

कोजागरा पर्व मिथिला एवं बंगाल में मुख्य रूप से मनाया जाता है। जिसे भगवान श्रीराम के समय से ही मनाया जाता है। भगवान श्री राम का कोजगरा मिथिला के राजा जनक द्वारा किया गया था तब से यह पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा को मिथिला में कोजगरा के रूप में मनाया जाता है। मिथिला जहां भगवान राम का ससुराल है उसी समय से ही चल रहा है।
इस पूर्णिमा का मिथिला व बांग्ला समाज में विशेष महत्व होता है। इस रात दोनों समाज में कोजागरा पूजा मनाई जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। जहां मिथिलांचल में इस पूजा को कोजगरा के नाम से जाना जाता है। मिथिला समाज में इस दिन नवविवाहित वर के यहां लड़की वालों के घर से आए भार को बांटने की परंपरा है। वहीं बंगाली समाज में लोग सुबह से निर्जला व्रत रख संध्या को मां लक्ष्मी की विशेष पूजा करते हैं।
मिथिला की लोक संस्कृति में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसकी शुरुआत त्रेतायुग में राजा जनक द्वारा हुई थी। पहला कोजगरा भगवान श्री राम के लिए राजा जनक ने की थी। जनक राजा ने राम व सीता के लिए कोजगरा की पूजा कर अपने यहां से राम के लिए पान, केला, मखान, लड्डू आदि भार के रूप में भेजा था। तब से लेकर आज तक ये पर्व कोजगरा के रूप में मनाया जा रहा है। नवविवाहित वर-वधू की सुख-शांति के लिए की जाती है ये पूजा: निशा बताती हैं कि इस दिन घर में विवाह के जश्न जैसा माहौल रहता है। ये पूजा करने से नए वर-वधू के जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। इस दिन लड़की वालों के पक्ष से लड़के के परिवार के लिए कपड़ा, खाजा, चूड़ा, दही, मखाना, पान, बताशा आदि उपहार के रूप में दिया जाता है। इसे ही भार कहा जाता है। इसके बाद लड़के के पिताजी उस भार को चंगेरा (डाली) में भरकर पूरे मोहल्ले में बांटते हैं। जीजा अपने साले के साथ खेलता है पच्चीसी: वर को ससुराल से आए कपड़े पहनाने के बाद महिलाएं वर का चुमावन करती हैं। चुमावन के बाद वर अपने साले के साथ पच्चीसी का खेल खेलता है। इस खेल में हारने वाला जीतने वाले को उपहार देता है। इस दौरान मैथिली गीत-संगीत की महफिल भी सजती है।
बंगाली समुदाय में निर्जला व्रत कर मां लक्ष्मी की होती है पूजा: बंगाली समुदाय में इस बार कोजागरा पूजा गुरुवार को मनाया जा रहा है। इस दिन विशेषकर महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। वर्द्धमान कंपाउंड की रहनेवालीं नीलिमा मुखर्जी के मुताबिक हम सुबह से ही घर की साज-सज्जा में लग जाते हैं। इस दिन हम घर के आंगन में अल्पना बनाते हैं। व्रत के दौरान हम मां के लिए भोग बनाते हैं। भोग में खिचड़ी, खीर, हलवा-पूरी विशेष रूप से बनाई जाती है। इस पर्व को हम दीपावली की तरह मनाते हैं। पूरे घर को दीयों से जगमग करते हैं। विवाहिता को सिदूर व आलता लगाया जाता है: सारा दिन उपवास रखने के बाद संध्या में माता लक्ष्मी की पूजा होती है। पूजा के समापन के बाद महिलाओं में सिदूर व आलता दान किया जाता है। इसके घर आई विवाहिताओं को सिदूर व आलता लगाया जाता है। नीलिमा बताती हैं कि सिदूर व आलता सौभाग्य का प्रतीक है। ऐसे में महिलाओं के सौभाग्य के लिए उन्हें आलता व सिदूर लगाया जाता है।
