लंबे समय से नाबालिग छात्राओं के साथ छेड़छाड़ करने बाला “कलयुगी गुरु घंटाल” को पुलिस ने गिरफ्तार कर भेजा सलाखों के पीछे

रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
बिलासपुर(गंगा प्रकाश)। आजकल लोगो ने गुरु शब्द की  परिभाषा ही बदल दी हैं।समय के साथ गुरूओं का सम्मान भी आज कल कम होने लगा है क्योकि लोगो ने और खुद गुरुओं ने अपनी परिभाषा ही बदल ली है, और इसका दोष आजकल के गुरुजनो को ही जाता है।जो कि समय के साथ अपने आप को बदल रहे है जो की ठीक नहीं है।इसलिए आज कल के बच्चे और उनके माँ बाप भी गुरुओ को वो सम्मान नहीं देते जो की पहले दिया जाता था और इन सब के दोषी सबसे पहले गुरु और बाद में शिष्य को जाता है। कलयुग में तो सभी रिश्ते ही अपने आप बदले जा रहे है।बाप अपनी ही बेटी के साथ यौन शोषण करता है।शिक्षा देने वाला शिक्षक जिसको लोग भगवान से पहले पूजा करते थे आज वो भी अपने ही शिष्यों के साथ किस तरह का बर्ताव कर रहा है उसे यहाँ पर में लिखना अच्छा नहीं समझाता क्योकि मैंने ही एक लेख लिखा था की बिन गुरु के जीवन अधूरा है,वो मैंने पहले के समय को ध्यान करने के लिए लिखा था और आज जो में लिख रहा हूँ,वो वर्त्तमान को ध्यान में रखकर आप सभी लोगो को जागृत और होशियार करने के लिए लिख रहा हूँ।कहते है कि जिस तरह से एक शिल्प कार एक मूर्ती को बनता है और उसका निर्माण करता है वैसे ही हमारे जीवन को सही ठंग से तरासने का काम हमारे गुरु और शिक्षक जन को करना चाहिए परन्तु आज के समय में सबसे पहले गुरु ही अपने शिष्यों का शोषण और न जाने क्या क्या दुष्कर्म उन के साथ कर रहे है।तो क्या ऐसे लोगो को हम गुरु का स्थान दे सकते है ? जबकि उसका तो परम कर्तव्य बनता है की पूरी ईमानदारी निष्ठां के साथ अपने गुरु रूप को ऐसा बनाकर दिखाना चाहिए की लोगो को कलयुग में भी सतयुग जैसा वातावरण लगे और ये सब हमारे गुरु लोग ही करके दिखा सकते है।
काम वाशना दिल और दिमाग पर आज कल इतनी ज्यादा हावी होती जा रही है की चरित्रवान कहे जाने वाले गुरुजन ही इस में आज कल सबसे ज्यादा फसते जा रहे है तो क्या वो लोग गुरु या शिक्षक बनाने की पात्रता रखते है? या फिर सभी पैसे की चका चौन्द में अंधे बनते जा रहे है और अपने कार्य को सिर्फ पैसे कमाने का जरिया ही बनाते जा रहे है। मनाव संस्कारों का जो आज मजाक हमारे देश में बनता जा रहा है उस में मुख्य भूमिका हमारे देश के शिक्षको की ही जाता है जो पूरे ईमानदारी और निष्ठां के साथ अपने पेसे के साथ वफादारी नहीं कर रहे है। तभी तो हमारे देश और समाज का ये हाल है की नई पीडी में तो संस्कार नाम की कोई भी चीज ही नहीं रही है।वो किसी को भी सम्मान नहीं देते चाहे उनके अपने माँ और बाप या फिर उन्हें शिक्षा देने वाला गुरु ही क्यों न हो।यहाँ पर एक सीधा सा सवाल ये है की आखिरकार इन सब का जिम्मेवार कौन है ? क्या अब हम लोगो गुरुओं से चरित्र निर्माण वाली परिभाषाऐं सुनने समझने या उनके द्वारा इस विषय पर प्रतिक्रियाऐं देने या उन पर अमल करने जैसे संवाद ही हमारे कानों को न सुनाई देने वाल समय बनकर ये वक्त ऐसे ही निकाल जाएगा या फिर कोई नया स्वरूप इस कलयुग में जन्म लेकर पूरी कलयुग की व्यवस्था को सुधारे ने गुरु के रूप में इस प्रथ्वी पर अवतार लेकर आएगा?  
