वोट के भिखारी चुनाव जीतने के बाद नहीं लेते सुध?आजादी के 75 वर्ष बाद भी मौत के साये में शिक्षा?

पुल न होने से जान जोखिम में डालकर उफनती नदी पार कर स्कूल जाने को छात्र,छात्राएं हैं मजबूर।

प्रकाश कुमार यादव
रायपुर (गंगा प्रकाश):-
एकतरफ देशभर में आजादी के 75वें वर्षगांठ के उपलक्ष्य में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ आज भी छत्तीसगढ राज्य गठन के 23वर्ष बाद भी सक्ती जिले के कई गांव ऐसे हैं जहां के वाशिंदे मूल भूत सुविधाओं से वंचित है और समस्याओं से जकड़े हुए हैं। यहां सड़क-पानी-बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं तक नहीं पहुंच सकी हैं। ऐसा ही नवीन जिले सक्ती के ग्रामीण इलाके के गांव के लोग विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं। जंहा के लोग वर्षों से समस्याओं से जूझ रहे हैं। इन्हें सुलभ जीवनयापन के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। उन्हें मताधिकार तो मिला है लेकिन इसका फायदा चुनाव लड़ने वालों तक सीमित है। चुनाव जीतने के बाद सरपंच से लेकर विधायक-सांसदों को इस गांव की बेहतरी के लिए समय नहीं मिला। ये हालात यकायक नहीं बने, बल्कि आजादी के बाद से ही उपेक्षा का दंश इस गांव के लोग भोगते आ रहे हैं। ग्रामीणों के अनुसार इस गांव में न तो पेयजल की उपलब्धता के लिए कोई सरकारी योजना संचालित है, न ही गांव से शहर की ओर जाने के लिए पक्का मार्ग ही यहां निर्मित हो सका है। इसके अलावा उनका जीवन नरक समान है। यदि किसी घर में कोई बीमार पड़ जाए तो यहां पर एंबुलेंस आदि का आना नामुमकिन है। ग्रामीण ही अपने बीमार स्वजन को चारपाई पर लेटाकर उसे कांधे पर रखकर शहर की ओर भागते हैं। बात करने पर ग्रामीणों का आक्रोश भी सामने आ जाता है। उनके अनुसार देश की आजादी को भले ही 75 साल का वक्त हो गया हो लेकिन उन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिला है।वे आज भी समस्या रूपी गुलामी में जीने को विवश हैं। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ व केंद्र सरकार द्वारा दर्जनों योजनाएं चलाई जा रहीं हैं। ग्राम विकास के दावे किए जा रहे हैं लेकिन इसका लाभ भी गांव के लोगों को नहीं मिला है। ग्रामीणों के अनुसार ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों से लेकर जनपद तक के जिम्मेदारों को यहां के हालातों के बारे में पता है। इसे लेकर कई बार शिकायतें की गईं, राहत मांगी गई लेकिन हुआ गया, कुछ नहीं। प्रशासनिक अधिकारी समस्याओं पर तमाशबीन बने हुए हैं। जनप्रतिनिधियों की तरह अधिकारी भी सिवाय कोरी घोषणाएं करने के अलावा कोई राहत नहीं दे सके हैं।

