
चाटुकारिता कर चाटुकार बनो या तो पत्रकारिता छोड़ो की नीति अपनाओं?

प्रकाश कुमार यादव
रायपुर(गंगा प्रकाश)। अंबिकापुर में हुई पत्रकारों से मारपीट के बाद पत्रकारों पर अत्याचार करने के मामले में रिकार्ड बना चुकी कांग्रेस के पूर्व मंत्री अमरजीत भगत अब राजनीती की अपनी रोटी सेंकने का भरपूर प्रयास करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारों की शिकायत के बाद भी मुख्यमंत्री का मूक बने रहना निंदनीय है।हमारे देश के चौथे स्तंभ समाचार पत्र, जो हमेशा हमारे मुद्दों को को शासन और प्रशासन के संज्ञान में लाने के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं। जिन्होंने देश के आजादी के पहले भी सकारात्मक भूमिका निभाई है।जिन्हें आजादी के बाद देश के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई।जो पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही कटघरे में खड़ा करने का काम करती है।लेकिन आज की घटना अत्यंत शर्मनाक एवं अशोभनीय है।अब झूठ चाहे कितना भी मजबूत क्यों ना हो सच को छुपा नहीं सकता और वर्तमान में प्रदेश का सच यह है कि यहां जब से कांग्रेस में निवर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सत्ता में आए थे तब से पत्रकारों को झूठे आरोपों में फंसा कर जेल भरो आंदोलन की प्रक्रिया शुरू हो गई थी।भारत के संविधान में पत्रकारों को चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया है। चौथा स्तंभ जिसका पहला कर्तव्य है बिना बिके बिना विज्ञापन की लालसा में आये सच उजागर करें भले ही गुनाह करने वाला कितना ही बड़ा नेता क्यों ना हो अपने कलम की ताकत पर कभी भी उसे हावी ना होने दें।
लेकिन आज आलम बेहद विपरीत है। क्योंकि यह कहने में भी दो राय नहीं है ,कि प्रदेश में कुछ नामी पत्रकार अखबार व चैनल ऐसे हैं जो मुखिया के दबाव में आकर और विज्ञापन की लालसा में अपना कर्तव्य निभाना भूल चुके है। अगर कोई छोटे संस्थान का पत्रकार सरकार के सामने सच उजागर करने की हिम्मत दिखाकर सच को सामने लाता भी है, तो या तो उस पर वसूली और ब्लैक मेलिंग करने का आरोप लगा दिया जाता है या फिर उल्टा उन्हें कोई भी झूठे केस में फंसा कर जेल के सलाखों के पीछे भेज दिया जाता है। और निवर्तमान भूपेश सरकार के समय के कई उदाहरण है।पत्रकार सुनील नामदेव तो आप सभी को याद ही होगा। ऐसा ही मामला जशपुर जिले में भी देखने को मिला था इससे पहले भी कई मामले सामने आ चुके हैं। सत्ता के नशे में चूर
जिला कांग्रेस कमेटी जशपुर के अध्यक्ष मनोज सागर यादव का दबदबा इस हद तक सार्वजनिक था जिनकी मौजूदगी में कांग्रेस नेता के बदसलूकी का वीडियो बनाकर एक पत्रकार गुनहगार बन गया शर्म की बात यह थी कि उनके इस दादागिरी पर खुद को बड़े संस्थान के पत्रकार कहने वाले पत्रकारों की बोलती भी बंद थी। मनोज सागर यादव की मौजूदगी में पूर्व जिला अध्यक्ष के साथ मंच पर बदसलूकी की गई। धक्कामुक्की की गई। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना मीडिया की मौजूदगी में हुई। मीडिया ने खबर बनाई, दिखाई। अपना काम किया।अब खबर लिखना और दिखाना यादव साहब को नागवार गुजरा। यादव साहब ने सभी मीडिया समूहों पर एफआईआर दर्ज करने का पत्र थाना प्रभारी कुनकुरी को लिखा। इस पत्र को लेकर खुद संसदीय सचिव यूडी मिंज थाने पहुंचे थे। उन्होंने टीआई साहब को साफ शब्दों में कह भी दिया है कि एफआईआर दर्ज हो जाना चाहिए। नई तो…
अब यह नहीं तो के आगे की धमकी क्या हो सकती है । इस बात का तो अंदाजा नहीं लगाया जा सकता लेकिन प्रदेश के सभी नेता और कुछ खुद को बड़े सन्स्थान के पत्रकार कहने वाले क्या इतने अंधे हो चुके हैं कि उन्हें यह भी नहीं समझ आ रहा कि भरे मंच पर बदसलूकी एक कांग्रेस नेता ने की और जिसे सिर्फ मीडिया ने दिखाया तो किस बिनाह पर उस पर अपराध दर्ज करने की मांग इन महाशय द्वारा की गई थी।
