
छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव में बंटने जा रहा था 110 करोड़ का सामान जब्त, इसमें 40 करोड़ की फ्रीबीज और 3 करोड़ की शराब
रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
रायपुर(गंगा प्रकाश)। भारत में मतदान लोकतंत्र की नींव है। भारत में प्रत्येक नागरिक को इसमें भाग लेने का अधिकार और जिम्मेदारी है। हम अपने देश के भविष्य को आकार देने में सक्रिय योगदान दे सकते हैं और जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं।
मतदान एक ऐसी प्रक्रिया है जहां पात्र व्यक्ति चुनाव में किसी विशेष उम्मीदवार, विकल्प या निर्णय के लिए अपनी प्राथमिकता व्यक्त करते हैं। यह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग प्रणाली या मतपत्र मतदान का उपयोग करके किया जाता है। जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट मिलते हैं उसे विजेता घोषित किया जाता है, और यह यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि किसी समुदाय, क्षेत्र या देश का प्रतिनिधित्व कौन करेगा, साथ ही महत्वपूर्ण निर्णयों के परिणाम भी।मतदान लोकतंत्र की आधारशिला है और भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।यह नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों को चुनने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के अधिकार का प्रयोग करने की अनुमति देता है।मतदान के माध्यम से, व्यक्तियों के पास अपने निर्वाचित अधिकारियों को उनके कार्यों और नीतियों के लिए जवाबदेह बनाने की शक्ति होती है।मतदान एक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनावी प्रक्रिया सुनिश्चित करता है, सामाजिक और राजनीतिक समानता को बढ़ावा देता है।यह एक ऐसी सरकार स्थापित करने में मदद करता है जो लोगों की इच्छा और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है।मतदान करके, नागरिकों को विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करने और राष्ट्र के विकास में योगदान देने का अवसर मिलता है।मतदान समाज के हाशिये पर मौजूद वर्गों को सशक्त बनाता है, जिससे उन्हें उन मामलों में अपनी बात कहने का अधिकार मिलता है जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं।
यह एक जिम्मेदार और उत्तरदायी सरकार के विकास को बढ़ावा देता है, क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा अपने मतदाताओं की चिंताओं को दूर करने की अधिक संभावना होती है।उच्च मतदान प्रतिशत लोकतांत्रिक प्रणाली की वैधता और विश्वसनीयता को मजबूत करता है।मतदान न केवल एक अधिकार है बल्कि एक नागरिक कर्तव्य भी है और इसका प्रयोग करके व्यक्ति लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और देश की समग्र प्रगति में योगदान देते हैं।बताना लाजमी होगा कि
चुनावी सीजन में छत्तीसगढ़ की नई नवेली सरकार ने अपने पहले 100 दिनों में ही 130 करोड़ रुपए रोज का कर्ज ले लिया। फ्रीबीज की फिर चर्चा है। आम आदमी के तो मजे ही मजे हैं क्योंकि उसे तो मुफ्त के चंदन घिस मेरे लल्लू का फील आ रहा है।