पुल न होने से उफनती नदी पार कर स्कूल जाने को बच्चे मजबूर

ज्ञातव्य हो कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव का समय नजदीक है।विकास के नाम पर नेता वोट रूपी भीख मांगने घर घर दस्तक देंगे?जैसा कि हर चुनाव में होता चला आ रहा है,लेकिन विकास कितना हुआ,लोगों को कितना फायदा हुआ ये धरातल पर उतरने पर ही पता चलता है। ऐसे ही विकास की हकीकत नवीन जिले सक्ती के जैजैपुर विधानसभा में देखने को मिल रहा है। यहां के एक गांव में नदी में पुल नहीं होने की वजह से स्कूली बच्चों और ग्रामीणों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।और अब हालत ऐसे हो गए हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने को डरते है। क्योंकि जन्हा बच्चों को स्कूल जाने के लिए नदी में बने स्टाप डेम पर कूदते, छालांग लगाते हुए जाना पढ़ता है। हम बात कर रहें है। जनपद पंचायत जैजैपुर के ग्राम पंचायत गाड़ामोर की आश्रित ग्राम जुनवानी की जहां बच्चो को बरसात के दिनो मे गांव के नजदीक से बहती हुई बैजन्ती नाला को पार कर गांव से तीन किलो मीटर दूर हरेठीखुर्द स्थित हाई स्कूल पढ़ने जाने को मजबूर है। वही पलको का कहना है। कि वैजन्ती नाला में पुल नही होने के कारण बच्चों को नदी पार करने के दौरान हादसे का डर बना रहता है।गौरतलब हो कि छत्तीसगढ़ के गठन के 23 वर्षों में चार बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं।जिसमे लगातार पंद्रह वर्ष भाजपा की सरकार रही। तो वर्तमान में कांग्रेस की सरकार पांच वर्ष पूर्ण करने में कुछ ही माह शेष है। वही जैजैपुर विधान सभा में लगातार दस वर्षो से बसपा के विधायक है। लेकिन इन दस वर्ष में वैजन्ती नाला में पुल पुलिया का निर्माण नही हो सका जिसके कारण क्षेत्र के जनता परेशान है।अब फिर विधान सभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए प्रत्याशी बड़े-बड़े दावे तो करते रहे लेकिन विधायक बनने के बाद अपने सभी दावे भूल गए।ऐसा सक्ती जिले के जैजैपुर जनपद क्षेत्र के गाड़ामोर, जुनवानी के निवासी कह रहे है। जो लंबे समय से वैजन्ती नाला में एक पुल बनाने की मांग कर रहे हैं। हर बार आश्वासन तो मिलता है, लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। आलम यह है कि इस क्षेत्र के बच्चों को बरसात के मौसम में अपनी जान जोखिम में डालकर उफनती नदी को पारकर स्कूल जाना पड़ता है। हाई स्कूल के बच्चे कई बार दुर्घटना के शिकार भी हो चुके हैं लेकिन स्थानीय जनप्रतिनिधि अपनी आंख बंद किए हुए हैं। सिर्फ स्कूली छात्र ही नहीं बल्कि स्थानीय ग्रामीण भी मजबूरन उफनती नदी को पैदल पार कर आवश्यक कार्यों को लेकर जाने के लिए मजबूर होते हैं। दरअसल सक्ती जिले के जैजैपुर विकासखंड में स्थित जुनवानी गांव से हरेठी खुर्द के बीच नदी पड़ता है। जुनवानी गांव में केवल प्राथमिक स्कूल ही संचालित होती है जबकि हाई और हायर सेकेंडरी स्कूल के लिए जुनवानी से तीन किलो मीटर दूर ग्राम पंचायत हरेठीखुर्द में पढ़ने जाना पढ़ता है।और बच्चों को स्कूल तक आने के लिए केवल नदी में बने स्टाप डेम पर उछल कूद कर जाना ही मात्र एक सहारा है।

किसने क्या कहा

मुख्य मंत्री की घोषणा में शामिल किया गया है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है।आज तक प्रशासकीय स्वीकृति नही मिल पाया, जिसके कारण निर्माण कार्य चालू नही हुआ है।

निर्मल सिन्हा
प्रदेश उपाध्यक्ष भाजपा

इस संबंध में मुझे कोई जानकारी नहीं है। मैं उस रास्ते से आना जाना नही किया हूं जुनवानी व हरेठीखुर्द भी गया हूं।लेकिन कभी मेरे पास वैजन्ती नाला में पुल पुलिया की मांग नही किया गया है।

केशव प्रसाद चंद्रा
विधायक जैजैपुर

यह क्षेत्रीय विधायक की कमजोरी है। जिसके कारण नदी ,नाले में पुल व सड़क का निर्माण नही हो सका है। इसके संबंध में मैं मंत्री जी को खत लिखता हूं

चोलेश्वर चंद्राकर
प्रदेश अध्यक्ष कांग्रेस पिछड़ा वर्ग

हमारे जुनवानी से बच्चे हरेठीखुर्द पढ़ने जाते है। जिसमे स्टाप डेम बना हुआ है।उसमे पुलिया निर्माण के लिए कलेक्टर को आवेदन दे चुका हूं ,स्थानीय विधायक को भी बोल चुका हूं और ग्राम ओडेकेरा में जनसमस्या शिविर में भी आवेदन दिया हूं लेकिन आज तक शासन प्रशासन ध्यान नहीं दे रहे है। जिससे बच्चों को स्कूल आने जाने में परेशानी होता है।