लेकिन उनसे सवाल पूछने वाला कोई नहीं क्योंकि या तो उनके द्वारा भारी भरकम रकम विज्ञापन के रूप में बड़े संस्थानों तक पहुंचा दी गई होगी या तो फिर उन्हें भी अपने कलम पर भरोसा कम और रसूखदारों का डर ज्यादा था।
यहां तो खुद को बड़े संस्थान का पत्रकार कहने वाले कुछ लोग खुद बड़े-बड़े रसूखदार और अधिकारियों की जी हुजूरी करते फिरते है अरुण के सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि इन्हें बड़े-बड़े मंचों में वाहवाही पाने की लालसा रहती है। ऐसे ही पत्रकारों की वजह से सच दिखाने वाले पत्रकारों को चाहे वह छोटे ही संस्था का क्यों ना हो उन्हें आसानी से अपना टारगेट बना लिया जाता है।
ऐसे में अब थाना प्रभारी को जिले के सभी पत्रकारों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से अपराध दर्ज कर लेना चाहिए और सबको गिरफ्तार भी करना चाहिए। आखिर खबरों से सरकार की नाक कटी है। और नाक कटने पर अपराध होता है और अपराध होने से गिरफ्तारी तो बनती ही है।

1975 में जब प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी
बता दे कि प्रेस के लिए दमन का पर्याय था आपातकाल प्रेस पर कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से काफी दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में जब संसदीय चुनाव हुए तब उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया था।
वैसे तो 1975 के पहले भी 1962 में साम्यवादी चीन के आक्रमण और मात्र नौ साल बाद 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के कारण देश में आपातकाल लगाना पड़ा था, लेकिन दोनों बार प्रेस की आजादी नहीं छीनी गई थी। 1962 में कांग्रेस सरकार की गलतियों और प्रतिरक्षा नीति की खुलेआम आलोचना होती रही, परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी प्रेस की आजादी में दखल नहीं दिया। इसके विपरीत इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा उनके चुनाव को रद करने के बाद त्यागपत्र देने के बजाय अपने पद पर बने रहने के लिए 25-26 जून, 1975 की आधी रात को देश में जो इमरजेंसी लगाई, उसकी सबसे बड़ी मार प्रेस पर ही पड़ी।इंदिरा जी का आपातकाल स्वतंत्र प्रेस के लिए उस वक्त का कोरोना काल साबित हुआ। उस दौर में प्रमुख अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली लाइन काट दी गई, ताकि अगले दिन के अखबार प्रकाशित नहीं हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। हॉकरों से अखबार छीन लिए गए। 26 जून की दोपहर होते-होते प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद डाला गया। अखबारों के दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए गए। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में राजनीतिक खबर नहीं छापे जा सकते थे।
जब इंद्र कुमार गुजराल सरकार के मनोनुकूल मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पाए तो आपातकाल के शुरुआती दिनों में उन्हें हटा कर विद्याचरण शुक्ल को नया सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया। प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर सहित लगभग 250 पत्रकारों को पूरे आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया। 50 से ज्यादा पत्रकारों, कैमरामैन की सरकारी मान्यता रद कर दी गई। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भंग कर दिया गया। इतना ही नहीं आयकर, बिजली, नगरपालिका के बकाये की आड़ में अखबारों पर छापे डाले गए। बैंकों को कर्ज देने से रोका गया। कुछ अखबारों ने सेंसरशिप के पहले दिन विरोध में संपादकीय स्थान को खाली छोड़ दिया। एक अखबार ने सेंसरशिप की आंखों से बचकर शोक संदेश के कालम में छापा-‘आजादी की मां और स्वतंत्रता की बेटी लोकतंत्र की 26 जून, 1975 को मृत्यु हो गई।’
