पार्टियों से पैसा लेते हैं जो इसकी पेशकश करते हैं पर वोट उन्हें नहीं देते हैं जो ज़्यादा पैसा देते हैं बल्कि अन्य बातों का ख़्याल रखकर देते हैं।