दल बदलूओं की मची भगदड़ : भूपेश बघेल के करीबी रहें कांग्रेस के प्रभारी संगठन महामंत्री चंद्रशेखर शुक्ला ने “गोबर चोट्टा” करार देकर पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ खोला मोर्चा,हुए भाजपा में शामिल

रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
रायपुर(गंगा प्रकाश)।
ठंड को जैसे हरी सब्जियों का मौसम माना जाता है, वसंत ऋतु को फूलों का मौसम और बारिश को सर्दी- बुखार का मौसम कह सकते हैं। उसी तरह चुनाव को दल-बदल का मौसम माना जा सकता है। चुनाव के पहले कौन सा नेता किस पार्टी में शामिल होगा यह कहना मुश्किल हो जाता है। कल तक जिस नेता को गालियां देते थे, दुनिया का सबसे भ्रष्ट आदमी कहते थे अब उसको भगवान कहते हैं और उसी का ही भजन गाते हैं।अब पूरे छत्तीसगढ़ में यही मौसम है। कुछ नेता अपनी पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल हो गए हैं। दुसरे दिन जब अखबार से लोगों को इस बात का पता लगा तो आधे कन्फ्यूज हो गए कि कौन किस दल का नेता है। दोस्तों राजनीति में रोज कुछ न कुछ होता रहता है। वहां कोई किसी का स्थाई मित्र नहीं। जरूरत ही दुश्मन और दोस्त तय करती है। आज जो इस दल में है कल उस दल में होगा इसकी कोई गारंटी नहीं होती हैं।
पार्टी से याद आया कि कुछ पार्टियां है या नहीं यह जान पाना मुश्किल है। चुनाव से पहले कई छोटी-मोटी पार्टियों का संगम बड़ी पार्टियों से हो जाता है। इस दल-बदली के बारे में मैंने शोध किया। इसके चार ही कारण हैं। एक जो दल बदलने वाले नेता कहते हैं। दो-जो नेता के दल छोड़ने बाद वहां बचे नेता कहते हैं। तीन जिस पार्टी में नेता शामिल होते हैं उसी पार्टी के सदस्य जो कहते हैं और चार जिस कारण एक नेता दल छोड़कर दुसरी पार्टी में शामिल होता है वही होता है। असली कारण आपने अगर गौर किया होगा तो, पार्टी छोड़ने के बाद नेता अक्सर यही कहते हैं कि इस पार्टी का कोई आदर्श नहीं। इसमें लोकतंत्र ही नहीं,पार्टी के नेता स्वार्थी हैं। आम लोगों की बातों को वह नजरअंदाज कर देते हैं। मैं लोगों की सेवा के लिए जो करना चाहता हूं, वह कर नहीं पा रहा हूं। मेरा दम घुट रहा है। इसीलिए मैंने इस पार्टी को छोड़ कर उस पार्टी को ज्वाइन किया है।पार्टी छोड़ने वाले ज्यादातर नेता यही कहते हैं कि पूर्व पार्टी खराब थी, नई पार्टी अच्छी है। उन्हें स्वीकार करनेवाले नेता कहते हैं- उस दल के दिग्गज नेता बुरे हैं । जिन्होंने पार्टी ज्वाइन की है वही साधु हैं। जो साधु नेता हमारी पार्टी में शामिल हुए हैं उनके आने के बाद पार्टी और मजबूत होगी।फिर नेता जिस पार्टी को छोड़कर जाते हैं उस पार्टी के नेता कहते हैं उनके जाने से हमारा बिलकुल भी नुकसान नहीं होगा। पार्टी पर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा । वह बहुत ही स्वार्थी थे। पार्टी की हितों के बारे में नहीं सोचते थे। पार्टी का काम नहीं करते थे। केवल आत्म प्रचार में लगे रहते थे। उनके जाने से पार्टी और भी मजबूत हो गई है।अब दल-बदलने का असली कारण मैं आपको बताता हूं । असली कारण है, स्वार्थ और अभिमान । कुछ लोग अभिमान के कारण पार्टी छोड़ते हैं। पार्टी में जिस तरह का सम्मान मिलना चाहिए उस तरह का सम्मान न मिलने पर कुछ लोग पार्टी छोड़ते हैं। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या कम है। असलियत तो यह है कि अगर पुरानी पार्टी में अपना स्वार्थ पूरा न हो अथवा जो पद मिलना चाहिए वह न मिले तो नेता पार्टी छोड़ देते हैं। पकड़ो। छोड़ो। पकड़ो। छोड़ो। यह हमारी राजनीतिक संस्कृति बन चुकी है।
इसके लिए केवल राजनेता जिम्मेदार नहीं क्योंकि नेता पेड़ पर नहीं उगते । लोग हीं किसी इंसान को नेता बनाते हैं। कहते का मतलब यह है कि मतदाता हीं इसमें कुछ कर सकते हैं। अगर हम दल-बदलने वाले नेता को वोट न देकर खारिज कर दें, तो नेताओं को सीख मिलेगी। वरना इसी तरह अदला-बदली का मौसम चलता रहेगा।बताना लाजमी होगा कि इसी चुनावी मौसम में कांग्रेस महामंत्री चंद्रशेखर शुक्‍ला ने पार्टी ने इस्‍तीफा दे दिया है।पीसीसी अध्‍यक्ष दीपक बैज को भेजे अपने इस्‍तीफा में उन्‍होंने पार्टी पर विचारधारा से हटने और तुष्टिकरण की दिशा में बढ़ने का आरोप लगाया है। साथ ही पार्टी में पर अपनी उपेक्षा और अपमान का भी आरोप लगाया है। शुक्‍ला को पूर्व सीएम भूपेश बघेल का करीबी माना जाता है।
कांग्रेस से इस्‍तीफा देने के बाद शुक्‍ला आगे क्‍या करेंगे यह अभी स्‍पष्‍ट नहीं हुआ है, लेकिन आज ही पार्टी के एक पूर्व विधायक चुन्‍नीलाल साहू और वरिष्‍ठ नेता डॉ. चोलेश्‍वर चंद्राकर ने कांग्रेस से इस्‍तीफा देकर बीजेपी का दामन थाम लिया। साहू अकलतरा सीट से विधायक रहे हैं, जबकि चंद्राकर पार्टी के ओबीसी विभाग के प्रदेश अध्‍यक्ष रह चुके हैं। कांग्रेस सहकारिता प्रकोष्ठ के अध्यक्ष अजय बंसल ने भी इस्तीफा दे दिया है। सूत्रों के अनुसार अभी कई नेता पार्टी छोड़ने की कतार में खड़े हैं। बताते चले कि शुक्‍ला की गिनती बड़े किसान नेताओं में होती है।

भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश महामंत्री संजय श्रीवास्तव ने कहा कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस में अब चला चली की बेला है। पतझड़ की तरह कांग्रेस रूपी वृक्ष को उनके नेता और कार्यकर्ता लगातार छोड़ रहे है। वैसे तो पूरे देश में यही आलम है। केंद्रीय राजनीति में भी कई दिग्गज नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के नेता एक – एक कर पार्टी को छोड़ते जा रहे हैं। शनिवार को साइंस कॉलेज मैदान रायपुर में आयोजित भाजपा किसान मोर्चा के महाकुंभ के दौरान पूर्व विधायक एवं प्रदेश उपाध्यक्ष कांग्रेस कमेटी चुन्नीलाल साहू, डॉ. चौलेश्वर चंद्राकर पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी मोर्चा कांग्रेस, क्वालिन्स प्रदेश महामंत्री अल्पसंख्यक जोगी कांग्रेस, ब्रिगेडियर आशीष कुमार दास, अजय बंसल प्रदेश अध्यक्ष सहकारिता प्रकोष्ठ कांग्रेस पूर्व संचालक अपेक्स बैंक छत्तीसगढ़, सुरेश यादव पीसीसी प्रतिनिधि, प्रदेश उपाध्यक्ष पिछड़ा वर्ग कांग्रेस कमेटी, ए. दास साहू प्रदेश प्रवक्ता पिछड़ा वर्ग कांग्रेस कमेटी, सुमित राज साहू प्रतिनिधि जिला सचिव ऑल इंडिया प्रोफेशनल कांग्रेस, रामस्नेही जांगड़े प्रदेश उपाध्यक्ष अनुसूचित जाति विभाग प्रदेश कांग्रेस कमेटी, बृजमोहन साहू प्रदेश महामंत्री पिछड़ा वर्ग विभाग कांग्रेस कमेटी, लोरमी से सोहन डड़सेना पार्षद, हरिशंकर जायसवाल पूर्व पार्षद, अशोक शर्मा पूर्व पार्षद, रज्जू भारती वरिष्ठ कांग्रेस नेता सामाजिक कार्यकर्ता, सहित बड़ी संख्या में विभिन्न लोगों ने भाजपा की सदस्यता ली।