सेंसरशिप के कारण जेपी सहित अन्य कौन-कौन नेता कब गिरफ्तार हुए, उन्हें किन-किन जेलों में रखा गया, ये खबरें समाचार पत्रों को छापने नहीं दी गईं। यहां तक कि संसद एवं न्यायालय की कार्यवाही पर भी सेंसरशिप लागू थी। संसद में अगर किसी सदस्य ने आपातकाल, प्रधानमंत्री या सेंसरशिप के खिलाफ भाषण दिया तो वह कहीं नहीं छप सकता था। सीपीएम नेता नंबूदरीपाद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख कर कहा था कि आजादी के आंदोलन में भी अंग्रेजों ने विरोधी नेताओं के नाम और बयान छापने पर रोक नहीं लगाई थी। न्यायालय द्वारा सरकार के विरुद्ध दिए गए निर्णयों को भी छापने की मनाही थी। यह विडंबना थी कि जिस इंदिरा गांधी ने 1975 में प्रेस सेंसरसिशप लागू किया, उन्हीं के पति फिरोज गांधी प्रेस की आजादी और विचारों की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। स्वाधीन भारत के प्रारंभिक वर्षो में संसद की कार्यवाही को छापने पर अनेक पाबंदियां थीं और इसका उल्लंघन करने पर किसी पत्रकार पर मुकदमा चलाया जा सकता था। बाद में फिरोज गांधी के प्रयास से यह प्रतिबंध हटा।
हालांकि आपातकाल की ज्यादतियों के समाचार को विदेशी अखबारों में छपने से सरकार रोक नहीं पा रही थी। इंदिरा जी विदेशी पत्रकारों पर काफी नाराज थीं। लोग विश्वसनीय समाचार के लिए आकाशवाणी के बजाय बीबीसी न्यूज पर भरोसा करने लगे थे। भारत में बीबीसी के प्रमुख संवाददाता मार्क टुली को 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था। प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम्स, न्यूज वीक, द डेली टेलीग्राफ के संवाददाताओं को भी भारत छोड़ना पड़ा था। सरकार पर कटाक्ष करने वाले कार्टून, व्यंग्य, चुटकुले भी सेंसर की मार से बच नहीं पाए। अपने समय के व्यंग्य चित्रों की प्रसिद्ध पत्रिका शंकर्स वीकली ने अंतिम संपादकीय में लिखा-तानाशाही कभी हंसी स्वीकार नहीं करती, क्योंकि तब लोग तानाशाह पर हंसेंगे। केवल पत्रकार ही नहीं, फिल्मी हस्तियों पर भी गाज गिरी। जो अभिनेता-कलाकार सरकार के समर्थन में नहीं थे, उन्हें काली सूची में डाल दिया गया। प्रसिद्ध पाश्र्वगायक किशोर कुमार के रोमांटिक फिल्मी गानों का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण रोक दिया गया था। गुलजार की फिल्म आंधी पर रोक लगा दी गई, क्योंकि नायिका सुचित्र सेन और नायक संजीव कुमार फिल्म में इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी से मिलते जुलते लगते थे। कांग्रेस सांसद अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का भी आपातकाल का शिकार हुआ। फिल्म के प्रिंट को जला दिया गया।प्रेस पर ऐसे कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से काफी दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि जब आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में संसदीय चुनाव हुए, तब लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी।
आपातकाल से जुड़ीं हैं ये 10 बड़ी बातें
लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से आपातकाल लगाया था। 25 जून, 1975 को लगा आपातकाल 21 महीनों तक यानी 21 मार्च, 1977 तक देश पर थोपा गया। 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना, ‘भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।’ आइये आज आपातकाल से जुड़ी 10 बड़ी बातें जानते हैं।
नेताओं की गिरफ्तरियां
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। जेलों में जगह नहीं बची। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई। प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी, 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई।
लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था। यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना। आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुतम से से सुनाए गए फैसले में यह कहा कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है।