बच्चो का मन तो एक मोम की तरह नरम होता है उसे जिस तरह से आप बनाना चाहो उसे बना सकते हो,सिर्फ जरूरत है पुराने वाले समय के गुरु और आचार्य , शिक्षको की जो इस कलयुग को सतयुग में बदलने हेतु प्रयास करे और हमारी प्राचीन सभ्यता को फिर से जगाकर अपनी मुख्य भूमिका का निर्वाहन करे और जो परिभाषा गुरुओं की बदल गई है उसे पुन: वापिस उसी दिशा में लेकर आये वर्ना गुरु शब्द भी थोड़े से समय के उपरान्त ये शब्द लुप्त हो जायेगा।और हम सब लोग सिर्फ इतिहास के पन्नो में ही इस शब्द को पड़ते और खोजते रहेंगे।
मनुष्य जीवन में बहुत ही भाग्यशाली और पुण्यात्मा  लोगो को मिलता है। यह हम सब का परम सौभाग्य है कि हम लोगो को इस युग में भी  अच्छे-अच्छे गुरु और संतो के दर्शन और उन सभी को सुनने और उन के साथ सत्संग करने का हमें मौका मिल रहा है कही कही अपवाद भी है तो वो तो रहेंगे ही। इसलिए हम सब के जीवन में गुरु का आना और या अपने लिए गुरु बनाना जरुरत नहीं बल्कि बहुत ही अनिवार्य भी है परन्तु आज कल गुरुओ के आचरण और उनके व्यवहारों को देखते हुए हर कोई इन्सान डरता है की कही गुरु जो की शिक्षा देता है कही वो ही ……. न बन जाए, इसलिए लोगो का विश्वास अब आज कल के गुरुओ पर से एक दम से उठ चुका है। गुरु के प्रति आज भी इस कलयुग में वो ही श्रध्दा है जो पहले हुआ करती थी।जीवन में गुरु का बहुत ही उच्य स्थान होता है।अब वो गुरुओं पर भी निर्भर करता है कि वो किस तरह से अपना आचरण , व्यवहार,चरित्र और साधना को कैसे प्रगट करे या दिखाए जिसके कारण आज की नई पीडी उन पर विश्ववास कर सके ये परीक्षा अब गुरुओ को देना है।लेकिंन कंही कंही आज के कलयुगी गुरू घंटालो की काली करतूत भी सुनाई देती हैं जैसा कि ताजा मामला जिला बिलासपुर से सामने आया हैं। जन्हा कलयुगी गुरु घंटाल का सामने आया है
।नाबालिग  बच्चियों आठवीं , नवमी में पढ़ने वालों के साथ छेड़खानी करने वाले शिक्षक कमलेश साहू को पुलिस ने कल गिरफ्तार कर लिया है । उसे न्यायालय में पेश किया गया जहां से उसे जेल भेज दिया गया है । ज्ञात हो कि बिल्हा ब्लॉक के एक मिडिल स्कूल में पदस्थ शिक्षक कमलेश साहू के द्वारा लंबे समय से आठवीं और नवमी कक्षा में पढ़ने वाली कई नाबालिग छात्राओं के साथ अश्लील हरकत करता था । इसकी शिकायत मिलने पर जिला शिक्षा अधिकारी ने जांच कराई थी, पीड़ित बच्चियों में से एक के परिजन ने बिल्हा थाने में शिकायत दर्ज कराया था । विभागीय जांच रिपोर्ट मिलने के बाद आरोपी शिक्षक को सस्पेंड कर दिया गया है । इसके अलावा संकुल समन्वयक आशा कंवर और प्रधान पाठक अविनाश तिवारी को भी स्कूल से हटा दिया गया है । इधर पुलिस ने पास्को एक्ट तथा आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराध दर्ज करने के बाद शिक्षक को उसके घर से कल गिरफ्तार कर लिया गया जिसको न्यायालय में पेश करने पर उसे 14 दिनों के न्यायिक रिमांड पर जेल भेज दिया गया है ।

