लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी ग्यारंटी पर “ओबीसी” चेहरे पर खेला दांव तो कांग्रेस ने “साहू” बाहुल्य महासमुन्द लोकसभा सीट पर “साहू” प्रत्याशी पर खेला दांव।

भाजपा के साहू प्रत्याशी ही कांग्रेस को दे रहे थे मात,तो क्या इस बार होगी महिला वंदन की बात?

प्रत्याशी एलान के बाद दोनो पार्टी अंतरकलह से जूझ रही हैं,कांग्रेस में खुल कर हो रहा विरोध वहीं भाजपा में अंदरखाने में पक रही सियासी खिचड़ी
     

गरियाबंद(गंगा प्रकाश)। लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज गया है देश की सभी राजनेतिक पार्टी इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंकने में जुट गए हैं।चुनाव में जातीय समीकरणों की बेहद अहम भूमिका मानी जा रही है। भले ही पार्टियों  कह रही हों कि वे जातिगत आधार पर नहीं मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि टिकटों के बंटवारे से लेकर वोट मांगने तक में जातियों के समीकरण बेहद मजबूत माने जाते हैं। बता दें कि
लोकसभा महासमुंद क्षेत्र के लिए प्रत्याशी का एलान होते ही, मुकाबला दिलचस्प होने की चर्चा है।भाजपा इस बार ओबीसी वर्ग के महिला बसना क्षेत्र के रूप कुमारी चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाई है,जबकि कांग्रेस भाजपा की राह पर रोड़ा डालने ओबीसी वर्ग से ही लेकिन सबसे बाहुल्य वोटर माने जाने वाले साहू समाज से ताम्रध्वज साहू को अपना प्रत्याशी बना कर भाजपा के खेल बिगाड़ने की कोशिश किया है।प्रत्याशी तय होते ही दोनो पार्टी में नाराजगी भी खुल कर सामने आई है।कांग्रेस से दावेदारी कर पीसीसी के प्रदेश महामंत्री रहे किसान नेता चंद्रशेखर शुक्ला ने कांग्रेस छोड़ पार्टी को झटका दे दिया,कांग्रेस में साहू समाज से स्थानीय दावेदार माने जा रहे धनेंद्र साहू को टिकट नहीं दिया गया तो उनके समर्थन खुल के ताम्रध्वज को पैराशूट लैंडिंग बोल कर विरोध करना शुरू कर दिए हैं।इधर साहू समाज से भाजपा के 4 बड़े चेहरे की अनदेखी की आग भी भीतर से सुलग रही है ।हालाकि भाजपा सत्ता में होने के साथ ही अनुशासन में सख्त है,इस लिहाज से नाराजगी खुल कर सामने नही आ रही है।महासमुंद सीट का विश्लेषण :

विधान सभा चुनाव में भाजपा से ज्यादा वोट कांग्रेस के पास

इस लोकसभा सीट पर 8 विधानसभा क्षेत्र है,दोनो दल से 4_4 विधायक हैं।लेकिन वोट के लिहाज से कांग्रेस आगे है।कांग्रेस से खललारी विधायक द्वारिकाधीश, धमतरी के ओंकार साहु,बिंद्रांवागढ के जनक ध्रुव,सरायपाली से विधायक बने चतुरीबंद मिलकर कुल 6 लाख 97187वोट हासिल किए तो वही भाजपा से कुरूद विधायक अजय चंद्राकर,बसना के संपत अग्रवाल,राजिम के रोहित साहु,महासमुंद के योगेश्वर ने मिलकर 6 लाख 87909 मत हासिल कर सके।कांग्रेस, भाजपा की तुलना में 9278 मत ज्यादा हासिल किया है।

श्रीमती रूपकुमारी चौधरी लोकसभा क्षेत्र महासमुंद भाजपा प्रत्याशी

कांग्रेस पर ब्रेक लगाने भाजपा ने साहू प्रत्याशी का सफल प्रयोग किया

1957 से इस सीट पर 18 सांसद बने जिसमें सबसे ज्यादा 7 बार सांसद बनने का रिकार्ड कद्दावर नेता विद्याचरण शुक्ल के नाम दर्ज है।लोकप्रियता ऐसी थी की 1989 का चुनाव वे जनता दल के बैनर से बन भाजपा व कांग्रेस दोनो को अपना लोहा मनवाया था।भाजपा ने कांग्रेस पर ब्रेक लगाने 1991 में चंद्रशेखर साहू को अपना प्रत्याशी बनाया लेकिन संत पवन दीवान की लोकप्रियता को कांग्रेस ने भुना लिया।1996 में भी दोनो का आमना सामना हुआ इस बार भी फायदा कांग्रेस को हुआ।लेकिन तीसरी बार 1998 के चुनाव में पवन दीवान को मात देने में चंद्र शेखर साहू सफल रहे।कांग्रेस ने 1999 में श्यामाचरण शुक्ल का तो2004 में अजीत जोगी जैसे पूर्व मुख्यमंत्री को उतार सिट को बचाती रही।लेकिन 2009 के बाद लगातार साहू प्रत्याशी महासमुंद सीट पर भाजपा का परचम लहराते रहे।2009 व 2014 में लगातार चंदू लाल साहू तो 2019 में चुन्नीलाल साहू सर्वाधिक 50.42 प्रतिशत मत लेकर सांसद बने,यह दौर मोदी लहर का दौर माना जा चुका था,लिहाजा कांग्रेस से प्रत्याशी बने धनेंद्र साहू को 43.02 प्रतिशत मत लेकर संतोष होना पड़ा था।