प्रमुख कारण
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबर्दस्त जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े मार्जिन से जीती थीं। खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया। इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लगाने का फैसला लिया।
आपातकाल की घोषणा
इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गईं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया।
*इमर्जेंसी में हर कदम पर संजय के साथ थीं मेनका आर के धवन
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे आर.के. धवन ने कहा है कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में इमर्जेंसी को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था। और तो और, मेनका गांधी को इमर्जेंसी से जुड़ी सारी बातें पता थीं और वह हर कदम पर पति संजय गांधी के साथ थीं। वह मासूम या अनजान होने का दावा नहीं कर सकतीं। आर.के.धवन ने यह खुलासा एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में किया था।
धवन ने यह भी कहा था कि इंदिरा गांधी जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चलवाने जैसी इमर्जेंसी की ज्यादतियों से अनजान थीं। इन सबके लिए केवल संजय ही जिम्मेदार थे। इंदिरा को तो यह भी नहीं पता था कि संजय अपने मारुति प्रॉजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण कर रहे थे। धवन के मुताबिक इस प्रॉजेक्ट में उन्होंने ही संजय की मदद की थी, और इसमें कुछ भी गलत नहीं था।
बंगाल के सीएम एस.एस.राय ने दी थी आपातकाल लगाने की सलाह
धवन ने बताया कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमर्जेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी। धवन ने बताया कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे। धवन ने यह भी बताया कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है। इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं।
इस्तीफा देने को तैयार थीं इंदिरा
धवन ने कहा था कि आपातकाल इंदिरा के राजनीतिक करियर को बचाने के लिए नहीं लागू किया गया था, बल्कि वह तो खुद ही इस्तीफा देने को तैयार थीं। जब इंदिरा ने जून 1975 में अपना चुनाव रद्द किए जाने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश सुना था तो उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफे की थी और उन्होंने अपना त्यागपत्र लिखवाया था। उन्होंने कहा कि वह त्यागपत्र टाइप किया गया लेकिन उस पर हस्ताक्षर कभी नहीं किए गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी उनसे मिलने आए और सबने जोर दिया कि उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए।
आईबी की रिपोर्ट और 1977 का चुनाव
धवन ने कहा था कि इंदिरा ने 1977 के चुनाव इसलिए करवाए थे, क्योंकि आईबी ने उनको बताया था कि वह 340 सीटें जीतेंगी। उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने उन्हें यह रिपोर्ट दी थी, जिस पर उन्होंने भरोसा कर लिया था। लेकिन, उन चुनावों में मिली करारी हार के बावजूद भी वह दुखी नहीं थीं। धवन ने कहा था ‘इंदिरा रात का भोजन कर रही थीं तभी मैंने उन्हें बताया था कि वह हार गई हैं। उनके चेहरे पर राहत का भाव था। उनके चेहरे पर कोई दुख या शिकन नहीं थी। उन्होंने कहा था कि भगवान का शुक्र है, मेरे पास अपने लिए समय होगा।’ धवन ने दावा किया था कि इतिहास इंदिरा के साथ न्याय नहीं कर रहा है और नेता अपने स्वार्थ के चलते उन्हें बदनाम करते हैं। वह राष्ट्रवादी थीं और अपने देश के लोगों से उन्हें बहुत प्यार था।
*इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा के घर में था अमेरिकी जासूस विकिलीक्स
