जरा याद उन्हें भी कर लो जोकारसेवक लौट के घर न आए?

तत्कालीन मुलायम सरकार की गोलीबारी से जब खून से लाल हो गयी थी अयोध्या में सरयू नदी?

नई दिल्ली (गंगा प्रकाश)। मुलायम सिंह यादव अपने जीवन के 82 साल पूरे करके 10 अक्टूबर को परलोक चले गये। लेकिन भारत में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो मुलायम सिंह को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। मुलायम सिंह यादव के नाम दो ऐसे कुख्यात गोलीकांड दर्ज हैं जो कभी भुलाये नहीं जा सकते।
पहला गोलीकांड 2 नवंबर 1990 का, जब मुलायम सिंह यादव के आदेश पर अयोध्या में निहत्थे रामभक्तों पर गोलियां चली थीं और दूसरा गोलीकांड है उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर जब 2 अक्टूबर 1994 को उन्होंने मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर गोलियां चलवा दी थी।

मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते इस दोहरे गोलीकांड का असर इतना गहरा है कि आज भी बहुत बड़े वर्ग को उसकी टीस बनी हुई है। इसमें हम चर्चित अयोध्या गोलीकांड को देखते हैं कि आखिर उस दिन अयोध्या में हुआ क्या था?

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुलायम

राजनीति का यह भी अजीबो गरीब संयोग ही था। मुलायम सिंह यादव उस वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जिनके मुख्यमंत्री रहते वो इटावा से साइकिल पर चलकर दिल्ली आये थे। ऐसा किसी रैली के कारण नहीं किया था।

असल में वीपी सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते चंबल के डाकुओं के खिलाफ एक अभियान चलाया था। मुलायम सिंह यादव पर आरोप था कि वो डाकू छविराम को संरक्षण दे रहे थे। उन्हें डर था कि उन पर भी पुलिस कार्रवाई न हो जाए, इसलिए पुलिस कार्रवाई से बचने के लिए रातों रात भागकर दिल्ली आ गये थे।

मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल की दो तिथियां उनके जीवन से ऐसी जुड़ी कि वो मुलायम सिंह यादव से मुल्ला मुलायम हो गये। 30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को उन्होंने अयोध्या में कारसेवकों पर खुलेआम गोली चलाने का आदेश दिया था। मुलायम सिंह यादव के आदेश पर हुए इस गोलीकांड में कितने कारसेवक मारे गये इसका सही आंकड़ा कभी सामने नहीं आया।

दिल्ली से लेकर यूपी तक उन्हीं जनता दल वालों की सरकार थी जिन्होंने गोली चलाने का आदेश दिया था। लेकिन उस समय मुलायम सिंह के आदेश पर हुए इस गोलीकांड के बारे में कहा जाता है कि 2 नवंबर को सरयू नदी का पानी कारसेवकों के खून से लाल हो गयी थी।

30 अक्टूबर 1990 और अयोध्या की घेरेबंदी

यूपी में मुख्यमंत्री के तौर पर मुलायम सिंह यादव वीपी सिंह की पसंद नहीं थे। इसलिए प्रधानमंत्री के तौर पर वीपी सिंह जहां बातचीत से अयोध्या में होने वाली कारसेवा को रोकना चाहते थे, वहीं मुलायम सिंह यादव इसे कानून और प्रशासन की सख्ती से रोकने का प्रयास कर रहे थे। दोनों अपने अपने तरीके से अपनी सरकार बचाने का प्रयास कर रहे थे।

विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या में गर्भगृह निर्माण के लिए रामभक्तों की कारसेवा का ऐलान किया था। 30 अक्टूबर से अयोध्या में कारसेवा शुरु होनी थी।

मुलायम सिंह यादव को भरोसा था कि कारसेवा को प्रशासनिक सख्ती से रोका जा सकता है। इसलिए उन्होंने पूरे प्रदेश पर पुलिस का पहरा बिठा दिया। प्रदेश की सीमाएं सील हो गयीं और रेलगाड़ियों के आवागमन को भी बाधित कर दिया गया।