सरपंच प्रतिनिधि
ग्राम पंचायत गाड़ामोर,जुनवानी

वोट के भिखारी नही लेते सुध?कंधों में भविष्य और हथेली में जान लिये नदी पार कर बच्चे जाते हैं स्कूल

छत्तीसगढ़ में इन दिनों सियासी हवाएं तेज हो गई है, चारों तरफ राजनीति दलों के नेता विकास की गाथा बयां करते नजर आ रहें है। लेकिन इसी विकास की गंगधारा के बीच दूसरी ऐसी तस्वीर बस्तर से सामने आ गई, जिससे विकास के सारे दावों की पोल खुल गई। आज के इस दौर में जब हम विकास की बात करते हैं और हालात ऐसे हों कि आपके हमारे बच्चों को नदी पार कर रोजाना स्कूल जाना पड़े या पड़ोसी गांव की पंचायत में बने स्कूल तक पहुंचने में साधन न हो तो ऐसा विकास किस काम का है।

केशकाल विधानसभा क्षेत्र के अंदरूनी गांव का मामला

बताते चले कि कोण्डागांव जिले के केशकाल विधानसभा क्षेत्र के अंदरूनी क्षेत्र के ग्राम पंचायत परोदा के बच्चे जान जोखिम में डालकर स्कूली बच्चे स्कूल चलें हम, चलते चले हम नारे को बुलंद कर रहें हैं। इनके जज़्बे को सलाम करने का हर किसी का दिल चाहेगा। हाथों में चप्पल और कंधे पर बैग लिए ये बच्चे पढ़ने के लिए रोजाना इसी तरह से स्कूल जाते हैं। अभिभावकों को रोज इनके लौटने तक डर बना रहता है कि उनका बच्चा सही सलामत घर वापस लौट आए।

गांव में है केवल प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय

ऐसा नहीं कि इन बच्चों के लिए पंचायत में स्कूल नहीं है, लेकिन जो स्कूल है वो सिर्फ प्राथमिक व माध्यमिक स्कूल है और हाई एंव हायर सेकंडरी सहित आत्मानंद स्कूल के बच्चें बगल की पंचायत कोनगुड़ में बने स्कूल में पढ़ने जाते हैं। इस बीच उन्हें कोंनगुड़ नदी को रोजाना पार करना पड़ता है, तस्वीरें जिले के विकासखंड फरसगांव के ग्राम पंचायत परोदा का है। जहां परोदा गांव के कई बच्चे रोजाना जान जोखिम में डालकर स्कूल में पढ़ाई करने के लिए विवश हैं।

नदी पर पुल निर्माण की मांग

ग्रामीण मनोज कुमार बघेल, संतोष बघेल, चेतेश मरापी, शोमनाथ शोरी,रमेश शोरी, मनकिशोर बघेल,  राजकुमार मंडावी, रामेश्वर पोटाई, महेंद्र मंडावी सहित अन्य ग्रामीणों का कहना है कि ग्राम परोदा से पुलिया निर्माण होने पर कोनगुड़ डेढ़ किमी की दूरी है वही अगर घूम कर जाया जाए तो 12 से 15 किमी दूरी तय करना पड़ता है। वर्षों से इस नदी पर पुलिया निर्माण के लिए हमने कई आवेदन दिए। स्थानीय विधायक के जाकर गुहार लगाई लेकिन आज तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकला। बच्चों को पढ़ना जरूरी तो है, लेकिन कई प्रकार के खतरे उन्हें इस बात की आज्ञा नहीं देते हैं कि वह अपने बच्चों को स्कूल भेजें। ग्रामीण चाहते हैं कि गांव से स्कूल जाने के रास्ते में पक्की सड़क और नदी पर पुल का निर्माण हो जाये। जिससे बच्चों को स्कूल जाने में कोई परेशानी न हो। ग्रामीणों का कहना है कि बच्चों का भविष्य बेहतर हो यह उनकी भी चिंता है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार को इससे बहुत ज्यादा लेना देना नहीं रह गया है।

आजादी की 75वीं सालगिरह : तमाशा वे दिखा रहे हैं जो तमाशबीन भी न थे?