मिथिला संस्कृति का पर्व कोजागरा , जिसे भगवान श्रीराम के समय से ही मना जाता है।
कोजागरा पूर्णिमा को ‘बंगाल लक्ष्मी पूजा’ या शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। देवी लक्ष्मी को समृद्धि की देवी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि ‘अश्विन पूर्णिमा’ के दिन, देवी भक्तों को समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद देने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती हैं। कोजगरा का एक महत्वपूर्ण अर्थ है क्योंकि इसका मतलब है कि कौन जाग रहा है? ऐसा माना जाता है कि पूर्णिमा के दिन देवी लक्ष्मी हर घर में आती हैं और उन्हें धन, भाग्य और बेहतर भाग्य का आशीर्वाद देती हैं। कोजागोरी पूर्णिमा नवान्न या कटाई के त्योहार या मौसम के साथ मेल खाती है। यह भी एक आम धारणा है कि भक्त देवी लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए छतों या बालकनियों पर दीपक, मिट्टी या बिजली के दीपक जलाते हैं।
कोजगरा के बारे में दो लोककथा है कि कोजागरा व्रत की शुरुआत हुई थी। लोककथाओं के अनुसार, मगध का एक दुर्भाग्यशाली ब्राह्मण वलित एक धार्मिक और पवित्र व्यक्ति था, जिसने अपनी पत्नी महाचंडी के गरीब होने के कारण तंग आकर पूर्णिमा को घर छोड़ दिया था। जंगल में भटकते समय, उनका सामना 3 नाग-कन्याओं से हुआ जो लक्ष्मी का आशीर्वाद पाने के लिए व्रत करके देवी लक्ष्मी की पूजा कर रही थीं। उन्होंने वैलित को जागते रहने के लिए उनके साथ पासे का खेल खेलने के लिए कहा। देवी लक्ष्मी, जो निगरानी में थीं, ने वलित को देखा और उसकी ईमानदारी और धार्मिक भाव-भंगिमा से प्रभावित हुईं। उसने उसे धन और भाग्य का आशीर्वाद दिया। इसलिए महिलाएं जागते रहने के लिए रात में देर तक पासे का खेल खेलती हैं।
लोककथा के अनुसार बंगाल के एक राजा की कहानी भी बताती हैं जो बुरे समय और आर्थिक तंगी से गुज़र रहा था। राज्य में दुर्भाग्य का राज हो गया जिससे धन और समृद्धि दूर हो गई। उनकी पत्नी ने कोजागरा व्रत किया और कोजागोरी पूर्णिमा पर देवी लक्ष्मी की पूजा की। उनके हाव-भाव से प्रभावित होकर, देवी लक्ष्मी ने उन्हें और उनके राज्य को आशीर्वाद दिया।
भक्त घरों या पंडालों में देवी लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करके देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं। कोजागरा पूजा अनुष्ठान समुदाय-दर-समुदाय में भिन्न-भिन्न होते हैं। देवी को ‘खिचुरी,’ ‘तालेर फोपोल,’ ‘नार्केल भाजा,’ ‘नारू’ और कुछ मिठाइयाँ जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। महिलाएं मुख्य द्वार के सामने अल्पना बनाती हैं। ‘अल्प्लाना’ देवी लक्ष्मी के पैरों का प्रतीक है। भक्तों का मानना है कि इस दिन देवी लक्ष्मी हर घर में आती हैं और जागने वालों को आशीर्वाद देती हैं। इसलिए, वे रात्रि जागरण करते हैं और भजन और कीर्तन गाते हुए समय बिताते हैं। स्वागत के तौर पर लोग अपने घरों को रोशनी से जगमगाते हैं। देवी लक्ष्मी को समर्पित मंत्रों और स्तोत्रों का जाप करना शुभ माना जाता है। कोजागरा पूजा के दौरान महिलाएं व्रत भी रखती हैं। पूजा पूरी करने के बाद रात में देवी लक्ष्मी को चावल और नारियल पानी चढ़ाकर व्रत खोला जाता है।