फैजाबाद, गोंडा, गोरखपुर, बहराइच सहित चौदह जिलों में कर्फ्यू लागू कर दिया गया। प्रदेशभर में धारा 144 लगा दी गयी। शवयात्राओं में भी ‘राम नाम सत्य है’ का उच्चारण करने की पाबंदी लगा दी गयी।

इतनी सख्ती के बावजूद कारसेवक अयोध्या और आसपास के जिलों में पहुंचने में कामयाब हो गये। लोगों ने अपने घरों के दरवाजे कारसेवकों के लिए खोल दिये। संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता ही नहीं, साधु संतों ने बड़ी संख्या में कारसेवकों को ठहराने की व्यवस्था की।

मुलायम सिंह के कठोर आदेश के बावजूद पुलिस प्रशासन में भी कारसेवकों को लेकर नरमी का रुख था। आखिर राम काज के लिए कौन आड़े आना चाहेगा? प्रभु रामचंद्र के जन्मस्थान पर उनका मंदिर बने यह किसकी इच्छा नहीं रही होगी?

लेकिन मुलायम सिंह यादव कारसेवकों को रोकने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अकेले अयोध्या के आसपास एक लाख पुलिस और अन्य अर्धसैनिक बल के लोग तैनात किये गये। अयोध्या की ओर जानेवाली हर सड़क को सील कर दिया गया था।

30 अक्टूबर को जिस दिन कारसेवा की घोषणा की गयी थी, उस दिन देवोत्थान एकादसी भी थी जब अयोध्या में पंचकोसी परिक्रमा करनेवालों का जमावड़ा होता था।

कारसेवकों को रोकने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम ने उस दिन रामभक्तों की पंचकोसी परिक्रमा और अयोध्या प्रवेश पर भी रोक लगा दी थी। हालांकि अदालती आदेश से इस परिक्रमा और अयोध्या प्रवेश से लगी रोक हट गयी और इसी ने 30 अक्टूबर की तिथि को महत्वपूर्ण बना दिया।

अब तक जो कारसेवक नहीं थे, वो भी कारसेवक के रूप में अयोध्या में प्रविष्ट हुए। ये कारसेवक सरयू पुल के दूसरी ओर इकट्ठा हो गये थे।

वो सब अयोध्या नगरी में प्रविष्ट होना चाहते थे। लेकिन सरयू पुल पर पुलिस की गोलीबारी ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया। इस गोलीबारी में कुछ कारसेवक मारे गये। लेकिन अब भी मामला इतना नहीं बिगड़ा था। लोग इसे प्रशासनिक व्यवस्था मानकर वापस लौटने का विचार कर रहे थे।

लेकिन मामला तब बिगड़ा जब प्रशासन ने मल्लाहों की कुछ नावों को पानी में डुबा दिया ताकि वो कारसेवकों को नदी के रास्ते अयोध्या न पहुंचा पाये। मल्लाहों ने इसे अपने अपमान के बतौर लिया और कुछ कारसेवकों को नदी पार करवा दी।

30 अक्टूबर को कर्फ्यू के बावजूद अयोध्या की गलियां कारसेवकों से भर गयीं। इसमें बाहर से आनेवाले कारसेवकों के अलावा पहले से आश्रमों में रुके कारसेवक भी शामिल थे। जब ये कारसेवक विवादित परिसर की ओर बढने लगे तो उन पर लाठीचार्ज, गोलीबारी करके रोकने का प्रयास किया गया।

लेकिन सरयू पुल पर हुई गोलीबारी से कारसेवक गुस्से में थे और पुलिस प्रशासन की सारी सख्ती के बावजूद बाबरी ढांचे को कारसेवकों ने चारों ओर से घेर लिया। पुलिस से हल्की झड़प के बाद सैकड़ों कारसेवक बाबरी ढांचे के अंदर थे और उस दिन उन्होंने बाबरी ढांचे पर भगवा झंडा लहरा दिया था।

2 नवंबर 1990 और मुलायम सिंह का “बदला”

