“न्याय में देरी अन्याय हैं”14 वर्षो के बाद भी पत्रकार उमेश राजपूत को नही मिला न्याय:पत्रकार स्व. उमेश राजपूत की प्रतिमा का हुआ अनावरण

रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
छुरा/गरियाबंद (गंगा प्रकाश)। शुरू करने से पहले मैं उद्धृत पंक्ति “न्याय में देरी, न्याय न मिलने के समान है” कि उत्पत्ति के बारे में कुछ प्रकाश डालना चाहूँगा। यह पंक्ति विलियम इवार्ट ग्लैडस्टोन (1809 – 1898) द्वारा लिखी गई थी। वह सबसे महान अंग्रेजी राजनेताओं में से एक थे और पूर्व ब्रिटिश प्रधान मंत्री भी थे।15 अगस्त 1947 भारतीयों के लिए एक यादगार दिन हैं। इसी दिन आधी रात को भारत को आजादी मिली थी। ब्रिटिश सैनिकों को लेकर आखिरी जहाज़ भारत से इंग्लैंड के लिए रवाना हुआ था। इस प्रकार इस दिन स्वतंत्रता के लिए संघर्ष समाप्त हुआ था। लेकिन सच कहें तो यह केवल एक संघर्ष की शुरुआत थी एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में रहने और न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के विचारों के आधार पर लोकतंत्र स्थापित करने का संघर्ष। इन आदर्शों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अन्य बातों के साथ-साथ घोषणा की गई है कि –
“हम भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और इसके सभी नागरिकों को न्याय दिलाने का गंभीरता से संकल्प लेते हैं। सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक… लेकिन आजादी के 76 साल बाद, हमारे पास अंतहीन कानून हैं लेकिन पर्याप्त न्याय नहीं है। हमारे संविधान के संस्थापकों ने “न्याय” को सर्वोच्च स्थान पर रखा और हमारे संविधान की प्रस्तावना ने न्याय को उच्च स्थान पर रखा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी अन्य विशेषताएं। लोग न्याय की तलाश में न्यायपालिका के पास जाते हैं।
डॉ. साइरस दास2 के शब्दों में, “न्याय एक उपभोक्ता उत्पाद है और इसलिए उसे विश्वास, विश्वसनीयता और भरोसेमंदता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। किसी भी अन्य उत्पाद को यदि बाजार जांच से बचना है। यह नागरिकों के लिए मौजूद है, ‘जिनकी सेवा में केवल न्याय प्रणाली को काम करना चाहिए।न्यायिक जिम्मेदारी, जवाबदेही और स्वतंत्रता हर मायने में अविभाज्य हैं। वे न्यायपालिका की संस्था में सन्निहित हैं और होने भी चाहिए।मामलों की बढ़ती बकाया राशि, निपटान में देरी और न्याय प्राप्त करने की उच्च लागत के कारण न्यायपालिका की विश्वसनीयता अब खतरे में है। देरी के माध्यम से न्याय से इनकार यह कानून का सबसे बड़ा मजाक है। यह महज मजाक नहीं है, वास्तव में देरी देश की न्याय वितरण प्रणाली के पूरे ढांचे को खत्म कर देती है।’कहीं भी अन्याय न्याय के लिए खतरा है।
एक समय था जब बर्बरता का युग था। सभ्यता अनेक उतार-चढ़ावों से गुज़रकर आगे बढ़ना शुरू करती है। आज हम, कहें तो, सभ्यता की पराकाष्ठा पर पहुंच गए हैं। न्याय और न्यायपालिका उस सभ्यता का अपरिहार्य परिणाम है। लेकिन आज का समाज न्याय की प्रक्रिया की शिथिलता का शिकार है। लोग दुर्भाग्य से अन्याय का शिकार हो जाते हैं। वे दिन-ब-दिन कष्ट भोगते हैं। भारतीय लोगों का एक बड़ा हिस्सा बहुत गरीब और अशिक्षित भी है। वे अपनी मेहनत की कमाई चुकाकर न्याय पाने के लिए अदालत में आते हैं। वे दिन-ब-दिन अधिवक्ताओं, कानून क्लर्कों को भुगतान करते हैं और न्याय की प्रतीक्षा करते हैं। वे अदालत की फीस और वोकलटनामे का भुगतान करते हैं और न्याय की प्रतीक्षा करते हैं। महीने पर महीने, साल पर साल बीतते जाते हैं – वे न्याय की प्रतीक्षा करते हैं।