शिक्षक का दर्जा ईश्वर से है ऊंचा

शिष्य के मन में सीखने की इच्छा को जो जागृत कर पाते हैं वे ही शिक्षक कहलाते हैं।शिक्षक के द्वारा व्यक्ति के भविष्य को बनाया जाता है एवं शिक्षक ही वह सुधार लाने वाला व्यक्ति होता है। प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार शिक्षक का स्थान भगवान से भी ऊँचा माना जाता है क्योंकि शिक्षक ही हमें सही या गलत के मार्ग का चयन करना सिखाता है।इस बात को कुछ ऐसे प्रदर्शित किया गया है-गुरु:ब्रह्मा गुरुर् विष्णु: गुरु: देवो महेश्वर: गुरु:साक्षात् परम् ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:। कबीर कहते हैं गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांय बलिहारि गुरु आपनो गोविंद दियो बताय।शिक्षक आम तौर से समाज को बुराई से बचाता है और लोगों को एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति बनाने का प्रयास करता है। इसलिए हम यह कह सकते है कि शिक्षक अपने शिष्य का सच्चा पथ प्रदर्शक है।शिक्षक ने समाज को हमेशा ही सुधार कर एक नई दिशा दी है। शिक्षक ही हमारे अंदर समाज कल्याण की भावना जागृत करते है। एक साधारण मनुष्य को एक महान योद्धा बनाने से लेकर एक साधारण व्यक्ति को ज्ञानवान, आदर्श बनाने में शिक्षक का ही अहम योगदान है। वास्तव मे शिक्षा देना सबसे बड़ा धर्म का काम है क्योंकि शिक्षा के कारण ही कोई समाज विकसित और सम्पन्न हो सकता है। मनुष्य को शिक्षक बनकर सभी को ज्ञान बाटना चाहिए, जिससे समाज का कल्याण हो सके।

बच्चे राष्ट्र का भविष्य

बच्चे भविष्य के राष्ट्र निर्माता होते हैं, यह बात तो हम सभी जानते हैं परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा बच्चे अपने राष्ट्र को एक नई ऊंचाई तक ले जा सकते हैं। जब शिक्षा किसी राष्ट्र का भविष्य तक तय कर सकती है तो ऐसे में इस शिक्षा को बच्चों तक पहुंचाने वाले व्यक्ति के कंधों पर एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। उस व्यक्ति को हम गुरु, अध्यापक, शिक्षक आदि नामों से जानते हैं।शिक्षक का पद समाज में एक प्रतिष्ठित पद माना जाता है क्योंकि शिक्षक समाज को अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है। शिक्षक अपने शिष्यों को सदैव नैतिक मूल्यों के विषय में बताता है, जिससे वे अपने जीवन में एक सदाचारी मनुष्य बन सके।
भारत में प्राचीन काल से ही शिक्षकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, यही कारण है कि आज भी लोग चाणक्य आदि जैसे अनेकों शिक्षकों की बातों का अनुसरण करते हैं और अन्य व्यक्तियों को भी अनुसरण करने की सलाह देते हैं। आचार्य चाणक्य का सपना अखंड भारत बनाना था जिसे पूर्ण करने के लिए और एक शिक्षक का कर्तव्य निर्वाह करते हुए उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे एक साधारण बालक को भारत का राजा बनने के योग्य बनाया। आचार्य चाणक्य के जीवन से हमें एक शिक्षक का महत्व पता लगता है, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन इस राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
एक अच्छा शिक्षक कभी भी अपने शिष्यों को गलत मार्ग का चयन नहीं करने देता है और सदैव उन्हें सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रशस्त करता है क्योंकि वह भली भांति जानता है कि सत्य का मार्ग सबसे उत्तम मार्ग होता है। एक अच्छे शिक्षक का गुण यह भी है कि वह सदैव अपने शिष्यों को त्याग, करुणा, सहनशीलता, ईमानदारी, सदाचार आदि का महत्व समझाएं। इन सभी चीजों के बिना एक व्यक्ति शिक्षित तो हो सकता है परंतु नैतिकता का अभाव उसमें स्पष्ट रूप से दिखेगा इसलिए व्यक्ति के पास शिक्षा के साथ-साथ इन सभी गुणों का होना भी आवश्यक है। शिक्षक अपने शिष्यों के साथ कभी नम्र तो कभी क्रोधित इसलिए होता है क्योंकि उसे अपने शिष्यों के साथ अनुशासन में रहना आवश्यक है और यह उसकी मर्यादा भी है। एक शिक्षक और एक शिष्य के मध्य अनुशासन का होना अति अनिवार्य है, बिना अनुशासन के शिक्षक अपने शिष्य को कभी भी एक उत्तम मनुष्य नहीं बना सकता है।शिक्षक का एक गुण यह भी होता है कि उसे अपने शिष्यों की योग्यता ज्ञात होती है। उसे यह ज्ञात होता है कि उसका कौन सा शिष्य कितना योग्य है इसलिए वह अपने प्रत्येक शिष्य को अलग प्रकार से समझाता है। शिक्षक समाज का उद्धारक होता है और उस पर राष्ट्र के भविष्य को बनाने का कार्यभार होता है। शिक्षक अपना पूरा जीवन राष्ट्र के भविष्य को बनाने के लिए समर्पित कर देता है इसलिए न केवल शिष्य बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता है कि वह एक शिक्षक का सदैव सम्मान करें।