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में 1975 से 1977 के दौरान एक अमेरिकी भेदिया था, जो उनके हर पॉलिटिकल मूव की खबर अमेरिका को दे रहा था। यह खुलासा विकिलीक्स ने कुछ साल पहले अमेरिकी केबल्स के हवाले से किया था। विकिलीक्स के मुताबिक, इमर्जेंसी के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में मौजूद इस भेदिए की उनके हर राजनीतिक कदम पर नजर थी। वह सारी जानकारी अमेरिकी दूतावास को मुहैया करा रहा था। केबल्स में इस भेदिए के नाम का खुलासा नहीं किया गया है।
26 जून 1975 को इंदिरा गांधी के देश में इमर्जेंसी घोषित करने के एक दिन बाद अमेरिकी दूतावास के केबल में कहा गया कि इस फैसले पर वह अपने बेटे संजय गांधी और सेक्रेटरी आरके धवन के प्रभाव में थीं। केबल में लिखा है, ‘पीएम के घर में मौजूद ‘करीबी’ ने यह कन्फर्म किया है कि दोनों किसी भी तरह इंदिरा गांधी को सत्ता में बनाए रखना चाहते थे।’ यहां दोनों का मतलब संजय गांधी और धवन से है।
आपातकाल और पीएम मोदी
आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही।
कैसे आपातकाल के रोड-रोलर से प्रेस की आजादी को कुचला गया
25 जून को इंदिरा गांधी के पर्सनल सेक्रेटरी आर.के धवन ने उनसे कहा था कि आपातकाल लगाने के साथ प्रिंटिंग प्रेस की बिजली सप्लाई को भी काटा जा सकता है।तब वहीं मौजूद पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने कहा था कि ये तो प्लान का हिस्सा नहीं है ये सही नहीं होगा।उस समय बंसीलाल भी वहीं मौजूद थे और उन्होंने तुरंत ये बात संजय गांधी को लीक करते हुए कहा था कि आर.के धवन सारा खेल बिगाड़ देंगे।
सरकार ने की मीडिया पर मनमानी
संजय गांधी ने इमरजेंसी के दो दिन बाद ही सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को हटाकर अपने करीबी विद्याचरण शुक्ल को मंत्री बना दिया था और विद्याचरण शुक्ल के जरिए सरकार ने मीडिया पर मनमानी की,उस वक्त प्रेस की सर्वोच्च संस्था प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एक तरह से सिस्टम का हिस्सा बनकर रह गई थी। इस संस्था ने इमरजेंसी का विरोध तक नहीं किया और यहां तक कि इमरजेंसी के विरोध में आने वाले प्रस्तावों को भी खारिज कर दिया।
कई अखबारों का प्रकाशन बंद
कई अखबारों का प्रकाशन बंद
कड़ी सेंसरशिप की वजह से कई अखबारों का प्रकाशन बंद हो गया।पत्रकारों के लिए सरकार ने कोड ऑफ कंडक्ट बना दिया और अखबारों के बोर्ड में सरकारी अफसर बैठा दिए गए, जो हर ख़बर पर नजर रखते थे।अखबारों के दफ्तरों में खबरों को सेंसर करने वाले लोग हर खबर, कार्टून और तस्वीर को देखते थे और ये सुनिश्चित करते थे कि कोई भी खबर सरकार की नीतियों का विरोध करने वाली न हो।
न्यूज़ एजेंसियों का विलय
देश की चार बड़ी न्यूज़ एजेंसियों – PTI, UNI, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती का विलय करके सरकार ने एक समाचार एजेंसी बना दी थी,ताकि खबर का हर स्रोत पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में रहे,दा हिन्दू के संपादक जी. कस्तूरी को इसका प्रमुख बनाया गया और सबसे अहम बात खुशवंत सिंह ने आपातकाल का समर्थन किया था और जब उन पर सवाल उठे तो उन्होंने एक किताब लिखकर स्पष्टीकरण भी दिया, जिसका शीर्षक था, Why I Supported Emergency? हिंदुस्तान टाइम्स के प्रसिद्ध संपादक B G वर्गीज को मालिक k k बिड़ला ने इंदिरा गांधी को खुश करने के लिए बर्खास्त कर दिया था।उस वक्त द टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक शाम लाल थे और गिरीलाल जैन दिल्ली के रेजिडेंट एडिटर थे।ये दोनों ही पत्रकार इंदिरा गांधी के समर्थक थे, लेकिन प्रेस पर सेंसरशिप लगाने के फैसले के विरोधी थे. वो अखबार के प्रबंधन के सामने मजबूर थे।
*327 पत्रकारों की मीसा कानून के तहत गिरफ्तारी