वे वकीलों, कानून क्लर्कों की फीस और अन्य खर्चों को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ बेचकर धीरे-धीरे कंगाल हो जाते हैं और फिर भी न्याय की प्रतीक्षा करते हैं। कभी-कभी वे दुनिया से चले जाते हैं और उन्हें कभी न्याय नहीं मिल पाता। न्यायपालिका में टाल-मटोल की नीति उन्हें न्याय पाने से वंचित कर देती है। इस प्रकार भारतीय न्यायिक प्रणाली में कई पीड़ितों से न्याय अछूता रहता है। जितना अधिक उन्हें राहत नहीं मिलती, उतना ही उनका न्यायपालिका पर से विश्वास उठता जाता है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे लोग कानून अपने हाथ में ले लेंगे, जिससे सामाजिक अराजकता फैल जाएगी। चारों ओर निराशा और निरर्थकता का गहरा अंधकार होगा – शून्यवाद और संशयवाद। पूरा समाज ख़तरे में पड़ जाएगा, क्योंकि पूरी न्यायिक व्यवस्था अपने ही बोझ से ढह जाएगी। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के शब्दों में, “….न्याय प्रणाली में लोगों का विश्वास कम होना शुरू हो जाएगा, क्योंकि जिस न्याय में देरी होती है उसे भुला दिया जाता है, खारिज कर दिया जाता है और अंततः खारिज कर दिया जाता है।लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है की कोई लगातार 14 वर्षो अपने बड़े भाई के हत्यारे को बेनकाब कर  जेल की सलाखों के पीछे देखने और अपने बड़े भाई को न्याय दिलाने लगातार 14 वर्षो से संघर्ष कर रहा हो ऐसा छुरा के पत्रकार स्व.उमेश राजपूत के छोटे भाई परमेश्वर राजपूत में वो जज्बा देखने को मिल रहा हैं जो लगातार न्याय की आस में आज भी न्यायालय की चोखट पर लगातार दस्तक दे रहा हैं।इसी कड़ी में पत्रकार स्व. उमेश राजपूत का प्रतिमा का अनावरण उनके गृह ग्राम हीराबतर में हुआ हैं जहां कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बिन्द्रानवागढ़ विधायक जनक ध्रुव एवं अध्यक्षता विहिप जिला अध्यक्ष शिशुपाल सिंह राजपूत एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में पत्रकार अशोक दिक्षित, पत्रकार कुलेश्वर सिन्हा,कांग्रेस कमेटी जिला महामंत्री सैय्यद चिराग अली, छुरा ब्लाक कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष बालमुकुंद मिश्रा , ग्राम पंचायत रसेला सरपंच बिगेन्द्र ठाकुर, सरपंच प्रतिनिधि दयालु राम कुंजाम, उपस्थित हुए। जिनका सभी ग्रामवासियों ने आत्मीय स्वागत किये। वहीं स्थानीय विधायक व जनप्रतिनिधियों एवं जिले भर से पहुंचे सभी पत्रकारों एवं ग्रामवासियों की उपस्थिति में पुजा अर्चना कर प्रतिमा का अनावरण दुर्गा चौक मंदिर के पास किया गया।
  तत्पश्चात सभी जनप्रतिनिधियों एवं पत्रकारों व ग्राम के प्रमुखों ने मंच को संबोधित करते हुए कहा कि जिवित अवस्था में इस ग्राम व क्षेत्र की समस्याओं एवं दबे कुचले लोगों की आवाज को उठाने में उमेश राजपूत की एक अहम भूमिका रही। लेकिन अज्ञात अपराधियों के द्वारा दिन दहाड़े उनके निवास स्थान पर गोली मारकर हत्या कर दी गई और प्रशासन, राज्य और केन्द्र की जांच एजेंसियों और सरकार एवं न्यायपालिका अब तक उसके हत्यारों को सजा दिलाने और परिजनों को न्याय दिलाने में असफल रही,जो सभी के लिए एक गंभीर और सोचनीय विषय है।
वहीं एक तरफ सभी लोगों ने उनके परिजनों की भी तारीफ करते हुए कहा कि आज लगातार उनके परिजन पिछले बारह वर्षों से प्रशासन, सरकार और न्यायपालिका से उम्मीद लगाए हुए हैं और आज भी न्यायालय के फैसले के आस में हैं कि अपराधी कब सलाखों तक पहुंचेंगे और हमें कब न्याय मिल पायेगा।
इस कार्यक्रम के अवसर पर गरियाबंद क्षेत्र से पत्रकार चंद्रहास निषाद, मनोज कुमार गोस्वामी, सत्यनारायण विश्वकर्मा, राकेश देवांगन, मोतीराम पटेल, एवं छुरा क्षेत्र से उज्जवल जैन, मनोज सिंग ठाकुर, प्रकाश यादव,विकास ध्रुव,यामिनी चंद्राकर,अनीश सोलंकी,मेषनंदन पाण्डेय, इमरान मेमन, रेवेन्द्र दिक्षित, नागेश तिवारी, हेमंत तिवारी,परस सिन्हा, परमेश्वर यादव, धर्मेंद्र यादव,किशन सिन्हा, भूपेंद्र सिन्हा, योगेश्वर जांगड़े के साथ इफको टोकियो ग्रामीण समन्वित विकास परियोजना के अधिकारी तनवीर ख़ान, हरीश यादव लघु वनोपज सहकारी समिति प्रबंधक प्रेम सिंह ठाकुर व दिनेश सिन्हा के साथ ग्राम प्रमुख बेद राम ठाकुर,टकेश नेताम, नकुल यादव, ईश्वर नेताम,टिकेचंद, नरसिंह, कामता प्रसाद, भास्कर शर्मा, कोटवार तुलसी राम,सुरेश कुमार,बिसवा नेताम के साथ बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक एवं ग्रामीण जन उपस्थित रहे।