ताम्रध्वज साहू लोकसभा क्षेत्र महासमुंद कांग्रेस प्रत्याशी

अंतर्कलह का फायदा उठा सकती है कांग्रेस

दुर्ग के बाद सबसे बड़े साहू समाज का वोट बैंक महासमुंद लोकसभा में है , राजिम, धमतरी, महासमुंद , खल्लारी व कुरूद इन 5 विधान सभा सीटों पर साहू समाज का ज्यादा प्रभाव है।इस बार सांसद चुन्नीलाल साहु,दो बार के सांसद चंदूलाल साहू ,पूर्व मंत्री चंद्र्सेखर साहू के अलावा संघ की ओर से सिरकट्टी आश्रम के पीठाधीश्वर गोवर्धन शरण ब्यास जो साहू समाज से आते है इनकी दावेदारी थी।समाज के 4 बड़े चेहरे को दरकिनार कर पार्टी ने इस बार महिला वंदन का कार्ड खेल दिया।इससे समाज में नाराजगी भी है।कांग्रेस द्वारा बनाई गई आंतरिक रिपोर्ट में इसका जिक्र भी है।लिहाजा सुलगे इस आग को हवा देकर कांग्रेस अपनी रोटी सेंकने में कामयाब होती है या फिर इस बार भी मोदी की ग्यारंटी के कांग्रेस को अपने मजबूत सिट से हाथ गवाना पड़ेगा।

चुनाव आते ही क्यों बदल जाते हैं प्रदेश में जातीय समीकरण?

    
भारत में चुनावी प्रक्रिया के समय जातिवाद और जातीय समीकरण का मुद्दा हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है। चुनाव आते ही प्रदेशों में जातीय समीकरण के बदलाव का दृश्य देखने को मिलता है। इस लेख में, हम जानेंगे कि चुनाव के समय प्रदेश में जातीय समीकरण में क्यों होते हैं बदलाव और इसके मुख्य कारण क्या हो सकते हैं।

चुनाव और जातीय समीकरण

भारत में चुनाव का समय एक ऐसा समय होता है जब राजनीतिक पार्टियों को वोट बैंक में अधिक से अधिक वोट प्राप्त करने के लिए अलग-अलग समुदायों को आकर्षित करने का प्रयास करना पड़ता है। इसका परिणाम होता है कि चुनाव के आसपास जातीय समीकरण में परिवर्तन दिखाई देता है। मध्यप्रदेश में इस वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होना है। क्या प्रदेश में भी जातिवाद का मुद्दा इस चुनाव में उठेगा ?

पार्टी रणनीति

चुनावी प्रक्रिया के दौरान, राजनीतिक पार्टियां जातीय समुदायों के साथ समझौते करती हैं और उनकी मांगों को पूरा करने के लिए अलग-अलग बातचीत करती हैं। यह प्रदेश में जातीय समीकरण को प्रभावित कर सकता है और उसमें बदलाव ला सकता है।

वोट बैंक का महत्व

राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक में अधिक से अधिक वोट प्राप्त करने के लिए जातीय समुदायों के बीच विभिन्न सुविधाओं और वादों का प्रस्ताव रखती हैं। इससे वोटर्स के माध्यम से जातीय समीकरण में परिवर्तन हो सकता है।

प्रदेश में जातीय समुदायों की संख्या

प्रदेश में जातीय समुदायों की संख्या और उनका आकार भी चुनावी प्रक्रिया पर प्रभाव डाल सकता है। बड़े और संख्यात्मक जातीय समुदाय अक्सर राजनीतिक पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण होते हैं और उनके साथ समझौते करने की कोशिश करते हैं।चुनावी प्रक्रिया के समय प्रदेश में जातीय समीकरण में बदलाव
होना सामान्य है, और इसके पीछे विभिन्न कारण हो सकते हैं। राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए जातीय समुदायों के साथ समझौते करती हैं, जिससे जातीय समीकरण में परिवर्तन हो सकता है। इस प्रकार, चुनाव प्रक्रिया के समय जातीय समीकरण में बदलाव होना राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा रहता है।

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