विधानसभा चुनाव के बाद अपने लेटर को लेकर चर्चा में आए थे शुक्‍ला

आज पार्टी छोड़ने वाले कांग्रेस के महामंत्री शुक्‍ला ने विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद पार्टी की तत्‍कालीन प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा और प्रदेश अध्‍यक्ष दीपक बैज को एक पत्र लिखा था। इसमें उन्‍होंने जमकर अपनी भड़ास निकाली थी। पत्र में शुक्‍ला ने लिखा है- आसन्न चुनाव में विपरीत परिणाम आने से सभी कांग्रेस जन दुखी एवं विचलित हैं, इस हार के लिए जो प्रत्यक्ष तौर पर जवाबदार थे उनकी बैठक (लीपा-पोती) आप लोगों ने दिल्ली में कर ली। नेता प्रतिपक्ष के चयन की औपचारिकता भी आप लोगों ने कर लिया, किन्तु 75 पार की बातें करते-करते हम 35 में क्यों सिमट गए, इसकी समीक्षा आज 15 दिनों बाद भी करने की आवश्यकता महसूस नहीं की जा रही है।

1. हमारी योजनाएं और प्लानिंग क्यों धरासी हुई ?

2. हमारे सर्वे जो 7-7 बार हुआ, वह क्यों असफल हुआ ?

3. नेताओं को क्षेत्र बदलकर, (महंत राम सुन्दर दास जी एवं छाया वर्मा जी) क्यों चुनाव लड़वाया गया ?

4. ब्लॉक एवं जिला कांग्रेस कमेटी से आये नामों पर, क्यों नहीं टिकिट बाटा गया ?

दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि दिल्ली के नेताओं का छत्तीसगढ़ राजनीतिक पर्यटन हब, मौज-मस्ती का केन्द्र बन गया है। एक-एक प्रकोष्ठ में 4-4 प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये। एल.डी.एम. रूपी के तमाशा किया गया। पैसे लेकर नियुक्तियां की गईं। जिस जोगी कांग्रेस को बामुश्किल हमनें संघर्ष कर बहार किया था उन्हें बुला-बुला कर उपकृत कर, राजनीतिक और शासकीय पदों से सम्मानित किया गया।

पराजय और संघर्ष हम कांग्रेसीयों के लिये नया नहीं है, हम कांग्रेसजन रात-दिन मेहनत कर, खून पसीना, जलाकर (खासकर हमारे किसान कांग्रेस की अति महत्वपूर्ण भूमिका थी 2018 में) अपने ऊपर शासकीय धाराएं लगवाकर, सरकार बनाते हैं और हमारे आदरणीय माननीय अपने नीहित स्वार्थों में लड़-झगड़ कर सत्ता गंवातें हैं। इसके लिये कोई एक नहीं, सारे मंत्री जिम्मेदार हैं, जो हवा में उड़ रहे थे, और पूरे 5 साल, पूरे तन-मन से कार्यकर्ताओं का अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे।

हमारी सिर्फ राजीव गांधी कृषि न्याय योजना अत्यंत असरकारी एवं लाभकारी थी, इसके अलावा गोठान, नरवा-गरवा-घुरवा-बाडी और राजीव युवा मितान, हाल बेहाल था तथा धरातल में साकार नहीं था। हम कलेक्टरों एवं शासकीय मिशनरियों के कार्यक्रमों में आयी भीड़ को देखकर सदैव गदगद रहते थे और समझ ही नहीं पा रहे थे कि प्रायोजित है।