सेंट्रल जेल में रची गई थी पत्रकार उमेश की हत्या की साजिश?

बताते चले कि गरियाबंद के पत्रकार उमेश राजपूत की हत्या की साजिश केंद्रीय जेल बिलासपुर में रची गई थी। उसकी हत्या ब्लैकमेलिंग के चलते हुई थी। सिम्स से दस्तावेज जुटाने सीबीआई की टीम शहर  जुटी हुई थी। टीम ने सिम्स के डॉक्टरों से पूछताछ भी की है। बताया जा रहा था कि उसकी हत्या करने वाले शूटर की पहचान हो गई है, सीबीआई उसकी सरगर्मी से तलाश कर रही है।
गरियाबंद के पत्रकार उमेश राजपूत की 23 जनवरी 2011 की रात घर घुसकर गोलीमार कर हत्या कर दी गई थी। हत्या के बाद आरोपी फरार हो गए थे। शुरुआती जांच में पुलिस ने इस मामले की जांच की थी। लेकिन, जांच के दौरान पुलिस को कोई सुराग हाथ नहीं लगे थे। लिहाजा, इस हाईप्रोफाइल हत्याकांड की सीबीआई जांच की मांग को लेकर हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी।हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए थे तब से सीबीआई की टीम इस प्रकरण की जांच में जुटी हुई थी। सीबीआई के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार उनकी टीम इस केस की जांच की सिलसिले में महासमुंद के साथ ही रायपुर व बिलासपुर कई बार आ चुकी थी। प्रारंभिक जांच में खुलासा हुआ था कि ब्लैकमेलिंग के चलते उमेश की हत्या की गई थी। लिहाजा, इसी आधार पर सीबीआई ने तथ्य जुटाने का प्रयास शुरू किया था। लेकिन, पुलिस की लीपापोती के चलते टीम को कोई सुराग हाथ नहीं लगा था।फिर टीम ने पुलिस की केस डायरी का अध्ययन कर साक्ष्य जुटाना शुरू किया। जांच के दौरान ही पता चला कि उमेश के घर सामने आए दिन एक कार आती थी। उमेश अक्सर उसमें रायपुर के एक होटल जाता था। इसी आधार पर सुराग तलाशते हुए सीबीआई की टीम होटल तक पहुंची। तब सीबीआई को नए-नए तथ्यों का पता चला था। जांच के दौरान ही टीम को पता चला कि बिलासपुर के केंद्रीय जेल से उमेश की हत्या के तार जुड़े हैं।
इससे पहले टीम ने उमेश के दोस्तों व परिचितों से जानकारी जुटा ली थी। तब पुलिस ने बिलासपुर में जांच फोकस किया। यहां आने के बाद टीम ने केंद्रीय जेल से भी तथ्य जुटाए थे। तब पता चला कि सीबीआई जिसे संदेही मान रही है वह आरोपी एक होटल में हुए हत्याकांड के मामले में केंद्रीय जेल में बंद है। जेल में आने के बाद से उस संदेही ने गंभीर बीमारी का बहाना बना कर फर्जी दस्तावेज तैयार कराया था, जिसके आधार पर वह इलाज कराने के लिए वह संदेही बार-बार सिम्स व रायपुर अस्पताल में भर्ती होता रहा। सीबीआई को जो सूबत मिले थे वह चौंकाने वाले थे।