विडम्बनाओं के इतिहास बने या न बने, इतिहास में विडम्बनाएं अक्सर आती-जाती रहती हैं और यदाकदा खुद को दोहराती भी रहती हैं। भारत की आजादी की 75वीं वर्षगाँठ का मुबारक मौके पर दिख रही विसंगति इसका एक ताजा उदाहरण है — यहां आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का तमाशा वे दिखा रहे हैं, जो भारत की जनता द्वारा लड़ी गयी आजादी की महान लड़ाई में तमाशबीन भी नहीं थे – उसकी सुप्त कामना भी उनके मन में नहीं थी। अलबत्ता सारे दस्तावेज गवाह हैं कि वे और उनके पुरखे इस महान स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ थे ; 190 वर्ष भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी राज के चाकर और ताबेदार थे।

जिस संगठन – आरएसएस – का निर्माण ही आमतौर से 1857 और खासतौर से प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के काल के जनांदोलनों में बनी और रौलट एक्ट, असहयोग, खिलाफत से मजबूत हुयी विभिन्न धर्मावलम्बियों खासकर हिन्दू-मुस्लिम फौलादी एकता को तोड़ने के मकसद से हुआ है ; जो संगठन जोतिबा फुले के सत्यशोधक समाज के जबरदस्त आंदोलन और तेजी से उभरे दलित जागरण से “हिन्दू समाज की रक्षा” के लिए इटली के मुसोलिनी से गुरुमंत्र और जर्मनी के हिटलर से प्रेरणा लेकर आया हो ; जिसका भारत की आजादी की लड़ाई में रत्ती भर का योगदान नहीं हो, आज वही आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने खुद के चेहरे पर पुती कालिख को जगमग सफेदी बताने की असफल कोशिशों में जुटा है। मगर कालिख इतनी गाढ़ी है कि सारे तामझाम के बावजूद धुल नहीं रही।
ऐसा नहीं कि जतन में कोई कसर है। सारे घोड़े और खच्चर खोल दिए गए हैं। पहले देश की कथित नामचीन हस्तियों – सेलेब्रिटीज – को साम-दाम-दण्ड भेद से अपनी रेवड़ में दाखिल किया गया। फिर लेन-देन के सौदे के साथ कार्पोरेट्स को साझीदार बनाया उनकी अंधाधुंध कमाई की एवज में उनके मीडिया के जरिये मोदी को न भूतो न भविष्यतः महामानव साबित करने की अंधाधुंध मुहिम छेड़ी गयी। इससे भी काम नहीं बना, तो इसी के साथ पटेल और शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस और अम्बेडकर और न जाने कितने औरों को पिता के रूप में गोद लेने की तिकड़में रचीं। इस बीच इसी के साथ नेहरू, गांधी और कम्युनिस्टों पर झूठे आरोपों का तूफ़ान-सा लाकर स्वतंत्रता संग्राम के उन बुनियादी मूल्यों को ध्वस्त करना चाहा – जिनकी बुनियाद पर भारत एक देश बना है।
कुपढ़ों के गिरोह को इतिहास बदलने और उसकी जगह झूठा और कल्पित इतिहास रचने के काम पर लगा दिया। करोड़ों फूंक कर झूठ से अधिक खतरनाक अर्धसत्य की कीच फैलाने वाली फिल्मो का ताँता सा लगा दिया। धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों का नारा देने वाले, भारत विभाजन के पहले सिद्धांतकार और खुद को रानी विक्टोरिया की सेवा के लिए उत्सुक तत्पर चाकर के रूप में सदैव हाजिर और प्रस्तुत रहने के माफीनामे लिखने वाले सावरकर को वीर बताने के लिए दुनिया इधर से उधर कर दी। मगर कलंक इतना पक्का चिपका है कि सारे धत्करमों के बावजूद उसे छुड़ाना संभव नहीं हो पा रहा है। छूटे भी तो आखिर छूटे कैसे, आदतें, कारनामे और दिशा वही है, तो मुखौटे कितने भी लगा लें, शक्ल तो वही रहेगा ना!
कहते हैं कि पुरानी आदतें मुश्किल से जाती हैं, जन्मजात विकार तो लाख उपाय करने के बाद भी नहीं जाते। आजादी के अमृत महोत्सव के इन स्वयंभू उतसवियों का भी यही हाल है। लड़ाई अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ी गयी थी – इनके विमर्श और प्रचार में अंगरेजी राज, अंग्रेजों की लूट, डकैती की तरह से हड़पी गयी भारतीय जनता की विराट सम्पदा से चमचमाता ब्रितानी ऐश्वर्य नहीं है। उस जमाने में हुए अत्याचार और नरसंहार नहीं है। भारत को दो सैकड़ा वर्ष पीछे धकेल देने की अंग्रेजों की वह आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक आपराधिक हरकत नहीं है, जिसके लिए खुद ब्रिटिश समाज और इतिहासकारों ने कम्पनी और वायसरायों के राज की निंदा और भर्त्सना की है, आज भी कर रहे हैं। उनका पूरा कुप्रचार मुगलों के खिलाफ है।
इसे कहते हैं, राजा से भी ज्यादा वफादार बनने की शेखचिल्लियाना कोशिश। मगर मसला यहीं तक नहीं है – स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने पर भाजपा सहित आरएसएस की सारी भुजायें उसी एजेंडे को लागू करने पर आमादा हैं, जिसे भारत की जनता की एकता को बिखेरने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें सौंपा था।