इन सभी पर व्यपाक विस्तार से चर्चा होनी चाहिये। चर्चाएं और भी बहुत हैं और शिकायतें भी। यदि इन परिस्थितियों का हम सामना नहीं करेंगे तो हमारी स्थिति बद से बदत्तर होती जायेगी। सामनें लोकसभा चुनाव है, विधानसभा चुनाव शुद्ध रूप से हमारे प्रदेश के नेताओं की गलतियों की वजह से हारे हैं। पूरे पांच साल संगठन और सरकार में समन्वय नहीं रहा और जिन दलालों को हटाने का सपना लिये स्व. राजीव गाँधी जी चले गये, उन्हीं दलालों और वामपंथियों ने पार्टी में कब्जा कर लिया है। जिसका दुष्परिणाम हम सभी झेल रहे हैं।

आपसे निवेदन है जितने को भी नोटिस दिया गया है अथवा कार्यवाही की गई है, सभी को तत्काल निरस्त कर, सभी प्रकरणों को अनुशासन समिति में भेजें। तथा शीघ्रतिशीघ्र पार्टी की विस्तारित बैठक बुलाकर हार के कारणों की समीक्षा करें, तथा सुनिश्चित करें कि नविष्य में इस प्रकार की घटनाएँ न हो और भविष्य की रणनीति बनायें।कल हम सबके परम आदरणीय महंत राम सुन्दर दास जी ने व्यथीत होकर इस्तीफा दे दिया। इसके पूर्व सीतापुर सरगुजा के हमारे एक कार्यकर्ता भाई सुरेश अग्रवाल ने आत्महत्या कर लिया। भरे चुनाव में अम्बालिका साहू और तुलसी साहू, जैसे सशक्त नेत्रीयों का पार्टी छोड़ना, हम इन सब चीजों को समझ ही नहीं पा रहे थे।

अभी भी सालों से कांग्रेस के समर्पित निष्ठावान चार दर्जन से अधिक नेताओं को बिना कोई तथ्यात्मक प्रमाण के कारण बताओं नोटिस पकड़ा दिया गया। समन्वय और सामंजस जैसी शब्दों से पूरी तरह दरकिनार कर कार्यवाहियों की गई। चुनाव के दौरान बनाई गई समितियों ड्राइंग रूम के शोपीस बनकर रह गई। 2-2 पूर्व विधायकों को निष्कासित कर दिया गया। एक पूर्व मंत्री को भी नोटिस पकड़ा दिया। पार्टी में अनुशासन के नाम पर आंतरिक लोकतंत्र को दबाया, कुचला जा रहा है। जिसकी वजह से लोग दिल्ली से लेकर चौराहों तक आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।

भूपेश बघेल के करीबी रहें कांग्रेस के प्रभारी संगठन महामंत्री चंद्रशेखर शुक्ला ने “गोबर चोट्टा” करार देकर पूर्व मुख्यमंत्री  के खिलाफ खोला मोर्चा,हुए भाजपा में शामिल

छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री भू-पे बघेल के काले कारनामों से कांग्रेस बुरी तरह से घिर गई है। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार को लेकर खुद कांग्रेसी हैरान हैं। राज्य में लोकसभा चुनाव के मतदान के पहले ही आधी कांग्रेस बीजेपी में समा गई है। कांग्रेस छोड़ने वालों का तांता लगा हुआ है, कई सीनियर लीडर भू-पे को कटघरे मे खड़ा कर बीजेपी का दामन थाम रहे हैं। उनके बयान बता रहे हैं कि पूरे 5 साल तक भू-पे और उसकी टोली ने सिर्फ भ्रष्टाचार के अलावा प्रदेश में कोई रचनात्मक कार्य नही किया था।