विद्यार्थी का दायित्व

एक समय आता है जब बालक या युवक किसी शिक्षा-संस्था में अध्ययन करता है, वह जीवन ही विद्यार्थी जीवन है । कमाई की चिंता से मुक्त अध्ययन का समय ही विद्यार्थी-जीवन है। सभी विद्यार्थी के जीवन में कुछ दायित्व होते है। उन सभी दायित्व को पूरा करना एक आदर्श विद्यार्थी का फ़र्ज़ होता है। विद्यार्थी के जीवन काल में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इस सभी बातों को ध्यान में रख कर कार्य करना चाहिए और साथ ही अपने विद्यार्थी जीवन का अनुभव करना चाहिए यही एक विद्यार्थी का दायित्व है। सरल शब्दों में विद्यार्थी के जीवन में कुछ जिम्मेरदारी होते है जिन्हें उन्हें पालन करना होता हैं।

अध्ययन, मनन द्वारा विद्या अर्जन,विद्यार्थी की जिम्मेदारी

अध्ययन, चिंतन और मनन द्वारा विद्या अर्जित करना विद्यार्थी का दायित्व है। गुरुजनों का आज्ञाकारी बनना तथा विद्यालय अनुशासन में रहना विद्यार्थी का दायित्व है। धार्मिक संस्कारों को अपने हृदय में विकसित करना विद्यार्थी का दायित्व है। समाज और राष्ट्र के क्रियाकलापों से अवगत रहना विद्यार्थी का दायित्व है। समाज अथवा राज्य पर कोई भी संकट आने पर राष्ट्र रक्षा के लिए अपने को समर्पित करना विद्यार्थी का दायित्व है।दायित्व का शाब्दिक अर्थ है जिम्मेवारी अर्थात जिम्मेदारी। दूसरे शब्दों में किसी कार्य की पूर्ति का भार। दायित्व के निर्वाह से शिक्षा मिलती है और बल की प्राप्ति होती है, जीवन का विकास होता है। मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं तो दायित्व का ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ प्रदर्शक बनता है। विद्यार्थी अर्थात विद्या का अभिलाषी। विद्या प्राप्ति का इच्छुक। विद्या पढ़ने वाला विद्यार्थी कहलाता है इसलिए अपने नाम के अर्थ के अनुरूप उसका सर्व प्रथम दायित्व है विद्या ग्रहण करना।

विद्या ग्रहण के लिए चाहिए निरंतर ध्यान, चिंतन और मनन

अध्ययन ज्ञान का द्वार खोलता है, मस्तिष्क को परिष्कृत करता है तथा हृदय को सुसंस्कृत बनाता है। बेकन के शब्दों में अध्ययन आनंद, अलंकरण और योग्यता का काम करता है। चिंतन और मनन अध्ययन की परिचायिका हैं। इनके द्वारा ही विषय मानसिक माला में गुंथते हैं। अध्ययन चिंतन तथा मनन के लिए नीति के चाणक्य ने विद्यार्थी को आठ बातें छोड़ने की सलाह दी है- काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रंगार, तमाशे, अधिक निद्रा और अत्यधिक सेवा विद्यार्थी के लिए वर्जित है जिसे चाणक्य ने छोड़ने की सलाह दी हैं।

विद्यार्थी की जिम्मेदारी है अनुशासन का पालन करना

विद्यालय के अनुशासन को स्वीकार करना विद्यार्थी का प्रमुख दायित्व है। इस दायित्व निर्वाह से विद्यालय का वातावरण अध्ययन अनुकूल बनेगा जो विद्यार्थी के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा, मन को परिष्कृत करेगा, प्रतिभा को योग्यता में परिणत करेगा, भावी जीवन की सफलता और उज्ज्वलता में सहायक होगा।
गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना और विद्यालय के अनुशासन को बनाए रखना विद्यार्थी का दूसरा दायित्व है। कक्षा में अध्ययन करते हुए गुरु के वचनों को एकाग्रचित होकर सुनना, ग्रहण करना तथा घर पर प्रदत्त पाठ कार्य की पूर्ति विद्यार्थी का महत्वपूर्ण दायित्व है। इससे आप आसानी से पाठ्यक्रम समझ सकेंगे और पाठ मस्तिष्क में पूरी तरह याद रहेगा।

संस्कार काल और परिवार और समाज के प्रति दायित्व

केवल विद्या अर्जन ही विद्यार्थी का दायित्व नहीं है। विद्यार्थी जीवन संस्कार काल भी है। अन्तःकरण में संस्कारों को उद्दीप्त करने का स्वर्ण अवसर है। कारण विद्यार्थी जीवन के संस्कार हृदय में बद्धमूल हो जाते हैं जो जीवन पर्यंत साथ नहीं छोड़ते। यह संस्कार ही धर्म, समाज तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्य पूर्ति की प्रेरणा देते हैं, जीवन समर्पण और उत्सर्ग के लिए प्रेरित करते हैं। अतः सुसंस्कारों का विकास विद्यार्थी का दायित्व बन जाता है। विद्यार्थी विद्या-अध्ययन के प्रति समर्पित होते हुए भी परिवार, समाज, देश तथा धर्म के प्रति दायित्वों से विमुख नहीं हो सकता। आज का विद्यार्थी समाज और नगर से दूर भुरुकुल का छात्र नहीं है, जिसे दीन-दुनिया की कोई खबर न हो । आज का विद्यार्थी परिवार के कार्यों में हाथ बैँटाता है। समाज-सेवा में रुचि लेता है। धार्मिक कृत्यों और उत्सवों में भाग लेता है। देश की समस्याओं के समाधानार्थ अपने को प्रस्तुत करता है। राजनीति को ओढ़ता है। चुनाव में भाग लेकर प्रांत का कर्णधार (मुख्यमंत्री ) बनता है । इस रूप में विद्यार्थी के दायित्व का क्षेत्र विस्तृत और विशाल हो जाता है।

प्रत्येक कार्य सीमा के भीतर

विद्यार्थी की जिम्मेदारी है कि, हर काम सीमा के भीतर रह के करें –
प्रत्येक कार्य एक सीमा में ही सुशोभित होता है। ‘अति’ विनाश्ष की ओर अग्रसर करती है। दैनन्दिन पारिवारिक कार्यों में हाथ बँटाकर परिवार की सहायता करना विद्यार्थी का दायित्व है, परन्तु विद्यालय के पश्चात सम्पूर्ण समय परिवार के लिए समर्पण करना अति है। समाज के छोटे-मोटे कार्यों में समय देकर समाज की सेवा करना विद्यार्थी का दायित्व है, क्योंकि वह समाज का एक घटक है, जिसमें वह विकसित हो रहा है, किन्तु सामाजिक कार्यों में ही अपने को समर्पित करना ‘अति’ है। यह ‘अति’ अध्ययन में व्यवधान डालेगी, मूल दायित्व (विद्या-प्राप्ति की इच्छा) से उपेक्षित रखेगी। मूल दायित्व को त्यागना, उसे उपेक्षित करना या उसमें प्रवंचना करना विद्यार्थी का दायित्व नहीं, दायित्व के प्रति विमुखता है, पाप है।

आपातकाल में परिवार और समाज के प्रति दायित्व

राष्ट्रसेवा और राज्य-सेवा विद्यार्थी का दायित्व नहीं। राजनीति के पंक में फंसना विद्यार्थी के लिए उचित नहीं। कारण, राजनीति वेश्या की भाँति अनेक रूपिणी है, जो विद्यार्थी के मूल दायित्व को अपने आकर्षण से भस्म कर देती है, कर्तव्य से च्युत कर देती है, लोकेषणा के पंख पर उड़ाकर उसको आत्म-बिस्मृत कर देती है। किन्तु ‘ आपत्काले मर्यादा नास्ति।’ परिवार, समाज, संस्कृति या राष्ट्र पर आपत्ति आ जाए, तो आपत्ति रूपी अग्नि में कूदना अनुचित नहीं। गुलामी के प्रतिकार के लिए गाँधी जी के आह्वान पर, आपत्‌काल में लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर छात्रों का राजनीति में कूदना, अपने समर्पण से भारत माता का भाल उन्नत करना, प्रथम दायित्व था। असमी-संस्कृति पर संकट आने पर असम के छात्र-छात्राओं का राजनीति में कूदना मातृभूमि के प्रति अपरिहार्य दायित्व था।विद्या का अर्जन विद्यार्थी का प्रथम और महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। अध्ययन, मनन और चिन्तन इस दायित्व पूर्ति की सीढ़ियाँ हैं। मन की एकाग्रता, एकांतता और एकनिष्ठता लक्ष्य-पूर्ति के साधन हैं। सभी विद्यार्थी के जीवन में कुछ दायित्व होते है। उन सभी दायित्व को उचित तरीके से पूरा करना एक विद्यार्थी का फ़र्ज़ होता है। अंत: किया हुआ सभी कार्य परिवार, समाज और देश के हित में रहकर करना ही विद्यार्थी का दायित्व हैं।

चुनौतियों से भरी पड़ी है समाज में शिक्षकों की बदलती भूमिका

शिक्षकों की समाज में क्या भूमिका रही है, प्राचीन काल से ही भारत में इसके उदाहरण देखने को मिलते रहे हैं। यही वजह है कि इस देश में कई अवसरों पर गुरु पूजा भी देखने को मिल जाती है। ऐसा इसलिए रहा है, क्योंकि शिक्षकों की भूमिका समाज को सही सांचे में ढालने में बड़ी ही महत्वपूर्ण रही है। हालांकि, वर्तमान समय में बदलती परिस्थितियों के अनुसार शिक्षकों की भूमिका को एक बार फिर से परिभाषित किए जाने की जरूरत पैदा हो गई है। इस लेख में हम आपको बता रहे हैं कि शिक्षकों की भूमिका किस तरह से हमारे समाज में विकसित हुई और कैसे इसमें बदलाव आते चले गए।

सामाजिक जीवन में शिक्षकों का योगदान

लोगों को शिक्षा मिलती रहे। लोगों के ज्ञान का स्तर समृद्ध होता रहे। वे सद्गुण बनते रहे, इसके लिए इस देश में शिक्षकों ने बहुत सी कुर्बानियां भी दी हैं। इस देश में भगवान कृष्ण, भगवान बुद्ध, शंकराचार्य और चाणक्य जैसे गुरुओं की कहानियां सुनने को मिलती रहती हैं। सिख धर्म में भी कहा गया है कि हितकर मनसुख होना नहीं, बल्कि गुरुमुख होना है। सामाजिक जीवन में हमेशा से शिक्षकों ने केंद्रीय भूमिका निभाई है।

शिक्षक से अपेक्षाएं

शिक्षकों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे अपने छात्रों का मार्गदर्शन उचित तरीके से करें। जब उन्हें शिक्षक कहा जाता है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि ज्ञान के मूल स्रोत वही हैं और ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन पर निर्भर हो जाना है। एक तरह से जो विचार हम प्राप्त करते हैं, उसका प्रतिनिधित्व शिक्षक ही करते हैं। शिक्षकों को हमेशा से यह आजादी मिली हुई है कि उन्हें जो ज्ञान सही लगता है, उसे ही वे अपने छात्रों को बताएं। शिक्षकों के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि उनके छात्र समाज की सोच को सही दिशा दे पाने में सक्षम हों।

शिक्षा में अंग्रेजों की भूमिका

प्राचीन काल से जो शिक्षा प्राप्त करने की परंपरा चली आ रही थी, उसमें धीरे-धीरे काफी बदलाव हुए। न केवल शिक्षा का स्वरूप बदला, बल्कि शिक्षकों की संकल्पना भी बदलती रही। नालंदा विश्वविद्यालय जो कि दुनियाभर से आने वाले छात्रों का केंद्र था, इसे नष्ट किया गया। उसी तरह से अंग्रेजों ने भी शिक्षा को नए सांचे में ढालने का काम किया। वैश्वीकरण का भी दौर चला है। इसमें भी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं। तकनीकी बदलाव हुए हैं। शिक्षा का स्वरूप बदला है तो जाहिर सी बात है कि शिक्षकों की भूमिका में भी बदलाव आए हैं।

शिक्षा के विभिन्न आयाम

पहले जब लोग कम पढ़े-लिखे थे तो पढ़े-लिखे लोग ही शिक्षक के तौर पर उनका मार्गदर्शन करते थे, लेकिन आज के दौर में जब मीडिया व सूचना तकनीकों का इतना विस्तार हो गया है तो दूरस्थ शिक्षा के कारण शिक्षकों के स्वरूप में भी बदलाव आए हैं। एक तरह से मानव संबंधों की महत्ता घटी है। तकनीकी कुछ ऐसी हावी हुई हैं कि अब तो डिजिटल मीडिया को अपने शिक्षक के तौर पर छोटे बच्चे भी अपना रहे हैं।

पुनरावलोकन की जरूरत क्यों?

समय के साथ बदलती परिस्थितियों के मुताबिक शिक्षा को ढालना भी जरूरी है। ऐसे में शिक्षा और शिक्षक, इन दोनों का पुनरावलोकन जरूरी है। तकनीकी शिक्षक उभर कर सामने आ रहे हैं। शिक्षकों की परंपरागत भूमिका पर इसका सीधा प्रभाव भी पड़ा है। प्रासंगिकता तक उनकी प्रभावित हुई है। यूट्यूब, फेसबुक, गूगल स्कॉलर आदि के जरिए पाठ्य सामग्री की भरमार हो गई है। ऐसे में जरूरी है कि शिक्षा और शिक्षकों के बदलते स्वरूप के अनुसार इन्हें सांस लेने का पर्याप्त मौका दिया जाए।

शिक्षकों की अन्य जिम्मेवारियां

वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षक बनने की बात हो तो युवाओं की पसंद में यह बहुत नीचे चला जाता है। आर्थिक दृष्टि से भी इसके आकर्षक नहीं होने से इसके प्रति युवाओं का मोहभंग हुआ है। कई बार शिक्षकों के आचरण को लेकर भी कई तरह की ऐसी खबरें सामने आती हैं, जो कि इनकी मर्यादा को प्रभावित करती हैं। शिक्षक के तौर पर अपने मूल दायित्व से हटकर पैसे कमाने की चाह भी शिक्षकों पर हावी हुई है, जिसकी वजह से उनकी भूमिका पहले से कहीं अधिक बदल गई है।

यहां सुधार की आवश्यकता

दौर बदल गया है तो निश्चित तौर पर शिक्षकों की भूमिका भी बदली है। नई चीजों के साथ तालमेल बैठाकर चलना जरूरी है। आज जब इंटरनेट और सोशल मीडिया भी ज्ञान प्राप्त करने का केंद्र बनते जा रहे हैं और ये भी शिक्षकों की तरह पेश आ रहे हैं तो ऐसे में शिक्षकों को भी अपने परंपरागत तरीकों के साथ नए तरीकों को भी शामिल करते हुए और सामंजस्य बैठाते हुए शैक्षणिक कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। शिक्षकों के समान शिक्षकों की गरिमा को आगे भी बरकरार रखने के लिए शिक्षकों का अपनी बदलती भूमिका को समझना जरूरी है।समाज में शिक्षकों की भूमिका कैसे विकसित होती गयी और वर्तमान समय के मुताबिक शिक्षकों की भूमिका को किस तरह से परिभाषित किए जाने की जरूरत है, इस लेख में आपने पढ़ा है। निश्चित तौर पर शिक्षकों की भूमिका ही निर्धारित करती है कि समाज किस दिशा में आगे बढ़ेगा और उसका भविष्य कैसा होगा?

शिक्षक  क्या हैं ?

शिक्षक शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द टीचर का हिंदी अनुवाद जैसा प्रतीत होता है। यानि एक ऐसा इंसान जो शिक्षण का कार्य करता है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को सहजता और विशेषज्ञता के साथ करता है।
भारत में शिक्षक के लिए गुरू शब्द का प्रयोग प्राचीनकाल से होता आया है, गुरू का शाब्दिक अर्थ होता है संपूर्ण यानि जो हमें जीवन की संपूर्णता को हासिल करने की दिशा में बढ़ने के लिए हमारा पथ आलोकित करता है। 21वीं सदी में शिक्षा अनेकानेक बदलाव के दौर से गुजर रही है, पर मानवीय संपर्क और दो-तरफा संवाद की भूमिका समय के साथ और भी ज्यादा प्रासंगिक होकर हमारे सामने आ रही है।

शिक्षक की भूमिका है महत्वपूर्ण

भले ही पश्चिमी देशों में पर्सनलाइज्ड लर्निंग जैसे संप्रत्यय लोकप्रियता पा रहे हैं और आर्टिफीशियल इंटलीजेंस पर लोगों का भरोसा बढ़ता जा रहा है, मगर वैज्ञानिक इस बारे में चेतावनी भी जारी कर रहे हैं कि ऐसी तकनीक इंसानों के लिए एक दिन जानलेवा साबित हो सकती है।इसी सिलसिले में प्रकाशित एक लेख में मानवीय भूलों व मूर्खताओं को इंसानी स्वभाव के लिए अति-आवश्यक बताते हुए इस बात की वकालत की गई कि मशीनों में भी ऐसी विशेषताओं का विस्तार करने की जरूरत है ताकि उनको ज्यादा मानवीय बनाया जा सके।

बच्चों का पहला ‘रोल मॉडल’ होता है शिक्षक

अभी हाल ही में एक अभिभावक ने अपने छोटे बच्चों के लिए स्कूल का चुनाव करने का अनुभव सुनाते हुए कहा कि परिवार के बाहर बच्चों का पहला ‘रोल मॉडल’ शिक्षक ही होता है। एक बच्चा बहुत से लोगों को अपने शिक्षक की बात मानता हुआ, उनके इशारे पर किसी काम को करते हुए और नेतृत्व करते हुए देखता है तो भीतर ही भीतर प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता है। ऐसे में जरूरी है कि उसके शिक्षक योग्य हों और अपने काम को पूरी विशेषज्ञता, तन्मयता और प्रभावशीलता के साथ करें।
इसके साथ ही बच्चे को वह स्नेह और आश्वासन दें जो उसे भविष्य के लिए जिम्मेदारी लेने वाला, अपनी ग़लती स्वीकार करने वाला और अपनी ग़लतियों के सीखकर आगे बढ़ने वाला इंसान बनाएं ताकि वह जीवन में प्रगति पथ पर निरंतर आगे बढ़ता हुआ अपनी संभावनाओं को शिखर को छू सके और एक स्वपन को साकार कर सके जिसे इंसान की सर्वश्रेष्ठ संभावनाओं को वास्तविकता में बदलना कहते हैं। यह हुनर ही एक शिक्षक को ख़ास बनाता है कि वह संभावनाओं को सच्चाई में तब्दील करने का हुनर जानता है, वह अपने छात्र-छात्राओं को बच्चों जैसा नेह देता हे और चुनौतियों से जूझने और खुद से बाहर आने का संघर्ष करने की स्वायत्तता और स्वतंत्रता भी।

शिक्षक मात्र वेतनभोगी कर्मचारी नहीं है

यानि शिक्षक की भूमिका एक ऐसे कोच की भांति है जो ओलंपिक जैसे किसी कड़ी प्रतिस्पर्धा वाले खेल के लिए अपने बच्चों को तैयार करता है। मगर यह भी जानता है कि इस खेल में हर किसी को एक ही मंज़िल पर नहीं जाना है। इनमें से बहुत से हैं जो अच्छे दर्शक बनेंगे। इनमें वे भी हैं जो लेखक बनेंगे। इनमें वे बच्चे भी हैं जो संगीत की दुनिया में अपना नाम रौशन करेंगे। इनमें वे बच्चे भी हैं जो शिक्षक बनकर बाकी बच्चों के सपनों को साकार करने की भूमिका स्वीकार करेंगे। यानि एक शिक्षक संभावनाओं के द्वार के पार जाने वाले इंसानों को निर्माण की भूमिका में सदैव समर्पण के साथ लगा रहता है, वह मात्र वेतनभोगी नहीं होता।
एक शिक्षक केवल पुरस्कार और पद का आकांक्षी नहीं होता, वह सच्चे अर्थों में एक विज़नरी होता है और भविष्य की दिशा तय करने व उसके बदलाव में अपनी भूमिका को सहज ही पहचान लेता है। भले कितनी ही मुश्किलें आएं, मगर वह इस रास्ते से कभी विमुख नहीं होता है। क्योंकि उसका काम अंधेरे के खिलाफ लड़ने वाली पीढ़ी को भविष्य की अबूझ चुनौतियों के लिए तैयार करना है, जिन चुनौतियों के बारे में वह सिर्फ अनुमान भर लगा सकता है। क्योंकि वे भविष्य के गर्त में हैं, इसलिए वह अपने छात्र-छात्राओं की क्षमता पर भरोसा करता है और उन्हें अपने जीवन में संघर्ष करने और अपने सपनों को जीने व उनका उनका पीछा करने के लिए सदैव प्रोत्साहित करता रहता है।
आखिर में एक जरूरी बात कि शिक्षक फ़ॉलोअर्स नहीं लीडर तैयार करते हैं। नेतृत्वकर्ता बनाने और नेतृत्व कौशल सिखाने के लिए जरूरी है कि हम खुद नेतृत्व करें। समाज में नेतृत्व करते नजर आएं। ऐसे उदाहरण पेश करें जो बच्चों/समुदाय को कई आयामों से अपने जीवन के अनुभवों पर चिंतन करने का अवसर देते हैं।

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