आज के दौर में फ्रीबीज की राजनीति किस तरह हावी है, सिर्फ एक आंकड़ा देखकर इसका अंदाजा लग जाएगा। चुनावी सीजन में अकेले छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में 110 करोड़ का कैश और अन्य सामान जब्त हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इसमें 40 करोड़ की सिर्फ फ्रीबीज यानी मुफ्त की रेवड़ियां हैं। ये फ्रीबीज भेजने वाले और जो इसे पाने वाला था उसकी मंशा तो यही रही होगी कि ये रेवड़ी जाएगी वोटरों के घर में और वोट जाएंगे उनके खाते में। यही नहीं चुनाव में पाया तो ये भी जाता है कि लड़ने वाले को राजनीति का नशा होता है, इसलिए वोटरों तक शराब का नशा पहुंचाया जाता है। इस सीजन में तीन करोड़ की शराब भी पकड़ में आई है। यानी नेताजी को मुफ्त की रेवड़ी महंगी पड़ गई। ये तो वो फ्रीबीज है जो गुपचुप बांटे जाने की तैयारी थी। लेकिन उनका क्या जो राजनीतिक दलों के चेहरे चुनावी भाषण में जोर जोर से रेवड़ी बांटने की बात कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने लिया कर्ज
मुफ्त की रेवड़ी के चक्कर में छत्तीसगढ़ की नई नवेली सरकार ने अपने पहले 100 दिनों में ही 130 करोड़ रुपए रोज का कर्ज ले लिया। इस पूरे चुनाव में आम आदमी के तो मजे ही मजे हैं क्योंकि उसे तो मुफ्त के चंदन घिस मेरे नंदन का फील आ रहा है।
चुनाव में फ्रीबीज का कल्चर
चुनावों में फ्रीबीज का कल्चर इतना बढ़ गया है कि चुनाव आयोग भी अलग से फ्रीबीज का कॉलम बनाने लगा है। छत्तीसगढ़ में पांच साल पहले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में 10 करोड़ रुपए जब्त हुए थे, जिनका उपयोग फ्रीबीज बांटने में किया जाने वाला था। उम्मीदवार वोटरों को फ्रीबीज के नाम पर साड़ी, घड़ी, मोबाइल, साइकिल और मोटर बाइक तक बांटते हैं। इस बार 110 करोड़ रुपए पकड़ में आए हैं जो प्रदेश के चुनाव में खपाए जाने थे। हैरानी की बात ये भी है कि इसमें 40 करोड़ की मुफ्त की रेवड़ी का सामान है जो वोटरों तक पहुंचना था। ये आंकड़ा आचार संहिता लगने से लेकर अब तक का है। जब से चुनाव की आहट शुरु हुई थी तब से लेकर आज तक ये फ्रीबीज प्रदेश में वोटरों तक पहुंचाने के लिए भेजी जा रही है। छत्तीसगढ़ चुनाव आयोग ने अलग से फ्रीबीज का कैलकुलेशन शुरू किया है जो कैश और ज्वेलरी से अलग है। पिछले पांच साल में फ्रीबीज का ये कल्चर 10 गुना तक बढ़ गया है।
प्रदेश में बंटना था इतना सामान
कैश – 18 करोड़
शराब – 3 करोड़
नशे की सामग्री – 31 करोड़
ज्वेलरी – 18 करोड़
फ्रीबीज – 40 करोड़
भाषणों में फ्रीबीज की बातें कर रहे मुख्यमंत्री
40 करोड़ की तो सिर्फ फ्रीबीज का सामान है, लेकिन जो कैश, शराब, नशीले पदार्थ और ज्वेलरी जब्त हुई है वो भी फ्रीबीज ही है यानी चुनाव में वोटरों को लुभाने का ये नया तरीका है। ये तो मुफ्त की रेवड़ी वो है जो गुपचुप तरीके से बांटी जा रही है, लेकिन भाषणों में खुलेआम कभी संकल्प पत्र तो कभी न्याय पत्र के नाम पर भी जनता को रेवड़ी बांटने के वादे किए जा रहे हैं। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने खूब रेवड़ी बांटी। इस रेवड़ी को मोदी की गारंटी बताया। मोदी की गारंटी पूरा करने के लिए सरकार ने रोजाना 130 करोड़ का कर्ज लिया। 18 लाख पीएम आवास मंजूर किए गए हैं। महतारी वंदन योजना के तहत 70 लाख महिलाओं को 1000 रुपए महीने देना शुरू कर दिया है। 11 लाख किसानों को 2 महीने का बोनस दिया है। 14 लाख किसानों को धान खरीदी के अंतर की राशि दी गई है। अब मोदी की गारंटी का दूसरा फेज शुरू हो गया है। इसमें महिलाओं को लखपति बनाने का वादा किया गया है। मुख्यमंत्री अपने भाषणों में मोदी की गारंटी के नाम पर फ्रीबीज की बातें ही कर रहे हैं। साथ में कांग्रेस के वादों को लफ्फाजी बता रहे हैं।