छत्तीसगढ़ में विकास की जो नींव तत्कालीन बीजेपी सरकार ने वर्ष 2003 से लेकर 2018 तक रखी थी, उसी को कमजोर करने में भू-पे सरकार जुटी रही। कई निष्ठावान कांग्रेसी या तो घर बैठे हैं या फिर बीजेपी समेत दूसरी पार्टियों के दफ्तर का चक्कर काट रहे हैं। उन्हें ना तो अब कांग्रेस पर भरोसा है और ना ही भू-पे बघेल पर। उनके मुताबिक बघेल ने बीजेपी को सबक सिखाने के लिए राजनांदगांव लोकसभा सीट पर कुल 384 उम्मीदवार मैदान में उतारने का वादा किया था, ताकि यहां चुनाव EVM से ना कराकर बैलेट पेपर से कराए जाएं ? इस ऐलान से कांग्रेस को आशा की उम्मीद जगी थी। लेकिन भू-पे का यह वादा टांय-टांय फिस्स हो गया। बताया जाता है कि भू-पे बघेल को चुनावी मैदान में उतारने के लिए ना तो निर्दलीय प्रत्याशी मिले, और ना ही उनके प्रस्तावक। जबकि सारा चुनावी खर्च बघेल और कांग्रेस के सिर माथे पर था।

एक बार फिर बघेल का खोखला वादा कांग्रेसियों को मुंह चिढ़ा रहा है। नतीजतन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हालत बद से बदतर हो गई है। पार्टी के पूर्व प्रदेश प्रभारी संगठन महामंत्री चंद्रशेखर शुक्ला ने पूर्व मुख्यमंत्री भू-पे पर तीखा हमला किया है। देश में बिहार के चारा घोटाले के बाद सबसे ज्यादा चर्चा छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के गोबर घोटाला की हो रही है। चारा घोटाले में पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को जेल की हवा खानी पड़ी थी। लेकिन बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भू-पे बघेल भी अब जेल जाने की राह में हैं, सिर्फ आऊटर में खड़े हैं। करोड़ो के गोबर घोटाले में उनकी भूमिका सुर्खियों में है।बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री भू-पे बघेल ने ग्रामीण आबादी को गोबर बीनने में लगा दिया था। जबकि खुद वे सौम्या चौरसिया और सूर्यकांत तिवारी समेत अपनी टोली के साथ कोयले की तस्करी में लगे रहे। पूर्व कांग्रेसी नेता शुक्ला ने बघेल सरकार की आज बखिया उधेड़ दी है। उनका भाषण चर्चा में है। कवर्धा में बीजेपी प्रवेश करते ही चंद्रशेखर शुक्ला कांग्रेस और भू-पे बघेल पर फट पड़े। उनके मुंह खोलते ही कांग्रेस के भीतर गहमा गहमी मच गई है। शुक्ला ने आरोप लगाया कि पूर्व मुख्यमंत्री बघेल गोबर चोर हैं। उनके द्वारा गौधन न्याय योजना सिर्फ भ्रष्टाचार के लिए बनाई गई थी। इससे किसानों का कोई भला नही हुआ बल्कि नुकसान उठाना पड़ा। उनके मुताबिक बघेल ने एक बड़ी ग्रामीण आबादी को रोजगार के नाम पर गोबर बीनने में लगा दिया था, आम जनता दिन भर कामकाज कर मात्र 2 रूपए किलो मे सरकार को गोबर बेचती थी, बमुश्किल किसानों को दिनभर में 50 रूपए मिलते थे।

वहीं सरकार में बैठे कारोबारी उसी गोबर में यूरिया और मिट्टी मिलाकर 100 रूपए किलो में ऑर्गेनिक खाद के नाम पर बेच रहे थे। शुक्ला ने लोगों को बताया कि सस्ती लोकप्रियता पाने के चक्कर में कांग्रेस सरकार ने जनता पर भारी भरकम कर्ज लाद दिया है। कोल खनन परिवहन घोटाले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि रायगढ़,कोरबा और अंबिकापुर में भू-पे बघेल और उनकी टोली रोजाना करोड़ों का कोयला चोरी कर रही थी। कोयले पर 25 रूपए टन गब्बर सिंह टैक्स लिया जाता था। जबकि आम किसान 2 रूपए किलो में गोबर बेचकर अपना जीवन यापन कर रहा था। शुक्ला ने कोल खनन परिवहन घोटाले को लेकर बघेल सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं।