हालांकि 30 अक्टूबर को हुई कारसेवा अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रही और अर्धसैनिक बलों ने थोड़ी ही देर में कारसेवकों को विवादित परिसर से बाहर भगा दिया। लेकिन अयोध्या से दूर लखनऊ में बैठे सेकुलर मुलायम ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया।

तत्काल लखनऊ में दस अफसरों की अगुवाई में एक टीम का गठन हुआ और अयोध्या को कारसेवकों से खाली कराने का आदेश जारी हुआ। विवादित परिसर में कारसेवकों के प्रवेश से जहां रामभक्तों को विजय का अहसास हुआ वहीं मुलायम सिंह यादव ने इसे अपनी राजनीतिक पराजय के रूप में देखा। वो इस पराजय का बदला लेना चाहते थे।

अयोध्या में घटित हो रही घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे जवाहरलाल कौल अपनी पुस्तक “विस्फोट” में लिखते हैं कि “2 नवंबर को स्वामी वामदेव के नेतृत्व में कारसेवकों का एक दल फिर से विवादित ढांचे की ओर बढा। इस बार पुलिस प्रशासन मानों सबक सिखाने के मूड में था। उन्हें रोकने की बजाय कर्फ्यू में ढील देकर भीतर आने दिया गया।”

इससे अयोध्या की गलियां फिर से कारसेवकों से भर गयीं। लोग रामधुन गाते हुए धीरे धीरे आगे बढ रहे थे कि अचानक से गोलियां चलनी शुरु हो गयीं। गोलियां सामने से ही नहीं बल्कि छतों पर बैठे पुलिसवाले भी कर रहे थे। पूरे अयोध्या में उस दिन कारसेवकों पर बंदूकों की नाल खोल दी गयी थी। मानों, उन्हें आज सिर्फ गोलियां चलानी थी और जो कारसेवक जहां मिले उसे जान से मार देना था।

2 नवंबर को ही बीकानेर से आये कोठारी बंधुओं को एक संकरी गली में घेरकर गोली मार दी गयी। यह किसी भी प्रकार से बचाव या रोक की कार्रवाई नहीं थी। स्वाभाविक है, उस दिन मुलायम सिंह यादव 30 अक्टूबर का बदला ले रहे थे। उस वक्त फैजाबाद के डीएम रामशरण श्रीवास्तव ने बयान दिया था कि “मुझे नहीं मालूम गोली चलाने का आदेश किसने दिया था। मेरी तो कोई सुनता ही नहीं।” स्वाभाविक है, गोली चलाने का आदेश सीधे लखनऊ से आया था जिसके सामने जिला प्रशासन बेबस था।

2 नवंबर के बाद अयोध्या में शांति तो आयी लेकिन मरघट वाली शांति आयी। अयोध्या की गलियों से निकली चीख पुकार अगले दिन देश भर के अखबारों में सुनाई दे रही थी।

मुलायम सिंह के गोलीकांड का दिल्ली में एक वर्ग विशेष ने बचाव भी किया लेकिन देशभर में इसका संदेश कुछ दूसरा गया। आज भी वही वर्ग नहीं चाहता कि अयोध्या की उस गोलीबारी कांड का जिक्र मुलायम सिंह के नाम से किया जाए लेकिन जनमानस में आज भी उस निर्मम गोलीकांड की यादें ताजा हैं।

मुलायम सिंह यादव ने हालांकि इस गोलीकांड को अपनी मजबूरी भी बताया लेकिन अयोध्या की गलियों और सरयू नदी को कारसेवकों के खून से लाल कर देने वाले मुलायम सिंह यादव को रामभक्त आज भी माफ नहीं कर पाये हैं।

आज मुलायम सिंह यादव के निधन पर सबसे अधिक शोक दिल्ली से लेकर लखनऊ तक भाजपा नेता ही व्यक्त कर रहे हैं। हो सकता है उनकी राजनीति अब इतनी परिपक्व हो गयी हो कि ऐसी बातों से उनके ऊपर कोई फर्क न पड़ता हो।
लेकिन इसे देख सुनकर निश्चित ही उन कारसेवकों की आत्मा एक बार फिर भाजपा नेताओं की बोलियों से छलनी हो रही होगी जो 30 अक्टूबर और 2 नवंबर की गोलीबारी में अयोध्या से जिन्दा बचकर लौट आये थे।