फ्रीबीज बांटे में बीजेपी से आगे कांग्रेस
फ्रीबीज बांटने में बीजेपी से चार कदम आगे कांग्रेस है। किसान कर्ज माफी का वादा कर भूपेश बघेल ने सरकार बनाई। इसके बाद एक लाख करोड़ का कर्ज छोड़कर भूपेश बघेल सरकार से विदा हो गए। ये कर्ज अब विष्णुदेव साय के हिस्से में आ गया है। वे भी लोकसभा चुनाव के कारण कर्ज लेकर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने में जुट गए। अब राहुल गांधी ने कर्जमाफी का वादा कर एक बार फिर वही आजमाया हुआ दांव चल दिया है। गरीब महिलाओं को एक लाख सालाना देने की गारंटी भी ले ली है। अब भूपेश बघेल अपनी सरकार में बांटी गई रेवड़ी और आगे दी जाने वाली रेवड़ी की ही चर्चा वोटरों के बीच कर रहे हैं।
सही उम्मीदवार को चुनना आपकी जिम्मेदारी
छत्तीसगढ़ के चुनावी रण में पहले और दूसरे चरण में होने वाले चार सीटों के चुनाव में कुल 52 उम्मीदवार मैदान में हैं। एक उम्मीदवार को पूरे चुनाव में 95 लाख खर्च करने की अनुमति है। यानी ये 52 उम्मीदवार पचास करोड़ रुपए खर्च कर सकते हैं। जो पैसे जब्त किए गए हैं उसमें 100 उम्मीदवार से ज्यादा चुनाव लड़ सकते हैं। अब ये आपको सोचना है कि जो नेता चुनाव जीतने के लिए पैसे को पानी की तरह बहाते हैं, वे जनता के लिए कितने खरे साबित होंगे। अब आपके हाथ में ताकत है, इस ताकत का सही इस्तेमाल कीजिए और मुफ्त का चंदन घिसने की जगह सही उम्मीदवार को जीत का तिलक कीजिए।
क्या भारतीय वोटर पैसे लेने के बाद भी वोट नहीं देते?
भारत में एक वोटर को किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने के लिए कौन-कौन सी चीज़ें प्रभावित करती हैं? आमतौर पर उम्मीदवार की पहचान, उसकी विचारधारा, जाति-धर्म या उनके काम वोटरों को प्रभावित करते हैं।यह भी समझा जाता है कि ग़रीब वोटरों को रिश्वत देकर उनके मत प्रभावित किए जाते हैं।कर्नाटक चुनावों से कुछ दिन पहले वहां के अधिकारियों ने 136 करोड़ रुपए से ज़्यादा मूल्य के कैश और ‘अन्य प्रलोभन’ के सामान ज़ब्त किए थे।अभी तक की यह रिकॉर्ड ज़ब्ती थी, एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि कार्यकर्ता वोटरों के खातों में पैसे ट्रांसफर कर रहे थे,ये वैसे वोटर थे जिन्होंने उनके उम्मीदावर को वोट देने का वादा किया था।रिपोर्ट में आगे यह दावा किया गया था कि अगर उनके उम्मीवार जीतते हैं तो उन्हें और पैसे दिए जाएंगे
भारत में चुनावों के दौरान कैश और अन्य उपहारों से वोट ख़रीदने की कोशिश पुरानी है।इसका पहला कारण ये है कि राजनीति में प्रतिस्पर्धा ज़्यादा है।
साल 2014 के चुनावों में 464 पार्टियां मैदान में थीं. वहीं, स्वतंत्र भारत में 1952 में हुए पहले चुनावों में केवल 52 पार्टियां लोकतंत्र की लड़ाई में शामिल थीं।2009 में जीत का औसत अंतर 9.7 फ़ीसदी था, जो पहले के चुनावों के मुक़ाबले सबसे कम था,2014 के चुनावों में 15 फ़ीसदी के अंतर से भाजपा की जीत को बड़ी जीत कहा गया था।
अमरीका में 2012 में हुए चुनावों में हार-जीत का अंतर 32 फ़ीसदी था और ब्रिटेन में 2010 में हुए चुनावों में यह अंतर 18 फ़ीसदी का था।भारत में चुनाव अस्थिर हो गए हैं। पार्टियों का अब वोटरों पर नियंत्रण नहीं है जैसा पहले कभी हुआ करता था।पार्टी और उम्मीदवार अब चुनाव परिणामों को लेकर अनिश्चित रहते हैं।पहले ऐसा नहीं था।
यही कारण है कि वो वोट को पैसों के बल पर ख़रीदना चाहते हैं।अमरीका के डर्टमाउथ कॉलेज के असिस्टेंड प्रोफ़ेसर साइमन चौचर्ड का नया शोध यह कहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि रिश्वत लेने वाले वोट दे हीं।प्रतिस्पर्धा ज़्यादा होने की वजह से ही उम्मीदवार कैश, शराब जैसे उपहार देने के लिए प्रेरित होते हैं।इसके साथ पैसे के पैकेट भी दिए जाते हैं जो कई मामलों में प्रभावी नहीं होते हैं।डॉ. चौचर्ड तर्क देते हैं कि उम्मीदवारों को द्वंद्व में रहना पड़ता है जहां कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता है और हर कोई अपने हित के लिए काम करता है।वो कहते हैं, “उन्हें डर होता है कि उनके विरोधी पैकेट बाटेंगे, वो इसे ख़ुद बांटते हैं ताकि विरोधियों की रणनीति का मुक़ाबला किया जा सके।
समाज के प्रभावशाली लोग बांटते हैं पैसे-शराब
प्रोफ़ेसर चौचर्ड और उनकी टीम ने मुंबई में 2014 में हुए विधानसभा और 2017 में हुए नगर निगम चुनावों में डेटा और सूचनाओं को जुटाया था।
उन्होंने इसके लिए बड़ी पार्टियों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बात की,उन्होंने पाया कि उम्मीदवार इलाक़े और समाज के प्रभावशाली लोगों को पैसे और शराब बांटने के लिए देते हैं।उम्मीदवारों में से कुछ ऐसे उम्मीदवार भी थे जो हर वोटर पर एक हज़ार रुपए तक ख़र्च कर सकते थे।पार्टी के कार्यकर्ताओं ने शोधकर्ताओं से कहा कि पैसे के पैकेट कमोबेश समान होते हैं।अधिकतर पैसे वोटरों के पास नहीं पहुंच पाते हैं क्योंकि बांटने वाले ख़ुद पैसे रख लेते हैं।
चुनाव में सबसे अधिक ख़र्च करने वाला उम्मीदवार चौथे नंबर पर रहा था।सभी पार्टियों के क़रीब 80 कार्यकर्ताओं ने शोध करने वाली टीम को बताया कि कैश और उपहार बहुत कम लोगों को प्रभावित कर पाया था।
राजनीति विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि पार्टियों को यह लगता है कि वो ग़रीब लोगों के वोट पैसे के दम पर ख़रीद सकते हैं।”यही कारण है कि वो वोटरों को रिश्वत देते हैं. सभी पार्टियां वोटरों पर पैसा खर्च करती हैं ताकि जो उनके वोटर नहीं हैं, उन्हें अपने पक्ष में लाया जा सके।
सामाजिक वैज्ञानिकों को कहना है कि दक्षिण एशिया में ग़रीब मतदाता अमीर उम्मीदवारों की सराहना करते हैं। एक ग़ैरबराबरी समाज में रिश्वत और उपहार परस्पर का भाव पैदा करते हैं।
भारत में संरक्षण की राजनीति का एक लंबा इतिहास है।कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान के जानकार अनस्तासिया पिलियावस्की ने राजस्थान के ग्रामीण इलाक़ों में वोटरों का अध्ययन किया और पाया कि वो उम्मीदवारों से खाने और पैसे की उम्मीद रखते हैं।वो मानती हैं कि ग्रामीण भारत में चुनावी राजनीति अक्सर परंपरागत सोचों पर आधारित होते हैं।उन्होंने पाया कि चुनावों का मूल मंत्र “दाता-नौकर के बीच का संबंध था, जिसमें सामानों का आदान-प्रदान किया जाता है और शक्ति का उपयोग होता है।
चुनाव अधिकारियों की आंखों से बचने के लिए उम्मीदवार नक़ली शादी और जन्मदिन की पार्टियां देते हैं, जिसमें अनजान लोग, मतदाता के खाने-पीने और उपहार की व्यवस्था की जाती है।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में समाज विज्ञान की प्रोफ़ेसर मुकुलिका बनर्जी के मुताबिक़ ग़रीब मतदाता “उन सभी पार्टियों से पैसा लेते हैं जो इसकी पेशकश करते हैं पर वोट उन्हें नहीं देते हैं जो ज़्यादा पैसा देते हैं बल्कि ‘अन्य बातों का ख़्याल’ रखकर देते हैं।