छत्तीसगढ़ के लोक तिहार छेरछेरा दान की महान संस्कृति का परिचायक हैं आज के दिन घर घर अन्नदान मांगने की परम्परा है

गरियाबंद/फिंगेश्वर(गंगा प्रकाश)। छेरछेरा पर्व पौष पूर्णिमा के दिन छत्तीसगढ़ में बड़े ही हर्षोल्लास एवं धूमधाम से मनाया जाता है। इसे छेरछेरा पुन्नी या छेरछेरा तिहार भी कहते हैं। नगर के युवा साहित्यकार एवं शिक्षक थानू राम निषाद ने छत्तीसगढ़ के इस लोक पर्व के बारे में जानकारी देते हुए कहा आज का दिन दान करने का बड़ा ही विशेष महत्व है छत्तीसगढ़ का लोक जीवन पर आधारित है यहां मनाएं जाने वाले सभी तीज त्यौहार के पीछे कोई न कोई धार्मिक मान्यता एवं किंवदंती छिपी हुई हैं हमारे यहां प्राचीन काल से ही दान का विशेष परंपरा रही है छत्तीसगढ़ जो की मुख्यतः कृषि जीवन धारा के रूप में मुख्य फसल के रूप में धान को देखा जाता है। किसान धान की बोनी से लेकर कटाई और मिजाई के बाद अपने कोठी डोली में रखते हैं इस दिन दान के परंपरा को निर्वाह करता है एक मान्यता के अनुसार छेरछेरा के दिन शाकंभरी देवी की जयंती मनाई जाती है ऐसी लोक मान्यता है की प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में सर्वत्र घर आकाल पडने के कारण चारों तरफ सुखा और बरसात न होने के कारण हाहाकार मच गया लोग भूख और प्यास अकाल मौत के मुंह में सामने लगे काले बादल भी निष्ठुर हो गए नभ मंडल में छाते जरूर पर बरसते नहीं तब दुखी जनों के द्वारा विशेष पूजा प्रार्थना किया गया भोली भाली जनता के द्वारा की जा रह पूजा अर्चना से प्रसन्न होकर फल फूल औषधि की देवी शाकंभरी प्रकट हुई और आकाल को सुकल में बदल दिया चारों तरफ सर्वत्र खुशी का माहौल निर्मित हो गया छेरछेरा पुन्नी के दिन शाकंभरी देवी की पूजा अर्चना की जाती है यह भी लोकमान्यता है कि भगवान शंकर ने इसी दिन नेट का रूप धारण कर पार्वती अन्नपूर्णा से अन्नदान प्राप्त किया था छेरछेरा पर्व हमारे इतिहास की ओर इंगित करता है इस दिन छोटे.छोटे बच्चों से लेकर बड़े वर्ग के पुरुष अपने गली मोहल्लो घरों में जाकर छेरछेरा दान मांगते हैं दान लेते समय बच्चे छेरछेरा माई कोठी के धान ला हेर हेरा कहते हैं और जब तक गृहस्वामिनी दान नहीं देगी तब तक कहते रहेंगे अरन बरन कोदो दरनए तभे देबे तभे टरन इसका मतलब यह है होता है कि बच्चे कह रहे हैं जब तक हमें अन्नदान नही करोगे तब तक हम यहां से नही जायेंगे छेरछेरा का पर्व में अमीर गरीब के बीच दूरी कम करने और आर्थिक विषमता को दूर करने का संदेश छिपा है इस पर्व में अहंकार के त्याग की भावना है जो हमारी परंपरा से जुड़ी है सामाजिक समरसता सुदृढ़ करने में भी इस लोक पर्व को छत्तीसगढ़ के प्रत्येक गांव.गांव एवं छोटे कस्बों में लोग बड़े ही उत्साह एवं धूमधाम के साथ मानते हैं गांव में छोटे छोटे टूकडियो में ढोल.नगाड़े बजाकर घर.घर जाकर दान के रूप में मांगते हैं।

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