कांग्रेसी नेता चंद्रशेखर शुक्ला किसान आंदोलन के महत्वपूर्ण घटक थे। वे 2015 से लेकर 2022 तक किसान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे थे। उनकी माता जिला पंचायत अध्यक्ष थीं, शुक्ला का परिवार कट्टर कांग्रेसियों में गिना जाता है। लेकिन अब इस परिवार ने भी कांग्रेस से दूरियां बना ली है। शुक्ला ने बीजेपी पर भरोसा जताते हुए अपने सैकड़ो साथियों के साथ पार्टी प्रवेश किया है।
राज्य में लोकसभा चुनाव के प्रचार ने जोर पकड़ लिया है। लोकसभा की सभी 11 सीटों पर नामांकन प्रक्रिया अंतिम दौर में है, ऐसे समय भू-पे बघेल के काले कारनामों से कांग्रेस की जमकर फजीहत हो रही है, कई निष्ठावान कांग्रेसी पार्टी का बुरा हश्र देखकर हैरान हैं। उन्हें बीजेपी खूब रास आ रही है। हालाकि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस को उम्मीद है कि राजनांदगांव लोकसभा सीट में भू-पे की नैय्या पार हो जाएगी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज ने सभी 11 सीटों पर कांग्रेस की जीत का दावा किया है। बहरहाल बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर में भ्रष्टाचार का मुद्दा खूब उछल रहा है।

दलबदल के लिए घिसी-पिटी और हास्यास्पद दलीलें

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे दल और निष्ठा बदलने का खेल तेज हो गया है। सत्ता का मोह, सत्ता भोगने का लालच, जितने वाले दलों के प्रति आकर्षण, मंत्री पद मिलने के लुभावने वादे- ऐसे कारण हैं जो दलबदल के बाजार को गर्म करते हैं। चुनाव में जिस राजनीतिक दल का पलड़ा भारी दिखता है, उसमें घुसने की होड़ कुछ अधिक देखी जाती है। दलबदलू नेता पाला बदलने के लिए भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन असल में उनकी कोई विचारधारा ही नहीं होती दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? साथ ही वह जिस दल को छोड़ते हैं और जिससे जुड़ते हैं उन दोनों की सिरदर्दी बढ़ाते हैं।नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है।यद्यपि आजादी के बाद से ही नेताओं की छवि पर सवाल खडे होते रहे हैं।जन सेवा का भाव ही नेताओं के एजेंडे से गायब होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है,वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता।देश में लगातार दल बदल की घटनाओं के साथ नेताओं के व्यक्तिगत हित की चर्चा भी व्यापक तौर पर होती है।असर विभिन्न स्तर के चुनाव में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है। नेताओं की घटती विश्वसनीयता के कारण ही वोटिंग मशीन में नोटा का बटन जुड़ने को बड़ा कारण माना गया था।कई चुनावों में तो नोटा के खाते में आए वोटों से हार-जीत का गणित बदलते देखा गया।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के उपरांत जिस तरह नेताओं ने दल बदलना शुरू किया, उससे यही साफ हुआ कि भारतीय लोकतंत्र किस तरह अवसरवादी राजनीति से ग्रस्त है।
आम तौर पर दलबदल करने वाले नेताओं के पास एक जैसे घिसे-पिटे तर्क होते हैं। कोई कहता है कि उनकी जाति-बिरादरी के लोगों की उपेक्षा हो रही थी तो कोई अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाता है। दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं, उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? वे यह भी नहीं बताते कि क्या उन्होंने कभी उन मसलों को पार्टी के अंदर उठाया, जिनकी आड़ लेकर दलबदल किया?