33 साल पुराना अयोध्या का वो गोलीकांड, जिससे मुलायम बन गए ‘मुल्ला-यम’

उत्तर प्रदेश में तब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे।हिंदू साधु-संतों ने अयोध्या कूच कर रहे थे।उन दिनों श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अयोध्या पहुंचने लगी थी,प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था, इसके चलते श्रद्धालुओं के प्रवेश नहीं दिया जा रहा था। पुलिस ने बाबरी मस्जिद के 1.5 किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग कर रखी थी।
कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई थी,पहली बार 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों पर चली गोलियों में 5 लोगों की मौत हुई थीं।इस घटना के बाद अयोध्या से लेकर देश का माहौल पूरी तरह से गर्म हो गया था. इस गोलीकांड के दो दिनों बाद ही 2 नवंबर को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी के करीब पहुंच गए, जो बाबरी मस्जिद के बिल्कुल करीब था।
उमा भारती, अशोक सिंघल, स्वामी वामदेवी जैसे बड़े हिन्दूवादी नेता हनुमान गढ़ी में कारसेवकों का नेतृत्व कर रहे थे। ये तीनों नेता अलग-अलग दिशाओं से करीब 5-5 हजार कारसेवकों के साथ हनुमान गढ़ी की ओर बढ़ रहे थे।प्रशासन उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन 30 अक्टूबर को मारे गए कारसेवकों के चलते लोग गुस्से से भरे थे. आसपास के घरों की छतों तक पर बंदूकधारी पुलिसकर्मी तैनात थे और किसी को भी बाबरी मस्जिद तक जाने की इजाजत नहीं थी।
2 नवंबर को सुबह का वक्त था अयोध्या के हनुमान गढ़ी के सामने लाल कोठी के सकरी गली में कारसेवक बढ़े चले आ रहे थे. पुलिस ने सामने से आ रहे कारसेवकों पर फायरिंग कर दी, जिसमें करीब ढेड़ दर्जन लोगों की मौत हो गई।ये सरकारी आंकड़ा है. इस दौरान ही कोलकाता से आए कोठारी बंधुओं की भी मौत हुई थी।कारसेवकों ने अयोध्या में मारे गए कारसेवकों के शवों के साथ प्रदर्शन भी किया। आखिरकार 4 नवंबर को कारसेवकों का अंतिम संस्कार किया गया और उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी राख को देश के अलग-अलग हिस्सों में ले जा गया था।अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव ने कई साल बाद आजतक से बात करते हुए कहा था कि उस समय मेरे सामने मंदिर-मस्जिद और देश की एकता का सवाल था. बीजेपी वालों ने अयोध्या में 11 लाख की भीड़ कारसेवा के नाम पर लाकर खड़ी कर दी थी।देश की एकता के लिए मुझे गोली चलवानी पड़ी। हालांकि, मुझे इसका अफसोस है, लेकिन और कोई विकल्प नहीं था।

मुलायम सिंह हुए ‘मुल्ला मुलायम’

इस घटना के दो साल बाद 6 दिसंबर, 1992 में विवादित ढांचे को गिरा दिया गया था।1990 के गोलीकांड के बाद हुए विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह बुरी तरह चुनाव हार गए और कल्याण सिंह सूबे के नए मुख्यमंत्री बने। तब मुलायम को ‘मुल्ला मुलायम’ तक कहा जाने लगा क्योंकि उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलाने के आदेश दिए थे। मुलायम सिंह ने इसी दौरान समाजवादी पार्टी का गठन भी किया और उन्हें मुस्मिलों का नेता कहा जाने लगा।
साल 1990 की घटना के 23 साल बाद जुलाई 2013 में मुलायम ने कहा था कि उन्हें गोली चलवाने का अफसोस है लेकिन उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. बेकाबू हुए कारसेवकों पर यूपी पुलिस ने फायरिंग की थी, जिसमें कई कारसेवक मारे गए थे।