मुसलमानों के खिलाफ नफरती अभियान और उनके साथ सरासर गैरकानूनी और अलोकतांत्रिक बर्ताव सावरकर के उसी द्विराष्ट्रवाद पर अमल है, जिसे उस जमाने में बाद में जिन्ना ने लपक लिया था और मौके का फायदा उठाकर अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने भारत पर विभाजन थोप दिया था। इसी जहर को आगे तक फैलाने के लिए पिछली बार मोदी ने हर साल 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का आव्हान किया था। जाहिर है इसके माध्यम से दोनों तरफ सूख चुके घाव हरे किए जाएंगे।
आठ अप्रैल, 1929 को क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में जिन दो कानूनों – मजदूरों को बेड़ियों में जकड़ने वाले ट्रेड डिस्प्यूट बिल और सरकार के विरोध को रोकने के लिए लाये जाने वाले पब्लिक सेफ्टी एक्ट – के लाये जाने के खिलाफ बम फेंके थे, उनसे ज्यादा बदतर क़ानून सारे श्रम क़ानून समाप्त करके चार लेबर कोड लाने के जरिये लाये जा चुके हैं। भारतीय जनता के लोकतांत्रिक प्रतिरोध को कुचलने के लिए, सरकार विरोधी आवाजों को खामोश करने के लिए सत्ता के सारे अंग और निकाय झोंके जा रहे हैं।
भारत में दो-दो अकाल लाने, खेती को बर्बाद कर देने वाली अंग्रेजों जैसी नीतियां अब अमरीकी अगुआई वाले साम्राज्यवाद के कहने पर लाई जा रही हैं। किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने इसे फिलहाल भले ठहरा दिया हो, तिकड़में और साजिशें जारी हैं। विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों से भारत को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भी डर लगता था। भारत की जनता ने अपने पैसे से ही उस वक़्त शिक्षा के विस्तार के जरिये खोले थे – संघ-भाजपा ठीक अंग्रेजों के दिखाए रास्ते पर चलकर शिक्षा को हर तरह से जनता की पहुँच से बाहर और अंधविश्वासी बना देने के इंतजाम कर रही है। अमृत महोत्सव का तमाशा इसी प्रहसन का एक और अंक है।
निर्लज्ज दीदादिलेरी की हद यह है कि अपने इन आपराधिक कामों में वह तिरंगे सहित राष्ट्रीय प्रतीकों का ही इस्तेमाल कर रही है। वह तिरंगा, जिसे आरएसएस ने कभी भारतीय ध्वज नहीं माना, उसके तीन रंगों को अशुभ और उसमें बने चक्र को अभारतीय बताया, जिसे आजादी के बाद के 52 वर्षों तक उसने कभी नहीं फहराया, जिसने भारत के संविधान का विरोध किया और आजाद भारत का राज मनुस्मृति के आधार पर चलाने की मांग की, जिसने स्वतन्त्रता प्राप्ति के दिन 15 अगस्त 1947 को देश भर में काले झण्डे फहराने का आव्हान किया, नाथूराम गोडसे सहित जिससे जुड़े लोगों ने आजादी मिलने के पांच महीनो के भीतर ही महात्मा गांधी की हत्या करवा के स्वतंत्र राष्ट्र को अस्थिर करने की कोशिश की ; आज वही राष्ट्रवाद और देशभक्ति का शोर मचाकर एक कुहासा खड़ा कर देना चाहते हैं, ताकि इस कुहासे की आड़ में में देश और जनता की सम्पत्तियों की देसी-विदेशी धनपिशाचों द्वारा लूट और भारत को मध्ययुग में धकेलने के कुचक्र रचे जा सकें।
अच्छी बात यह है कि भारत की जनता के विराट बहुमत ने इस विडम्बना को समझना शुरू कर दिया है। मगर सारे संचार और प्रचार तंत्र पर इसी गिरोह के एकांगी वर्चस्व के चलते यह काम आसान नहीं है। यूं भी “सच जब तक जूते के फीते बांध रहा होता है, तब तक झूठ पूरे शहर में घूम आया होता है” की कहावत से सीखकर असली सच को जोर-शोर से जनता में ले जाने की जरूरत है।
देश की मेहनतकश जनता के करीब तीन करोड़ सदस्यता वाले तीन प्रतिनिधि संगठनों अखिल भारतीय किसान सभा, सीटू और अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन ने इस जरूरत को समझा है और आजादी की 75 वीं सालगिरह के पखवाड़े में स्वतन्त्रता आंदोलन में आरएसएस की गद्दारी को जनता के बीच ले जाने का अभियान चलाने का फैसला लिया है।
-वर्ष 1947 में अगस्त महीने की 14 तारीख की रात 12 बजे आजादी का एलान करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने “नियति के साथ करार” (ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी) के नाम से प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि “आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो महज एक कदम है, नए अवसरों के खुलने का, इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। क्या हममें इतनी शक्ति और बुद्धिमत्ता है कि हम इस अवसर को समझें और भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करें?”