निजी स्वार्थ की पूर्ति का प्रयोजन

यह एक तथ्य है कि दलबदल निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है। कुछ को टिकट न मिलने का डर होता है तो कुछ को अपनी यह मांग पूरी होती नहीं दिखती कि उनके साथ-साथ उनके सगे संबंधी को भी टिकट मिले। कुछ अपने क्षेत्र की जनता की नाराजगी भांपकर अन्य क्षेत्र से चुनाव लडऩे की फिराक में नए दल की ओर रुख करते हैं। दलबदल करने वाले नेता भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन सच यह है कि उनकी कोई विचारधारा नहीं होती। वे जिस दल में जाते हैं, उसकी ही विचारधारा का गुणगान करने लगते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक उसकी निंदा-भत्र्सना कर रहे होते हैं। विडंबना यह है कि कई बार मतदाता भी उनके बहकावे में आ जाते हैं।दलबदलू नेता जिस दल को छोड़ते हैं, केवल उसे ही असहज नहीं करते, बल्कि वे जिस दल में जाते हैं वहां भी समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि उसके चलते उसके क्षेत्र से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेता को झटका लगता है। कई बार वह नाराजगी में विद्रोह कर देता है या फिर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है। जिस तरह चुनाव की घोषणा होने के बाद दलबदल होता है, उसी तरह प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद भी। जिस दल के नेता का टिकट कटता है, वह दूसरे दल जाकर प्रत्याशी बनने की कोशिश करता है। शायद ही कोई दल हो, जिसे टिकट के दावेदारों के चलते खींचतान का सामना न करना पड़ता हो, लेकिन वे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं।

सुधारों की पहल करें राजनीतिक दल

राजनीतिक दल चाहे जो दावे करें, प्रत्याशियों के चयन की उनकी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं। कुछ दल यह अवश्य कहते हैं कि वे चुनाव के पहले सर्वेक्षण कराकर यह पता करते हैं कि कहां कौन नेता चुनाव जीत सकता है, लेकिन इसमें संदेह है कि इस तरह के सर्वेक्षणों से उन्हें सही तस्वीर हासिल हो पाती है। यह जानना भी कठिन है कि इस तरह के सर्वेक्षणों में क्षेत्र विशेष के मतदाताओं की कोई राय ली जाती है या नहीं? कई बार यह देखने में आता है कि प्रत्याशी चयन के मामले में पार्टी कार्यकर्ताओं की भी कोई भूमिका नहीं होती। कायदे से तो यह होना चाहिए कि कौन नेता प्रत्याशी बने, इसमें क्षेत्र विशेष की जनता की भी कोई न कोई भूमिका हो। इससे ही लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी। आखिर कुछ अन्य देशों की तरह भारत में यह क्यों नहीं हो सकता कि पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी चयन का अधिकार दिया जाए? यदि प्रत्याशी चयन में अमेरिका की प्राइमरी प्रक्रिया को अपना लिया जाए तो भारतीय लोकतंत्र का भला हो सकता है। कार्यकर्ताओं की भागीदारी से प्रत्याशी का चयन करने से न केवल गुटबाजी, विद्रोह और भितरघात पर लगाम लगेगी, बल्कि योग्य प्रत्याशी भी सामने आएंगे। चूंकि प्रत्याशी चयन में मनमानी होती है इसलिए टिकट के जो दावेदार उम्मीदवार नहीं बन पाते, वे अपनी ही पार्टी की नींव खोदने में लग जाते हैं।

चुनाव आयोग को मिलें और अधिकार

यह सही समय है कि चुनाव आयोग को लोकतंत्र को सशक्त करने के लिए कुछ और अधिकार दिए जाएं। फिलहाल चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं कि वह चुनाव के समय दल बदलने वालों पर कोई कार्रवाई कर सके। उसके पास आपराधिक छवि वालों को चुनाव लडऩे से रोकने का भी कोई अधिकार नहीं। यह ध्यान रहे कि दलबदल सरीखी गंभीर समस्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चुनाव लडऩा भी है। इसी तरह एक अन्य समस्या पैसे के बल पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति भी है। ये खामियां भारतीय लोकतंत्र के लिए एक धब्बा हैं। समय-समय पर मीडिया और सामाजिक संगठन चुनाव सुधारों की ओर राजनीतिक दलों का ध्यान आकर्षित तो करते हैं, लेकिन वे उस पर गौर नहीं करते। यदि राजनीतिक दलों का यही रवैया रहा तो न केवल भारतीय लोकतंत्र की गरिमा गिरेगी, बल्कि राजनीति उन नेताओं के हाथों में कैद हो जाएगी, जिन्होंने जनसेवा की आड़ में सियासत को एक पेशा बना लिया है और जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।

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