मिडिया से खास बातचीत में मुलायम ने कहा था कि उस समय मेरे सामने मंदिर-मस्जिद और देश की एकता का सवाल था।बीजेपी वालों ने अयोध्या में 11 लाख की भीड़ कारसेवा के नाम पर लाकर खड़ी कर दी थी।देश की एकता के लिए मुझे गोली चलवानी पड़ी हालांकि मुझे इसका अफसोस है।लेकिन और कोई विकल्प नहीं था।

2 नवंबर 1990 की रोंगटे खड़ी करने वाली आंखों देखीः गोली से बचने सरयू में कूदे कारसेवक, शवों के बीच लेट बचाई जान

अयोध्या में 2 नवंबर 1990 में हुई घटना को लोग आज भी भूल नहीं पाए हैं। रामधुन करते जा रहे कारसेवकों पर जिस तरह से गोलीबारी की गई उसके बाद कई लोगों ने सरयू में कूदकर तो कुछ ने शवों के बीच लेटकर जान बचाई। अयोध्या भारत के इतिहास में 2 नवंबर 1990 का दिन काले अध्याय के समान है। जानकार बताते हैं कि यह तारीख खून से रंगी हुई है। इसी दिन अयोध्या में कारसेवकों पर पुलिस ने मुलायम सिंह यादव के आदेश पर गोलियां चलाई थीं। इस भयावह गोलीकांड में 40 कारसेवकों की मौत हुई थी। गौर करने वाली बात है कि सरकारी आदेश का पालन करने वाले पुलिसकर्मियों की आंखों में कारसेवकों पर गोली चलाते वक्त आंसू भी देखे गए। 2 नवंबर के गोलीकांड से पहले 30 अक्टूबर को भी कारसेवकों पर गोलियां चलाई गई थी और उसमें 11 कारसेवक मारे गए थे।

रामधुन करते जा रहे कारसेवकों पर चलवाई गई गोली

2 नवंबर 1990 की घटना को पत्रकार महेंद्र त्रिपाठी ने अपनी आंखों से देखा। उस दौरान उन्हें भी मारे गए कारसेवकों के बीच लेटकर ही खुद की जान बचानी पड़ी थी। यहां तक सुरक्षाबल के लोग उन्हें मृत समझकर गाड़ी में भी डालने लगे थे, तब उन्होंने उठकर बताया कि वह जिंदा है। महेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि 2 नवंबर 1990 के दिन मुलायम सिंह की सरकार थी। उन्होंने कारसेवकों को कहा था कि ‘परिंदा भी पर नहीं मारेगा।’ इस डायलॉग को वीएचपी और कारसेवकों ने काफी चैलेंज के रूप में लिया। लाखों की संख्या में कारसेवक अयोध्या में जमा हो गए। सभी प्रांतों से लोग वहां पहुंचे। अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती और विनय कटियार के नेतृत्व में कारसेवकों का हुजूम कारसेवकपुरम के पास से गुजरता हुआ दिगंबर अखाड़े तक पहुंचा। यहीं पर गोलीबारी की गई। सभी कारसेवक रामधुन करते जा रहे थे। गोली चलने के बाद कई कारसेवक वहां पर शहीद हो गए। इसमें कोलकाता के हीरालाल कोठरी के दोनों बेटे राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी भी शहीद हुए थे। इसके अलावा अन्य जगहों के कारसेवक भी उसमें शहीद हुए थे। हनुमानगढ़ी चौराहे के पास भी भारी संख्या में लोग गोलियों का शिकार हुए।

हेलीकॉप्टर से भी चल रही थी गोलियां, जान बचाने के लिए शवों के बीच लेट गए

महेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि वह फोटो खींचते हुए गुंबद के पीछे तक पहुंच गए। वहां पर भी गोलीबारी चल रही थी। ऊपर एक हेलीकॉप्टर भी मंडरा रहा था। लोग कह रहे थे कि इसमें मुलायम सिंह बैठे हैं और गोली चलवा रहे हैं। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। बाद में पता लगा कि अधिकारी उस हेलीकॉप्टर के जरिए वहां के हालात जान रहे थे। हालांकि गोलियां ऊपर से भी चल रही थी। मेरे(महेंद्र त्रिपाठी) अगल-बगल के कारसेवक भी ऊपर से हो रही गोलीबारी में शहीद हो गए। इसके बाद महेंद्र वहीं पर डरकर लेट गए। सीआरपीएफ के जवान जब कारसेवकों के शवों को गाड़ीं में फेंककर भरने लगे तो उन्होंने महेंद्र को भी गाड़ी में भरने का प्रयास किया। हालांकि उन्होंने उठकर बताया कि वह जिंदा हैं और फोटोग्राफर हैं।