खुशवंत सिंह ने अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध पत्रिका में लिखा था कि द टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक शाम लाल, आपातकाल का समर्थन करने वाले पत्रकारों के नेता थे शाम लाल के बाद अखबार के नंबर दो संपादक गिरीलाल जैन थे,वो आपातकाल के दौरान देश के नए नेता के तौर पर संजय गांधी की ब्रांडिंग कर रहे थे,इसके अलावा नवभारत टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स और धर्मयुग के संपादकों ने भी आपातकाल का विरोध करने वालों से दूरी बना ली थी।इमरजेंसी के दौरान 3801 अखबारों को जब्त किया गया. 327 पत्रकारों को मीसा कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया।290 अखबारों में सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए। ब्रिटेन के द टाइम्स और गार्जियन जैसे अखबारों के 7 संवाददाताओं को भारत से निकाल दिया गया था।
29 विदेशी पत्रकारों की एंट्री पर बैन
रॉयटर्स सहित कई विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के टेलीफोन और दूसरी सुविधाएं खत्म कर दी गईं, 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता छीन ली गई, 29 विदेशी पत्रकारों को भारत में एंट्री देने से मना कर दिया गया. उस दौर में संपादकों के एक समूह ने सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे,दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की,यहां तक कि इन संपादकों ने अखबारों पर लगाई गई सेंसरशिप को भी सही ठहरा दिया था, ऐसे संपादकों के बारे में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का वो कथन बहुत मशहूर है, जब उन्होंने कहा था कि जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया था, तो वो रेंगने लगे थे,हम आपको लालकृष्ण आडवाणी का ये बयान भी सुनाते हैं।
आपातकाल में नसबंदी से मौत की ख़बरें न छापी जाएं
आपातकाल के इन सेंसर-आदेशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं।
‘सूचना विभाग में सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर-आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन की ख़बरें भी नहीं छपेंगी।11 जुलाई, 1976 को लखनऊ के प्रतिष्ठित दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ के संपादकीय विभाग के एक वरिष्ठ सदस्य ने ये पंक्तियां टाइप करके निर्देश-रजिस्टर में लगाईं ताकि सभी देखें और पालन कर सकें।देशभर के सभी अख़बारों में उन दिनों रोजाना ऐसे कई-कई सेंसर-आदेश पहुंचते थे।अख़बारों की खबरों पर कड़ा पहरा था।
25 जून, 1975 की रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने और बढ़ते राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था।जनता के संवैधानिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। विरोधी नेता गिरफ़्तार कर जेल में डाले गए. प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गई थी।अख़बारों में क्या छपेगा क्या नहीं यह संपादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे। राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बनाकर अख़बारों पर निगरानी रखने का काम दिया गया था।ये अधिकारी संपादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे. खुद उन्हें ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी की चौकड़ी से प्राप्त होते थे. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ़्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी।
अगस्त, 1977 में मैंने दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ में बतौर प्रशिक्षु सह-संपादक काम करना शुरू किया तो संपादकीय-निर्देश-रजिस्टर में नत्थी कई सेंसर-आदेश देखे थे।बाद में उसमें से कुछ सेंसर-आदेश अपने लिए सुरक्षित रख लिए थे।
इमरजेंसी के बाद आज इन चंद निर्देशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं।एक सेंसर-आदेश 20 जुलाई, 1976 को तत्कालीन संपादक अशोक जी के हस्ताक्षर से इस तरह था-‘नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की ख़बरें न दी जाएं. प्राप्त होने पर इन्हें समाचार संपादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए।