वे इसे और ठोस रूप देते हुए बोलते हैं कि ; “भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा करना। इसका मतलब है गरीबी और अज्ञानता को मिटाना, बीमारियों और अवसर की असमानता को मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर एक आँख से आंसू मिट जाएँ। शायद ये हमारे लिए संभव न हो, पर जब तक लोगों की आँखों में आंसू हैं और वे पीड़ित हैं, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।”
और यह भी कि “भविष्य हमें बुला रहा है। हमें किधर जाना चाहिए और हमारे क्या प्रयास होने चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानो और कामगारों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम गरीबी, अज्ञानता और बीमारियों से लड़ सकें, हम एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश का निर्माण कर सकें, और हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना कर सकें, जो हर एक आदमी-औरत के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके। ” .
इस आजादी और इस भाषण दोनों की 75 वी सालगिरह के दिन देश के मजदूर-किसान यह पड़ताल करेंगे कि उस रात भाषण में जो कहा गया था, वह कितना हुआ? नहीं हुआ, तो क्यों? और अब होगा, तो कैसे?
शायर फ़ज़ल ताबिश ने कहा था कि : “रेशा रेशा उधेड़कर देखो, रोशनी किस जगह से काली है।” स्वतन्त्रता की 75वीं सालगिरह के मौके पर फैलाई जा रही कृत्रिम चकाचौंध में अपने अपराधों को छुपाने की कोशिश करती कालिमा के रेशे-रेशे को उधेड़ कर ही अन्धेरा लाया और बचाया जा सकता है।
मजदूर-किसानों के यह तीनों संगठन पखवाड़े भर के अभियान के बाद 14 अगस्त 2022 की रात 12 बजे भारत के मजदूर किसान शहीदे आज़म भगत सिंह के कहे कि ”मैं ऐसा भारत चाहता हूं, जिसमें गोरे अंग्रेजों का स्थान हमारे देश के काले दिलों वाले भूरे या काले-अंग्रेज न लें। मैं ऐसा भारत नहीं देखना चाहता, जिसमें सरकार और उसे चलाने वाले नौकरशाह व्यवस्था पर प्रभावी बने रहें।” को दोहराते हुए संकल्प लेंगे कि इस लक्ष्य को हासिल करने के मंसूबे बनाएंगे। कुल जमा ये कि स्वतन्त्रता के 75वें साल में “हम भारत के लोग” उन्हें बेनकाब करेंगे, जो तब भी उपनिवेशवाद और जुल्मियों के साथ थे, आज भी साम्राज्यवाद और कूढ़मगजी के साथ हैं।

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