जान बचाने के लिए सरयू में कूद गए थे कई कारसेवक

महेंद्र त्रिपाठी के द्वारा अपना परिचय दिए जाने पर सीआरपीएफ के जवानों ने उन्हें सलाह भी दी कि गोली किसी को देखकर नहीं चलती है वह किसी को नहीं पहचानती आप किसी तरह से यहां से निकल जाए। इसके बाद महेंद्र वापस अपने आवास रायगंज चले गए। इस बीच तमाम सरकारी गाड़ियों में भी कारसेवकों के द्वारा आग लगाई गई। उस माहौल को संभालने में सरकार नाकाम हो गई थी। इससे पहले 30 अक्टूबर को भी यही कारसेवक रामधुन करते हुए बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए थे। वहां जय श्री राम का घोष लगाया गया था। वहीं कारसेवक जब 2 नबंवर को दोबारा जा रहे थे तो दिगंबर अखाड़ा के बाद गोली के जरिए उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया। इसमें अयोध्या के भी 4-5 लोग मारे गए थे। कारसेवक उस समय हर गली में मौजूद थे। सरयू पुल पर भी कई कारसेवक मौजूद थे और कई कारसेवक जान बचाने के लिए सरयू में कूद गए। बाद में उनके शव निकाले गए।

मरते हुए सड़क पर रक्त से लिखा सीताराम, मरने के बाद भी खोपड़ी में मारी गई 7 गोलियाँ… वो एक रामभक्त था

2 नवंबर 1990, आईजी एसएमपी सिन्हा अपने मातहतों से लखनऊ से साफ निर्देश है कि भीड़ किसी भी कीमत पर सड़कों पर नहीं बैठेगी।
लखनऊ की कुर्सी पर कौन बैठा था? वह ऐसे आदेश क्यों दे रहा था? कट्टरपंथियों का मसीहा बनने के लिए उसकी होड़ किससे लगी थी? इन सबसे पहले यह जानते हैं कि अयोध्या में 1990 की 2 नवंबर को क्या हुआ था?
सुबह के नौ बजे थे। कार्तिक पूर्णिमा पर सरयू में स्नान कर साधु और रामभक्त कारसेवा के लिए रामजन्मभूमि की ओर बढ़ रहे थे। पुलिस ने घेरा बनाकर रोक दिया। वे जहाँ थे, वहीं सत्याग्रह पर बैठ गए। रामधुनी में रम गए।फिर आईजी ने ऑर्डर दिया और सुरक्षा बल एक्शन में आ गए। आँसू गैस के गोले दागे गए। लाठियाँ बरसाई गईं। लेकिन रामधुन की आवाज बुलंद रही। रामभक्त न उत्तेजित हुए, न डरे और न घबराए। अचानक बिना चेतावनी के उन पर फायरिंग शुरू कर दी गई। गलियों में रामभक्तों को दौड़ा-दौड़ा कर निशाना बनाया गया।“राजस्थान के श्रीगंगानगर का एक कारसेवक, जिसका नाम पता नहीं चल पाया है, गोली लगते ही गिर पड़ा और उसने अपने खून से सड़क पर लिखा सीताराम। पता नहीं यह उसका नाम था या भगवान का स्मरण। मगर सड़क पर गिरने के बाद भी सीआरपीएफ की टुकड़ी ने उसकी खोपड़ी पर सात गोलियाँ मारी।”