इसी बारे में एक सेंसर-आदेश 1 नवंबर 1976 का भी है-
‘विधानमण्डल का आज से अधिवेशन शुरू हो रहा है. परिवार नियोजन के संबंध में कुछ ज़िलों में कुछ अप्रिय घटनाएं हुई थीं. समाचार देते समय इन घटनाओं के कृपया ‘टोन डाउन’ करें और इस सम्बंध में पुराने निर्देशों का पालन करें. (ध्रुव मालवीय का फोन)- हस्ताक्षर, सहायक संपादक’ गौरतलब हो कि इमरजेंसी में संजय गांधी ने सनक की तरह जनसंख्या-नियंत्रण कार्यक्रम चलवाया था सरकारी कर्मचारियों, डॉक्टरों आदि को नसबंदी के बड़े लक्ष्य दिए गए. अविवाहित युवकों, बूढ़ों, भिखारियों तक को पकड़-पकड़कर उनकी जबरन नसबंदी की गयी।असुरक्षित नसबंदी के कारण देश भर में बहुत मौतें हुई थीं।रोहिण्टन मिस्त्री के अंग्रेजी उपन्यास ‘अ फाइन बैलेंस’ में इन सबका मार्मिक और दहलाने वाला चित्रण है।भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए।बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा जाए. -सहायक संपादक’
बिना तारीख़ का एक सेंसर-नोट कहता है-
‘गुजरात हाईकोर्ट के जजों के तबादले संबंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता(1976 में गुजरात हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने अपने तबादले को बड़ा मुद्दा बनाकर अदालत में चुनौती दी थी और भारत सरकार को भी पार्टी बना लिया था।इस पर लंबी अदालती बहस चली थी)
10 दिसंबर, 1976 को समाचार संपादक के हस्ताक्षर से जारी आदेश-
‘14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.’
28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार संपादक के हस्ताक्षर से जारी अंग्रेज़ी में टाइप किया हुआ सेंसर-निर्देश-‘कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और गुटबाजी के बारे में कोई भी ख़बर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई नहीं दी जाए (शुड बी किल्ड). यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की ख़बरों पर लागू होगा।
25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट-
‘सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फ़ैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले चौथे एशियाई बैडमिंटन टूर्नामेंट में चीन की बैडमिंटन टीम की भागीदारी भारतीय अख़बारों में बहुत दबा दी जाए।
यह समझ पाना मुश्किल है कि चीन की बैडमिंटन टीम के भारत आकर खेलने की ख़बर तत्कालीन इंदिरा सरकार क्यों दबाना चाहती थी।इस लेखक के हाथ लगे सेंसर-आदेश इमरजेंसी लगने के क़रीब साल भर बाद के हैं. बिल्कुल शुरू के आदेश और सख़्त रहे होंगे. कुछ आदेश ऐसे भी होंगे जो मालिकों या संपादकों को सीधे सुनाए गए होंगे, बिना कहीं दर्ज किए।
सभी अख़बारों को सेंसर-आदेशों का पालन करना पड़ा था. विरोध के प्रतीक-रूप में कतिपय अख़बारों ने एकाधिक बार अपने संपादकीय की जगह ख़ाली छोड़ी. कुछ छोटे लेकिन न झुकने वाले पत्रों ने प्रकाशन स्थगित किया या सरकार ने ही उन्हें बंद कर संपादकों-पत्रकारों को जेल में डाल दिया था।
25 जून 1975 की रात लागू इमरजेंसी 21 मार्च 1977 तक रही. यह पूरा दौर आज़ाद भारत के लिए बहुत भयानक था. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए सबसे काला दौर, जब हर प्रकार का प्रतिरोधी स्वर कुचल दिया गया था।
आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत बुरी पराजय हुई. इंदिरा गांधी और संजय दोनों चुनाव हारे. उन्हें अपने सबसे बुरे दिन देखने पड़े थे।लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनने की कोशिश करने वालों के लिए वह दौर एक बड़ा और ज़रूरी सबक है।इसीलिए अभी हाल में एनडीटीवी के मामले में दिल्ली प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में कुलदीप नैयर से लेकर अरुण शौरी तक ने याद दिलाया कि जिस किसी ने प्रेस की आज़ादी पर हमला किया, उसने अपने ही हाथ जलाए।