दरअसल में संदेही आरोपी को 2010 के पहले किसी तरह की कोई बीमारी ही नहीं थी। हत्याकांड में आरोपी बनकर जेल पहुंचते ही उसे किडनी व लीवर की गंभीर बीमारी आखिर कैसे हो गई थी? लिहाजा, सीबीआई की टीम ने मेडिकल स्पेशलिस्ट की मदद ली थी तब पता चला था कि जेल से इलाज के बाहर निकलने के लिए फर्जी मेडिकल दस्तावेज तैयार कराया गया है। सीबीआई की टीम के पास सारे फर्जी दस्तावेज उपलब्ध थे, जिसके सहारे वह जेल से बाहर निकलता था।सीबीआई की जांच में यह भी पता चला था कि अस्पताल में भर्ती रहते हुए रायपुर में एक प्रतिष्ठित होटल में ठहरता था। चूंकि, उमेश की उसकी दोस्ती थी। लिहाजा, उसने मिलने के बहाने चोरी छिपे उसका वीडियो क्लीपिंग तैयार कर लिया था। सीबीआई का ऐसा मानना था कि इसी बीच उमेश ने वीडियो होने का दावा कर संदेही आरोपी को ब्लैकमेलिंग करना शुरू कर दिया?लिहाजा, उनके बीच समझौता कराने का प्रयास भी हुआ था इस समझौते के दौरान ही उमेश के पास शहर की आई कार उसे लेने के लिए गरियाबंद जाता था।एक तरह से उमेश उस कार का ही उपयोग करने लगा था। इसके चलते स्थानीय लोगों को भी आश्चर्य हुआ था कि अचानक से उसके पास कार कैसे आ गई। सीबीआई ने वह वीडियो क्लिप भी हासिल कर लिया था, जिसके जरिए संदेही आरोपी को ब्लैकमेलिंग किया जाता था। सीबीआई के पास इतने सारे साक्ष्य के साथ ही ऐसे कई गवाह भी थे, जो ब्लैकमेलिंग की बातों व हत्या कराने की पुष्टि कर रहे थे। सीबीआई की टीम जेल से दस्तावेज जुटाने के बाद सिम्स प्रबंधन को पत्र लिखकर दस्तावेज उपलब्ध कराने कहा था।इसके साथ ही टीम ने सिम्स के एमएस डॉ. रविकां दास सहित अन्य डॉक्टरों से पूछताछ की थी ।
सीबीआई के उच्च पदस्थ सूत्रों ने पत्रकारों को बताया था कि केंद्रीय जेल में बंद हत्याकांड के आरोपी के बारे में भी जानकारी जुटाई गई है। 2 जुलाई 2010 से पहले उसे किसी तरह की कोई बीमारी नहीं थी। जेल में बंद होने के बाद ही उसने शहर के बड़े नेताओं की मदद से किडनी व लीवर में गंभीर बीमारी होना बताकर फर्जी मेडिकल दस्तावेज तैयार कराया हैं।जांच में यह भी पतासाजी की गई कि संदेही आरोपी को क्या-क्या दवा दी जाती है। कभी कोई ऑपरेशन या डायलिसिस तो नहीं की गई। जांच में बीमारी व उसके शरीर से कोई मेल नहीं हो रहा था। सिम्स प्रबंधन के पास इस मामले में कोई दस्तावेज ही मौजूद नहीं थे। ऐसे में यह माना जा रहा था कि या तो दस्तावेजों को गायब कर दिया गया है या फिर जला दिया गया है। लिहाजा, सीबीआई की टीम अब फर्जी मेडिकल दस्तावेजों की जांच दिल्ली के एम्स के डॉक्टरों की टीम से कराई थी।

सीबीआई के निशाने पर थे लीपापोती करने वाले 8 पुलिस अफसर

सूत्रों का कहना है कि उमेश की हत्या के बाद साक्ष्य मिटाने व लीपापोती करने में 8 पुलिस अफसरों की भूमिका संदिग्ध है, जिसमें एक महिला अफसर भी शामिल हैं, जिसने उमेश की हत्या के बाद जांच के बहाने मोबाइल, कैमरा व कम्प्यूटर में रखे क्लिप को गायब कर दिया था।
जांच के दौरान टीम को यह भी पता चला है कि उमेश के घर से पुलिस ने दस्तावेज भी गायब कर दिए हैं और उनकी जब्ती तक नहीं बनाई गई है। लीपापोती करने वाले सभी पुलिस अफसर सीबीआई के निशाने पर थे। उनके खिलाफ भी साक्ष्य छिपाने, कूटरचना करने सहित अन्य मामलों के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

सिम्स के डॉक्टरों की भूमिका संदिग्ध

सीबीआई सूत्रों ने बताया कि हत्याकांड के इस गंभीर प्रकरण में सिम्स प्रबंधन से एमएस व डॉक्टरों की भूमिका संदिग्ध है। जिनकी मदद से फर्जी दस्तावेज तैयार किया गया है। एम्स की टीम से जांच कराने के बाद कूटरचना कर फर्जी दस्तावेज तैयार करने वाले डॉक्टरों पर भी कार्रवाई हो सकती है। सीबीआई की टीम की गहन पूछताछ व दस्तावेज जुटाने को लेकर डॉक्टरों में हड़कंप मच गया था।

स्व.उमेश राजपूत हत्याकांड से भी सीबीआई हुई है दागदार 2011 का प्रकरण आज तक है अनसुलझा?

गरियाबंद ग्राम छुरा में 23 जनवरी 2011 के पूर्व सीबीआई में पीएमओ में शायद ही कोई जानता रहा हो ?यहां हुए उमेश राजपूत पत्रकार के मर्डर केस के बाद अभी भी 2021 तक सीबीआई के डीएसपी एनपी मिश्रा नमो प्रसाद मिश्रा के पत्राचार के कारण व्हीआईपी हलकों में चिंता की लकीरें थी। एनपी मिश्रा ने 1-2 नहीं 3 आईपीएस जो कि सीबीआई में ही कार्यरत है पर गंभीर आरोप लगाए थे मिश्रा जी 1-2 नहीं 100 पत्र लिख चुके हैं यदि उनके पत्रों में कोई सच्चाई नहीं होती तो अभी तक उन्हें निलंबित किया जा चुका होता मिश्रा जी के पत्राचार पर बाद में चर्चा करेंगे अभी हम यह समझे कि उमेश राजपूत पत्रकार गरियाबंद हत्या दिनांक 23 जनवरी 2011 छत्तीसगढ़ की कानून व्यवस्था सत्ता और अपराधियों के संबंध के साथ महत्वपूर्ण क्यों है।19 दिसंबर 2010 के दिन जाने आज का ही दिन बिलासपुर में दैनिक भास्कर के पत्रकार सुशील पाठक की हत्या हुई थी और 1 महीने से कुछ ज्यादा दिन पर 23 जनवरी 2011 को उमेश राजपूत का उन्हीं के घर के मुख्य दरवाजे पर 6:30 बजे शाम को गोली मारकर उनकी हट्टीया कर दिया गया था । जनवरी का महीना 6:30 बजे इतना अंधेरा नहीं होता कि एक पत्रकार को घंटी बजा कर घर से बाहर बुलाया जाए गोली मार दी जाए हत्यारे मोहल्ला, शहर छोड़कर फरार हो जाएं ?और सीबीआई जांच में भी कोई पकड़ा न जाए शुरुआत में स्थानीय पुलिस ने सविता नाम की एक महिला को हिरासत में लिया था सूत्र बताते हैं कि हत्या के कुछ ही दिन पहले स्व.उमेश राजपूत का अस्पताल वालों से भी विवाद हुआ था उसे खनिज माफियाओ से भी लगातार धमकी मिल रही थी तब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने भरोसा दिलाया था कि शीघ्र ही हत्यारे पकड़े जाएंगे और दोषियों को दंड मिलेगा। स्थानीय पुलिस ने 1-2 नहीं 11 लोगों का ब्रेन मैपिंग टेस्ट अदालत के आदेश से कराया किंतु कार्यवाही कुछ हो नहीं रही थी परेशान होकर मृतक के भाई परमेश्वर राजपूत ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का रुख किया था उन्होंने नागरिक अधिकारों के लिए हमेशा लड़ने वाली एडवोकेट सुधा भारद्वाज के माध्यम से याचिका लगाई जिस पर 18 दिसंबर 2014 को जस्टिस एमएम श्रीवास्तव ने सीबीआई जांच का आदेश दिया। लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब जब मामला सीबीआई के पास पहुंच गया है तो हत्यारे पकड़े ही जाएंगे 2014 में सीबीआई ने जांच प्रारंभ की और 23 सितंबर 2017 के दिन सीबीआई जांच पर ही मृतक की मां ने सवाल उठा दिए असल में हुआ यह था कि सीबीआई ने शिव वैष्णव नाम के एक पत्रकार को ही हिरासत में लिया था और 23 सितंबर 2016 के दिन हिरासत में ही पत्रकार शिव वैष्णव ने फांसी लगाकर अपनी जान दे दी पूरा मामला आश्चर्यजनक रूप से उलझ गया जिन पर जांच की जिम्मेदारी थी उन्हें ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया गया। जांच टीम का नेतृत्व डीएसपी एनपी मिश्रा ही कर रहे थे इस दौरान दो अहम गवाह और एक अन्य की असमय मृत्यु भी हो चुकी थी इस तरह सीबीआई हिरासत में एक व्यक्ति की मौत ने सब कुछ उलझा दिया मृतक के परिजनों का कहना था कि सबसे पहले पुलिस ने घटनास्थल से जप्त समान गायब कराया और जांच अधिकारी का कहना था कि बिलासपुर के एक बिल्डर का नाम हत्याकांड में आ रहा है। पर उससे पूछताछ की परमिशन नहीं मिलती अभी कुछ दिन पूर्व ही गरियाबंद थाने के पूर्व टी आई के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी जारी हुआ था। तब भी ऐसा लगा कि तब नहीं तो अब मामले का खुलासा होगा पर नहीं हुआ ।  उनकी नजरों में उमेश राजपूत और सुशील पाठक के हत्याकांड किस तरह जुड़े हुए हैं यह पत्र दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार पायोनियर में बड़ी सुर्खियों के साथ छपा था साथ ही उन दर्जनभर लोगों का जिक्र भी करेंगे जिनकी जांच होना चाहिए क्योंकि उन्होंने चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में हो कर भी अपराधियों के लिए फर्जी बीमारी सर्टिफिकेट बनाएं।

सिर्फ याचिका और आवेदन तक सिमटी न्याय व्यवस्था?

इस हत्याकांड में पुलिस और सीबीआई जांच एजेंसियों पर भी कई आरोप की बातें सामने आयी, पुलिस के ऊपर इस हत्याकांड में साक्ष्य छुपाने के आरोप में तत्कालीन थानेदार का गिरफ्तारी वारंट भी जारी हुआ था किंतु गिरफ्तारी नहीं हो पाई और वह आज भी नौकरी कर रहा है यह समझ से परे है। कि वह कानून से कैसे बाहर है। याचिकाकर्ता की मानें तो इस हत्याकांड में कई बड़े नामों का खुलासा होने की संभावना थी। दुर्भाग्य की बात ये भी हो जाती है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ समझे जाने वाले पत्रकार को घटना के 14वर्ष बीत जाने पर भी न्याय नहीं मिल पाना एक गंभीर सोचनीय विषय प्रतीत होता है?
जिला गरियाबंद  के पत्रकार स्व.उमेश राजपूत की 23 जनवरी 2011 को उनके निवास स्थान पर घर में पांच लोगों की उपस्थिति में गोलीमारकर कर हत्या कर दी गई थी। जिस पर चार वर्षों तक स्थानीय पुलिस के द्वारा जांच की गई किंतु अपराधियों की गिरफ्तारी नहीं होने से मृतक के छोटे भाई ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया जहां घटना के चार वर्ष बाद सीबीआई जांच का आदेश मिला बावजूद पांच साल बाद भी अपराधी कानून की नजरों से बचते रहे। मामले की सुनवाई विशेष सीबीआई कोर्ट रायपुर में चलती रही, किंतु हाईकोर्ट में सीबीआई की जांच रिपोर्ट नहीं पहुंची पाई जबकि हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि जितनी जल्दी हो सके पत्रकार उमेश राजपूत हत्याकांड में जांच कर जांच रिपोर्ट हाईकोर्ट में पेश करने का आदेश जारी किया गया था।

न्याय में देरी क्यों?

 
न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुंच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है। भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपालिका के बाहर से, बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सके। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है…

प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि न्याय मिलने में देरी देश के लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ लॉ मिनिस्टर्स एंड लॉ सेक्रेटरीज के उद्घाटन सत्र में प्रसारित अपने वीडियो संदेश में उन्होंने यह भी कहा कि कानूनों को स्पष्ट तरीके से लिखा जाना चाहिए और क्षेत्रीय भाषाओं में, ताकि गरीब से गरीब व्यक्ति उन्हें समझ सके। इस मुद्दे को हल करने के लिए विभिन्न सुझाव देते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा, ‘न्याय मिलने में देरी हमारे देश के लोगों के सामने एक बड़ी चुनौती है।’ प्रधानमंत्री जी का कथन इस बात को इंगित कर रहा है कि न्याय में देरी हमारे लिए ध्यान देने योग्य बिंदु है। आइए इसका विश्लेषण करें। सर्वप्रथम न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम एवं प्रधान सद्गुण है अर्थात सभी सामाजिक संस्थाएं न्याय के आधार पर ही अपनी औचित्यपूर्णता को सिद्ध कर सकती हैं। भारत में भी न्यायिक व्यवस्था का अपना अलग महत्त्व है। यदि भारतीय न्यायिक व्यवस्था का बारीकी से अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि न्यायाधीशों की कमी, न्याय व्यवस्था की खामियां और लचर बुनियादी ढांचा जैसे कई कारणों से न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो वहीं दूसरी ओर न्यायाधीशों व न्यायिक कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी अन्याय कहलाती है, लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था को यह विडंबना तेज़ी से घेरती जा रही है। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का आंकड़ा लगभग 3.5 करोड़ से अधिक पहुंच गया है। भारतीय न्यायिक प्रणाली की भी अनेक समस्याएं हैं जिसके कारण न्याय में देरी होती है। न्यायालय में लंबित मामले बढ़ रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार उच्चतम न्यायालय में 58700 तथा उच्च न्यायालयों में करीब 44 लाख और जि़ला एवं सत्र न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इन कुल लंबित मामलों में से 80 प्रतिशत से अधिक मामले जि़ला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं। इसका मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्तता का होना है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं।

विधि आयोग की एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिए। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी। कहा जाता है भारत में न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी एक मुख्य समस्या पारदर्शिता का अभाव है। न्यायालयों में नियुक्ति व स्थानांतरण में पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं उनका स्थानांतरण किया जाता है। कॉलेजियम प्रणाली में उच्चतम न्यायालय के संबंध में निर्णय के लिए मुख्य न्यायाधीश सहित 5 वरिष्ठतम न्यायाधीश होते हंै। वहीं उच्च न्यायालय के संबंध में इनकी संख्या 3 होती है। इस प्रणाली की क्रियाविधि जटिल और अपारदर्शी होने के कारण सामान्य नागरिक की समझ से परे होती है। ऐसी स्थिति में इस प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए संसद द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से असफल प्रयास किया जा चुका है। भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है जिसमें जानने का अधिकार भी शामिल है। इसको ध्यान में रखते हुए कोई भी ऐसी प्रणाली जो अपारदर्शी हो, उसको नागरिकों के अधिकारों की पूर्ति के लिए पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। न्यायालयों में भ्रष्टाचार को रोकने के क्या तरीके हैं? किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेही एक आवश्यक पक्ष होता है। इसको ध्यान में रखते हुए सभी सार्वजनिक पदों पर पदस्थ व्यक्तियों का उत्तरदायित्त्व निश्चित किया जाता है।

भारत में भी विधायिका और कार्यपालिका के संबंध में कई कानूनों एवं चुनावी प्रक्रिया द्वारा उत्तरदायित्व सुनिश्चित किए गए हैं, लेकिन न्यायपालिका के संदर्भ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने का एकमात्र उपाय सिर्फ महाभियोग ही होता है। भारत के सभी न्यायालयों में कई करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से कई मामले लंबे समय से लंबित हैं। मामलों का लंबित होना पीडि़तों और ऐसे लोगों, जो किसी मामले के चलते जेल में कैद हैं, किंतु उनको दोषी करार नहीं दिया गया है, दोनों के दृष्टिकोण से अन्याय को जन्म देता है। पीडि़तों के मामले में कुछ ऐसे संदर्भ भी रहे हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा, हालांकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। तो वहीं दूसरी ओर भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद हैं जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते हैं। साथ ही इतने वर्ष जेल में रहने के पश्चात उसे न्यायालय से आरोपमुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इस स्थिति में त्वरित सुधार किए जाने की आवश्यकता है। देशभर के न्यायालयों में न्यायिक अवसंरचना का अभाव है। न्यायालय परिसरों में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था में किसी वाद के सुलझाने की कोई नियत अवधि तय नहीं की गई है, जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष निर्धारित है। केंद्र एवं राज्य सरकारों के मामले न्यायालयों में सबसे ज्यादा हैं।

यह आंकड़ा 70 फीसदी के लगभग है। सामान्य और गंभीर मामलों की भी सीमाएं तय होनी चाहिए। न्यायालयों में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है। न्यायिक मामलों के संदर्भ में अधिवक्ताओं द्वारा किया जाने वाला विलंब एक चिंतनीय विषय है, जिसके कारण मामले लंबे समय तक अटके रहते हैं। न्यायिक व्यवस्था में तकनीकी का अभाव है। न्यायालयों तथा संबंधित विभागों में संचार की कमी व समन्वय का अभाव है, जिससे मामलों में अनावश्यक विलंब होता है। उच्च व निचली अदालतों में भी नियुक्ति में देरी होने के कारण न्यायिक अधिकारियों की कमी हो गई है, जो कि बहुत ही चिंताजनक है। इसी कारण मामलों के लंबित रहने का अनुपात बढ़ता जा रहा है और यह पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र को जकड़ चुका है। छोटे कार्यकाल और कार्य के भारी दबावों के कारण उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कानून को उत्कृष्ट बनाने और आवश्यक परिपक्वता अर्जित करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुंच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है। भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपालिका के बाहर से, बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सके। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है। अत: न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए।

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