3 नवंबर 1990 को जनसत्ता में छपी रिपोर्ट

इस घटना का उस समय की मीडिया रिपोर्टिंग से लिए गए कुछ और विवरण पर गौर करिए:
पुलिस और सुरक्षा बल न खुद घायलों को उठा रहे थे और न किसी दूसरे को उनकी मदद करने दे रहे थे।फायरिंग का लिखित आदेश नहीं था। फायरिंग के बाद जिला मजिस्ट्रेट से ऑर्डर पर साइन कराया गया।
किसी भी रामभक्त के पैर में गोली नहीं मारी गई। सबके सिर और सीने में गोली लगी।
तुलसी चौराहा खून से रंग गया। दिगंबर अखाड़े के बाहर कोठारी बंधुओं को खींचकर गोली मारी गई।राम अचल गुप्ता का अखंड रामधुन बंद नहीं हो रहा था, उन्हें पीछे से गोली मारी गई।
रामनंदी दिगंबर अखाड़े में घुसकर साधुओं पर फायरिंग की गई।कोतवाली के सामने वाले मंदिर के पुजारी को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया।
रामबाग के ऊपर से एक साधु आँसू गैस से परेशान लोगों के लिए बाल्टी से पानी फेंक रहे थे। उन्हें गोली मारी गई और वह छत से नीचे आ गिरे।
फायरिंग के बाद सड़कों और गलियों में पड़े रामभक्तों के शव बोरियों में भरकर ले जाए गए।

कोठारी बंधु भी इसी दिन बलिदान हुए

2 नवंबर 1990 को विनय कटियार के नेतृत्व में दिगंबर अखाड़े की तरफ से हनुमानगढ़ी की ओर जो कारसेवक बढ़ रहे थे, उनमें 22 साल के रामकुमार कोठारी और 20 साल के शरद कोठारी भी शामिल थे। सुरक्षा बलों ने फायरिंग शुरू की तो दोनों पीछे हटकर एक घर में जा छिपे।
सीआरपीएफ के एक इंस्पेक्टर ने शरद को घर से बाहर निकाल सड़क पर बिठाया और सिर को गोली से उड़ा दिया। छोटे भाई के साथ ऐसा होते देख रामकुमार भी कूद पड़े। इंस्पेक्टर की गोली रामकुमार के गले को भी पार कर गई।अयोध्या का चश्मदीद
कितने रामभक्त बलिदान हुए?
जनसत्ता में अगले दिन छपी खबर में बलिदानियों की संख्या 40 बताई गई थी। साथ ही लिखा गया था कि 60 बुरी तरह जख्मी हैं और घायलों का कोई हिसाब नहीं है। मौके पर रहे एक पत्रकार ने मृतकों की संख्या 45 बताई थी।दैनिक जागरण ने 100 की मौत की बात कही थी। दैनिक आज ने यह संख्या 400 बताई थी। आधिकारिक तौर पर बाद में मृतकों की संख्या 17 बताई गई। हालाँकि घटना के चश्मदीदों ने कभी भी इस संख्या को सही नहीं माना।दिलचस्प यह है कि घटना के फौरन बाद प्रशासन ने अपनी ओर से कोई आँकड़े तो नहीं दिए थे, लेकिन मीडिया के आँकड़ों का खंडन भी नहीं किया था। यहाँ तक कि फैजाबाद के तत्कालीन आयुक्त मधुकर गुप्ता तो फायरिंग के घंटों बाद तक यह नहीं बता पाए थे कि कितने राउंड गोली चलाई गई थी। उनके पास मृतकों और जख्मी लोगों का आँकड़ा भी नहीं था।जनसत्ता ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में लिखा था, “निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलाकर प्रशासन ने जलियांवाले से भी जघन्य कांड किया है।”
कुछ महीने पहले तक एक समुदाय विशेष के लोगों को देश की राजधानी की सड़क पर डेरा जमाए बैठे देखने वाले लोगों को शायद यकीन न हो कि 1990 में इस घटना को तब अंजाम दिया गया था, जब प्रशासन को काफी पहले से अयोध्या में कारसेवकों के जुटान और निश्चित तारीख को कारसेवा की पहले से सूचना थी। यहाँ तक कि 30 अक्टूबर 1990 के दिन भी कारसेवकों पर गोलियाँ बरसाई गई थी। आधिकारिक आँकड़े 30 अक्टूबर को 5 रामभक्तों के बलिदान की पुष्टि करते हैं।

किस सनक में यह सब कुछ हुआ?

असल में 25 सितंबर 1990 को एक रथ यात्रा शुरू हुई थी। सोमनाथ से शुरुआत हुई और 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँच यात्रा खत्म होनी थी। मकसद था- रामजन्मभूमि को वापस पाने के संघर्ष को जन-जन का संघर्ष बनाना। हिंदुओं को अपने गौरव और अपनी पहचान को लेकर जिंदा करना।उस समय के प्रधानमंत्री वीपी सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के बीच एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल चल रहा था। यात्रा शुरू होते ही मुलायम ने इसे खुद को खास मजहब का सबसे बड़ा मसीहा साबित करने के मौके के तौर पर देखा। लिहाजा रथ के पहियों के साथ ही हिंदुओं को उनका धमकाना शुरू हो गया था। उन्होंने बकायदा ऐलान किया था कि आडवाणी अयोध्या में घुस कर दिखाएँ, फिर वे बताएँगे कानून क्या होता है। उनकी इस बयानबाजी का एक मकसद उत्तेजना पैदा करना भी था।
इधर वीपी सिंह नहीं चाहते थे कि मुलायम अकेले मजहब के मसीहा बने। सो उनके इशारे पर तब के बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने आडवाणी को समस्तीपुर में 23 अक्टूबर की सुबह गिरफ्तार करवाया। इससे एक दिन पहले वीपी सिंह की सरकार ने 20 अक्टूबर की रात लागू किया गया अध्यादेश वापस लिया था।इस अध्यादेश में विवादित ढाँचे और उसके चारों तरफ 30 फीट जमीन छोड़कर अधिग्रहित जमीन रामजन्मभूमि न्यास को सौंपने की बात कही थी। हालाँकि इसके लिए भी समुदाय के नुमाइंदे राजी नहीं थे और उनका हीरो बनने के लिए मुलायम ने भी अध्यादेश को लागू नहीं करने की धमकी दी थी।
लेकिन, आडवाणी की गिरफ्तारी ने मुलायम के खेल को बिगाड़ दिया। इधर लालू रातोंरात मजहब विशेष के हीरो बन गए। बाद में उन्होंने माई समीकरण भी गढ़ा। अब मुलायम के पास एक ही विकल्प बचा था कुछ ऐसा करना, जिससे समुदाय में उनकी हनक बने। इसी सनक में 30 अक्टूबर और 2 नवंबर को अयोध्या को रामभक्तों के खून से रंग दिया गया और लखनऊ से वह ऑर्डर दिया गया, जिसका जिक्र आईजी सिन्हा अपने मातहतों से कर रहे थे।इस ऑर्डर से मुलायम को मौलाना मुलायम की उपाधि नसीब हुई। 2017 में अपनी इस करतूत का बखान करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि जरूरत पड़ती तो और लोगों को भी मारा जाता। लालू और मुलायम ने उन कारनामों से सालों सत्ता का सुख भी भोगा। बाद में समधी भी बने। पर आज एक जेल में अपना किया भोग रहा है, तो दूसरा बेटे का मारा भोग रहा है। और गुमनाम रामभक्तों के उस बलिदान यात्रा से अयोध्या भव्य श्रीराम मंदिर की यात्रा की ओर बढ़ रहा है।30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को अयोध्या जय सियाराम और हर-हर महादेव के जयकारे से गूंजायमान था। 5 अगस्त 2020 फिर उसका साक्षी बनेगा। उस समय विहिप के नेता एससी दीक्षित ने कहा था:
“राम हमारे खून में हैं। उनके जन्मस्थान के क्या मायने हैं, यह हिंदू होकर ही जाना जा सकता है।”हिंदुओं को इसका एहसास करने के लिए किसी जमशेद या फैज की जरूरत नहीं है। न यह जानने की जरूरत है कि उनके पूर्वज कौन थे।

0Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *