
रिपोर्ट:मनोज सिंह ठाकुर
नई दिल्ली (गंगा प्रकाश)।परिवारवाद या वंशवाद की राजनीति संभवत: लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। आलोचकों का कहना है कि यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्याप्त कई राजनीतिक बुराइयों में से एक है। यहां कांग्रेस सहित लगभग सभी राजनीतिक दल एक पारिवारिक उद्यम की तरह चलाए जा रहे हैं। विरोधाभास यह है कि गत 75 वर्षों में कई क्षेत्रीय क्षत्रप उभरे हैं और लोकतंत्र के साथ सह-अस्तित्व में हैं। भारत में लगभग 50 प्रासंगिक राजनीतिक दलों में से साम्यवादी दलों जैसे मात्र 7 या 8 दल परिवारवाद की राजनीति से मुक्त हैं।
हाल ही में भाजपा के 42वें स्थापना दिवस समारोह के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इस देश में अभी भी 2 तरह की राजनीति चल रही है। एक है परिवार के प्रति निष्ठा (वंशवादियों) की राजनीति तथा अन्य है (भाजपा की तरह) राष्ट्रवाद के लिए समर्पित। जहां गत 2 लोकसभा चुनावों में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ तथा ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ भाजपा के 2 प्रमुख नारे थे, 2024 के चुनाव प्रसार के लिए नैरेटिव संभवत: ‘वंशवाद मुक्त भारत’ होगा। इसका थीम यह होगा कि जहां भाजपा राष्ट्र के प्रति समॢपत है, अन्य पाॢटयां ‘परिवारों के प्रति समॢपत हैं’। इस नैरेटिव में क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं जिनमें से अधिकतर का झुकाव परिवारों की ओर है।
भाजपा ने अब महसूस किया है कि उसे वास्तविक खतरा कई राज्यों में परिवारों द्वारा शासित क्षेत्रीय दलों द्वारा है। कांग्रेस के परिवारवाद को दरकिनार करने के बाद पार्टी ने 8 प्रमुख परिवारों की पहचान की है जिनका देश भर में राज्यों की राजनीति में प्रभुत्व है तथा इसका इरादा उन्हें राजनीतिक रूप से बर्बाद करना है। तेलंगाना, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम तथा राजस्थान में 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
प्रश्र यह है कि क्या वंशवादियों को समाप्त करना संभव है, जैसा भाजपा ने सपना देखा है? यह वास्तव में महत्वाकांक्षी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक बहुत से वंशवादी परिवार हैं, जैसे कि अब्दुल्ला। कश्मीर में मुफ्ती, पंजाब में बादल तथा कैप्टन अमरेंद्र सिंह, राजस्थान व मध्य प्रदेश में राजे तथा पायलट तथा उत्तर प्रदेश, बिहार में यादव ऐसे ही परिवारवादी हैं। ओडिशा में पटनायक, कर्नाटक में गौड़ा व बोम्मई, असम में गोगोई, तमिलनाडु में करुणानिधि, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश में राव तथा रैड्डी, झारखंड में सोरेन तथा हरियाणा में चौटाला तथा हुड्डा उल्लेखनीय हैं।
दक्षिणी राज्य वर्तमान में क्षेत्रीय क्षत्रपों की छत्रछाया में हैं-तेलंगाना राष्ट्र समिति के के. चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश में वाई.एस. जगनमोहन रैड्डी, तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन तथा केरल में पिनाराई विजयन। अपनी आगामी परियोजना के अंतर्गत भाजपा की नजर इन चारों को कमजोर करने की है। पार्टी के वर्तमान में तमिलनाडु में मात्र 4 विधायक हैं (जो अन्नाद्रमुक के आसरे हैं) तथा आंध्र प्रदेश तथा केरल में एक भी नहीं है। तेलंगाना में 3 विधायक हैं जो अपने बूते पर जीते हैं। इसलिए पहला कदम उन्हें कमजोर करना होगा। दक्षिण में 5 राज्यों में 120 सीटें हैं। सभी प्रयासों के बावजूद पार्टी कर्नाटक के अतिरिक्त दक्षिण राज्यों पर कोई पकड़ बनाने में सफल नहीं रही।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्यों इन परिवारवादी नेताओं का लोगों पर प्रभाव है? परिवार आधारित पाॢटयां अपने बेटे-बेटियों या करीबी रिश्तेदारों को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर इसलिए चुनती हैं क्योंकि वे महसूस करती हैं कि वे एक जिम्मेदारी से अधिक उनके लिए एक पूंजी के समान हैं। उन्हें अपने निधन के पश्चात सत्ता संभालने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करना आसान होता है। दूसरे, पारिवारिक उम्मीदवारों के नए उम्मीदवारों के मुकाबले चुने जाने की अधिक संभावना होती है। तीसरे, कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों ने एहसास किया है कि परिवार की सत्ता स्थापित करने से उन्हें वफादारी तथा विश्वास प्राप्त होता है। द्रमुक जैसी पार्टी ने भी करुणानिधि के वंशवाद से निपटने के लिए खुद को संगठित किया है।
दूसरी ओर भाजपा तथा अन्यों का मानना है कि वंशवाद की राजनीति एक लोकतंत्र में अच्छी नहीं क्योंकि यह केवल उन नेताओं को सक्षम बनाती है जिनके एक वंशवादी परिवार में सफलता के लिए मजबूत संबंध होते हैं ताकि वह अपने आप सिर्फ इस कारण उस पद को हासिल कर लें क्योंकि वे सत्ताधारी परिवार से संबंध रखते हैं। परिवार के शासन का दावा करने वाले नए जागीरदार सारे भारत में उभर आए हैं। यह नई प्रतिभाओं को आगे आने से हतोत्साहित करता है।
भाजपा भी परिवारवाद की राजनीति से अछूती नहीं है। आलोचकों का कहना है कि ऐसा दिखाई देता है कि यह ज्योतिरादित्य सिंधिया, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, अनुराग ठाकुर तथा किरण रिजिजू जैसे परिवारवादियों पर लागू नहीं होता जो सभी मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। न ही यह कर्नाटक के बसवराज बोम्मई या अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू जैसे भाजपा मुख्यमंत्रियों पर लागू हो सकता है। राजनीतिक वंशवादियों की समाप्ति की आशा करना संभवत: पूर्वानुमान होगा, क्योंकि इसमें कुछ समय लगेगा क्योंकि अभी तक लोग इनसे जुड़े हुए हैं।
वर्तमान नेता अपने पारिवारिक सदस्यों को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों के तौर पर पेश करने में शर्म महसूस नहीं करते। यद्यपि भाजपा एक वंशवाद या परिवारवाद मुक्त भारत चाहती है, लेकिन जब तक वंशवादी अपने आख्यानों से मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं तथा उनके पास उन्हें प्रभावित करने की क्षमता है, वे अपने क्षेत्रों पर प्रभाव बनाए रखेंगे। केवल एक राहत यह है कि परिवारवादी भी चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ही आते हैं।भारतीय राजनीति में वंशवाद नया मुद्दा नहीं, पर इसका बढ़ते जाना बड़े खतरे की ओर इशारा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर परिवारवाद के आरोप लगाते हैं, पर सच यह है कि कोई किसी से पीछे नहीं। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में उनकी बेटी इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाए जाने के साथ ही परिवारवाद का सवाल उठने लगा था।
इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह पहले संजय और फिर राजीव गांधी को आगे बढ़ाया गया, उसके बाद तो वंशवाद का आरोप कांग्रेस पर स्थायी रूप से चस्पा हो गया। विडंबना है कि सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को वंशवाद में कोई बुराई नजर नहीं आती। आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस परिवारों का समूह ज्यादा नजर आती है।
सबसे बड़े लोकतंत्र की विद्रूपता देखिए कि जो दल और नेता वंशवाद के लिए कभी कांग्रेस को कोसते थे, वे अपनी वंशबेल बढ़ाने में उससे भी आगे निकल गए। क्षेत्रीय दल तो हैं ही परिवार केंद्रित, बाकी का हाल भी अलग नहीं। देश के लिए निर्णायक बताए जा रहे 2024 के लोकसभा चुनाव में भी वंशवाद सर्वत्र है।
अक्सर विकृतियों के लिए उत्तर भारत को जिम्मेदार मान लिया जाता है, पर भ्रष्टाचार की तरह वंशवाद में भी पूरा भारत एक है। उत्तर प्रदेश में स्व. मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश और पुत्रवधू डिंपल के अलावा भाई-भतीजों समेत कई अन्य स्वजन चुनाव मैदान में हैं। आकाश आनंद बसपा सुप्रीमो मायावती के उत्तराधिकारी भतीजा होने के नाते ही हैं।
एनडीए में शामिल संजय निषाद और ओमप्रकाश राजभर को अपने हिस्से आई एक-एक सीट पर अपने बेटों से बेहतर उम्मीदवार नहीं मिले। भाजपा उम्मीदवार राजवीर सिंह पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज विधानसभा चुनाव लड़ते रहे हैं। बिहार में तो लालू यादव के चुनाव लड़ने वाले परिजनों की बढ़ती सूची ने आइएनडीआइए पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। चिराग पासवान की पहचान रामविलास पासवान का बेटा होना भी है। रामविलास स्वजनों और रिश्तेदारों को राजनीति में लाने से नहीं चूके। यह कैसा सामाजिक न्याय है, जो परिवार से आगे नहीं देख पाता?
राजस्थान में भी वंशवाद में किसी ने कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा एक परिवार में एक टिकट के तर्क के सहारे अपने परिवारवाद का बचाव करती है, लेकिन विधायक विश्वनाथ सिंह की पत्नी को राजसमंद से लोकसभा टिकट दिया गया है। जयपुर शहर में भंवरलाल शर्मा के निधन के बाद बेटी उम्मीदवार है। कभी तीसरी धारा की राजनीति के बड़े चेहरे रहे नाथूराम मिर्धा की पौत्री ज्योति मिर्धा भाजपा के टिकट पर नागौर से चुनाव मैदान में हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़ से फिर चुनाव लड़ रहे हैं।
कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे शीशराम ओला के बेटे बृजेंद्र झुंझुनू से चुनाव लड़ रहे हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव जालोर-सिरोही से मैदान में हैं। झालावाड़-बारा सीट पर पूर्व मंत्री प्रमोद जैन की पत्नी उर्मिला उम्मीदवार हैं। मध्य प्रदेश में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमल नाथ के बेटे नकुल नाथ फिर छिंदवाड़ा से चुनाव मैदान में हैं तो सीधी से पूर्व मंत्री इंद्रजीत पटेल के बेटे कमलेश्वर चुनाव लड़ रहे हैं। विधायक अभय मिश्रा की पत्नी नीलम रीवा से उम्मीदवार हैं।
हिमाचल प्रदेश के मंडी में कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के बेटे विक्रमादित्य को उतारा है। हमीरपुर से भाजपा प्रत्याशी अनुराग ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं तो चंडीगढ़ से उम्मीदवार संजय टंडन भी पंजाब के पूर्व मंत्री बलरामजी दास टंडन के बेटे हैं। दिल्ली में बांसुरी स्वराज को सुषमा स्वराज की बेटी के नाते ही भाजपा का टिकट मिला है। हरियाणा में रतनलाल कटारिया के निधन के बाद उनकी पत्नी बंतो को अंबाला से टिकट दिया गया।
बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उत्तराधिकारी माने जा रहे भतीजे अभिषेक डायमंड हार्बर से चुनाव लड़ रहे हैं तो सुवेंदु अधिकारी के भाई सौमेंदु अधिकारी कांथी से भाजपा उम्मीदवार हैं। महाराष्ट्र में खुद वंशवाद के सहारे आगे आए उप मुख्यमंत्री अजित पवार अब पत्नी सुनेत्रा को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं तो मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का बेटा भी फिर चुनाव लड़ रहा है। भाजपा उम्मीदवारों में पीयूष गोयल, रक्षा खडसे, पंकजा मुंडे, सुजय विखे पाटिल समेत अनेक नाम परिवारवाद की ही देन हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस ने कम से कम नौ मंत्रियों समेत दर्जन भर नेताओं के रिश्तेदारों को टिकट दिया है, जिसे मुख्यमंत्री सिद्दरमैया जनता की मांग बता रहे हैं। मल्लिकार्जुन खरगे अपने बेटे प्रियांक के कर्नाटक में मंत्री होने के बावजूद दामाद राधाकृष्ण को गुलबर्गा से चुनाव लड़ाने का मोह नहीं छोड़ पाए। उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के भाई सुरेश बेंगलुरु ग्रामीण से चुनाव मैदान में हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता केएस ईश्वरप्पा ने अपने बेटे को टिकट न मिलने पर पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के बेटे बीवाई राघवेंद्र के विरुद्ध निर्दलीय चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है।
येदियुरप्पा के दूसरे बेटे बीवाई विजयेंद्र विधायक के साथ-साथ कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष भी हैं। भाजपा ने दावणगेरे से पूर्व केंद्रीय मंत्री जीएम सिद्धेश्वर का टिकट काट कर उनकी पत्नी गायत्री को दे दिया। लोकसभा चुनाव लड़ रहे पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी पूर्व मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई के बेटे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बेटे पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी और पौत्र प्राज्वल रेवण्णा अपनी पार्टी जद (एस) के उम्मीदवार हैं, तो बेंगलुरु ग्रामीण सीट पर देवेगौड़ा के दामाद सीएन मंजूनाथ भाजपा के। यह सूची लंबी है।
वंशवाद के पोषक तर्क देते हैं कि आखिरकार तो जनता ही चुनती है, पर वे यह नहीं बताते कि दशकों तक काम करने वाले कार्यकर्ताओं से पद और टिकट की बाजी नेता का परिजन कैसे मार ले जाता है? यह अध्ययन वंशवाद को बेनकाब करनेवाला है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 30 प्रतिशत सदस्य राजनीतिक परिवारों से रहे। दलों और राज्यों की दृष्टि से भी ज्यादा फर्क नहीं दिखता। मसलन कांग्रेस ने 31 प्रतिशत टिकट वंशवाद के चलते दिए, तो भाजपा में यह प्रतिशत 21 रहा। महिला सशक्तीकरण के नाम पर भी राजनीतिक परिवारों की महिलाएं ही लाभार्थी बन रही हैं। सपा, टीडीपी, द्रमुक और बीआरएस जैसे दलों में तो सौ प्रतिशत ऐसा ही होता है।
राजनीतिक सुधार की दृष्टि से परिवारवाद की बेलगाम राजनीति बड़ा खतरा
हम चुनाव के माध्यम से अपने जनप्रतिनिधि और मन की सरकार चुनते हैं। राजनीतिक दल ही चुनावी खेल के मुख्य खिलाड़ी होते हैं, लेकिन कई दलों के रूप-स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं दिखते। संविधान में राजनीतिक दल की परिभाषा नहीं है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में चुनाव आयोग को दल पंजीकरण के अधिकार हैं, लेकिन दल संचालन की व्यवस्थित नियमावली नहीं है। राजनीतिक सुधारों की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ और न चुनाव सुधारों पर।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ दिन पहले चुनाव सुधारों की दृष्टि से एक देश एक चुनाव पर विचार करने की अपील की थी। इस दफा उन्होंने राजनीतिक सुधार की दृष्टि से परिवारवाद को राजनीति का बड़ा खतरा बताया है। उन्होंने कहा कि ‘परिवारवाद लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु है। इससे राजनीति में सक्रिय प्रतिभाशाली लोगों को कठिनाई आती है और गंभीर समझौते करने पड़ते हैं।’ यह सही भी है। यहां एक व्यक्ति और परिवार की तमाम पार्टियां हैं। वे एक परिवार की प्रापर्टी होती हैं। उनमें आजीवन राष्ट्रीय अध्यक्ष होते हैं। ऐसे दल असल में लोकतंत्र के लिए खतरा हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में अर्से से एक ही परिवार का कब्जा है। पं. नेहरू से लेकर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी, फिर उनके पुत्र राजीव गांधी, फिर उनकी पत्नी सोनिया गांधी और पुत्र राहुल गांधी का परिवार ही कांग्रेस का नीति-नियंता है। सोनिया जी ही लंबे समय से पार्टी की मुखिया हैं। एक समय तेजतर्रार विपक्षी दलों ने कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाया था। धीरे-धीरे उन दलों ने भी परिवारवाद की राह पकड़ी। जो परिवारवाद के विरोधी थे, वे भी परिवारवादी हो गए। उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक परिवार की पार्टियां दिखाई पड़ती हैं। ऐसी पार्टियों का संचालन एक परिवार द्वारा ही किया जा रहा है। जदयू के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपवाद हैं। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस पार्टी में 25 वर्ष की आयु के सभी परिजनों को चुनाव लड़ने का अवसर मिला है। पार्टी प्रापर्टी नहीं हो सकती। परिवारवादी चरित्र के कारण समय-समय पर कांग्रेस से निकली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां बनीं, जो परिवारवादी बनती गईं।
परिवार आधारित पार्टियों में स्वस्थ राजनीतिक परंपराएं नहीं होतीं। स्वस्थ राजनीतिक दल की एक स्पष्ट अर्थनीति होती है। उसकी एक समाज नीति होती है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों पर एक दृष्टिकोण होता है। संगठन संचालन की नियमावली होती है। परिवारवादी दलों में ऐसा विमर्श नहीं होता। पिता पुत्र, पुत्री और प्रियजन ही संसदीय बोर्ड होते हैं। घर के लोग ही सभी प्रश्नों पर विचार करते हैं। वे अपने-अपने हितों के लिए झगड़ालू होते हैं। उत्तर प्रदेश की एक विपक्षी पार्टी में ऐसे झगड़े प्रत्यक्ष दिखे हैं। यहां परिवार आधारित कई पार्टियां हैं। डेढ-दो जिलों तक प्रभावी पार्टियों में भी परिवार के ही लोग पदाधिकारी होते हैं। इन दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता। राष्ट्रीय चुनौतियों पर कोई बहस नहीं होती। परिवारवादी पार्टियों के अध्यक्ष प्रतिभाशाली लोगों की उपेक्षा करते हैं। उनका आचरण किसी निजी कंपनी के सीईओ जैसा होता है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। परिवारवादी राजनीति में प्रतिभाएं उपेक्षित और अपमानित होती हैं।परिवारवादी राजनीति की प्राथमिकता परिवार हित है। यहां राष्ट्रहित उपेक्षित होते हैं। चुनाव मुद्दा आधारित न रहकर दोषपूर्ण हो जाते हैं। इसके दोषी परिवारवादी दल ही होते हैं। संविधान सभा में 15 जून, 1949 के दिन पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि दोषपूर्ण चुनाव से लोकतंत्र विषाक्त होगा।’ आमजन चुनाव में परिवार आधारित दलों की बढ़ती संख्या से निराश हैं। देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। सभी स्तरों के सैकड़ों चुनाव हो गए हैं, लेकिन भारतीय जनतंत्र विचारनिष्ठ नहीं हुआ। दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं बढ़ा। इससे लोकतंत्र की क्षति होती है।परिवारवादी राजनीति की दो श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में पार्टी का समूचा कार्य संचालन एक ही परिवार द्वारा किया जाता है। दूसरी श्रेणी में किसी भी दल में काम करने वाले अपने पुत्रों-पुत्रियों के लिए टिकट मांगते हैं। उन्हें कभी-कभी जनता नकार भी देती है। इस दूसरी कोटि के लोगों द्वारा पार्टी का संचालन नहीं होता। जनता उनके नेतृत्व को नकार दे तो भी उन पर फर्क नहीं पड़ता। परिवारवादी दलों में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव नहीं होते। वे आजीवन अध्यक्ष बने रहते हैं। उनके न रहने पर उनके परिजन पार्टी-प्रापर्टी का संचालन करते हैं। दोनों तरह के परिवारवाद में बुनियादी अंतर है। किसी पार्टी में किसी सांसद-विधायक का वृद्धावस्था व अन्य कारण से हटना और उनकी जगह पर उनके परिवार के किसी सक्षम कार्यकर्ता को पार्टी का टिकट देना स्वाभाविक है। ऐसे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के पुत्र-पुत्री अपनी निष्ठा के कारण दूसरे दल में नहीं जा सकते।
भारतीय राजनीति में व्यापक राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता है। राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र का उपकरण हैं। मुख्य रूप से उनके दो कार्य क्षेत्र हैं। पहला विचारधारा के अनुसार आजजनों का राजनीतिक शिक्षण, विचारधारा का प्रचार, जनसंगठन और जन आंदोलन जैसे अभियानों का संचालन। दूसरा संसद और विधानमंडलों में मर्यादित बहसों के माध्यम से राष्ट्रहित का संवर्धन। हमारा दलतंत्र दोनों ही कर्तव्यों में असफल हुआ है। मूलभूत प्रश्न है कि दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का विकास क्यों नहीं हुआ? राजनीतिक दलों में आजीवन अध्यक्ष क्यों हैं। उनके निधन पर पुत्र और पुत्री ही राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों बनते हैं? पार्टियां प्राइवेट प्रापर्टी क्यों है? ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय बेचैनी हैं।संविधान के कामकाज पर गठित एक आयोग ने विचारधारा के आधार पर दलों की संख्या सीमित करने का सुझाव दिया था, लेकिन दुर्भाग्य से यहां परिवारवादी पार्टियां कुटीर उद्योग की तरह बढ़ रही हैं। चुनाव कानून की धारा-29 ए में संशोधन करते हुए निर्वाचन आयोग को दल व्यवस्थित करने का अधिकार मिलना चाहिए। दलों को नियमों व कानूनों के दायरे में लाने में आदर्श जनतंत्र का भविष्य है। राष्ट्रनिष्ठ दलतंत्र से ही स्वस्थ जनतंत्र का विकास होगा।
लोकतंत्र को खोखला करता राजनीति में परिवारवाद
विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान हमारे देश का है। भारतीय संविधान में लोकतंत्र का जिक्र किया गया है। भारतीय परिदृश्य में लोकतंत्र की बात की जाती है। लोकतांत्रिक देश में परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती है। वर्तमान समय में देश की राजनीति में जो माहौल बना हुआ है। वह लोकतंत्र में ही राजशाही व्यवस्था को जन्म देने वाला गूढ़ अर्थ बता रहा है। देश की राजनीति में कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दिया जाए, तो सभी राजनीति दल अपने और परिवार को आगे बढ़ाने के लिए लोकतंत्र को ठेंगा दिखाकर राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रदेशों की क्षेत्रीय राजनीति में जिस तरीके से अपने हित को साधने के लिए परिवारवादी सोच राजनीतिक पार्टियों में हावी हो रही है, वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकती है। देश की आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार, सरकार का निर्माण जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी, लेकिन कांग्रेस के उसी शासनकाल में परिवार की शुरुआत हो चुकी थी। जिस देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, वहां पर राजशाही व्यवस्था समाज के स्वरूप के लिए ठीक नहीं कही जा सकती है। आज देश की राजनीति स्वार्थ हितों के लिए इतनी बेचैन हो गई है कि समाज और देश के हितों का परित्याग कर चुकी ये राजनीतिक पार्टियां प्राचीनकाल की शासन प्रणाली को अपनाने को मोहताज हो चली हैं। जिस शासन व्यवस्था को निरंकुश शासन माना जाता हो, वह वर्तमान परिदृश्य में देश के हित में कैसे हो सकती है? आज देश की अधिकतर पार्टियां चाहे वह कांग्रेस हो, सपा, और तमिलनाडु के अन्नाद्रमुक की बात हो। राजनीति में परिवारवाद अपनी पैठ जमा चुका है।
कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के समय से ही राजाशाही व्यवस्था हावी हो चुकी थी। देश की स्वतंत्रता में भागीदार कांग्रेस ने ही देश के साथ जिस तरीके का व्यवहार किया, वह उचित नहीं कहा जा सकता है। भाजपा, बसपा इस स्वार्थ हित से प्रेरित नहीं दिख रही है, लेकिन लोकतंत्र में जिस तरीके से परिवार राजनीति में हावी हो रहा है, वह देश के साथ प्रतिभा का हनन भी माना जा सकता है।
सपा में विगत दिनों से कलह का दौर जारी है, लेकिन सपा कुनबे में वर्तमान का जिस तरीके से भाई-भतीजावाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में पैठ बना चुका है। वह प्रदेश की राजनीति में ठीक नहीं माना जा सकता है। स्वस्थ लोकतंत्र में यह जरूरी होता है कि सभी के लिए दरवाजा खुला होना चाहिए, फिर वह चाहे राजनीति हो या कोई दूसरा क्षेत्र। राजनीति में बढ़ते परिवारवाद और राजशाही की वजह से ही बिहार में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री के पद तक जा पहुंचीं। इस तरह के उदाहरण अन्य राज्यों में पेमा खांडू, और चन्द्रबाबू नायडू के रूप में देखा जा सकता है।
राजनीति में एकल प्रभाव होने की हानियां भी होती हैं। किसी एक व्यक्ति का प्रभाव होने के कारण उसके अस्वस्थ होने आदि की दशा में पार्टी पर प्रभाव पड़ता है, जैसा ताजा उदाहरण तमिलनाडु में देखा जा सकता है, लेकिन लोकतंत्र में जब किसी एक ही व्यक्ति का अधिकार हो जाता है, तो लोकतंत्र प्रभावित हो जाता है। उसके एक ही विचार पर पार्टी के चलने से समाज के लिए उचित फैसले नहीं हो पाते हैं। वह अकेला नेता अपने हितों के लिए समाज से अलग हटकर अपनी स्वार्थपूर्ति की नीति को अपना सकता है। वर्तमान दौर की बात की जाए तो जिस समाजवाद का उदय कांग्रेस के राजशाही व्यवस्था पर हमला करने के बाद हुआ था। आज वह कांग्रेस से हजारों कदम आगे बढ़ चुकी है।
2004 में जब मनमोहन के हाथ में यूपीए की सरकार आई, तो लगा कि कांग्रेस परिवारवाद की परिपाटी को छोड़कर आगे समाज के विकास को अपना एजेंडा बनाएगी। फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरीके से युवराज को कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ खड़ा किया, उससे जगजाहिर हो गया कि कांग्रेस अपनी पुरानी लीक पर ही चलेगी। क्षेत्रीय सियासत में जिस तरीके की भाई-भतीजावाद का खेल चल रहा है। उससे क्षेत्र में विकास का मुद्दा तो कहीं खो सा गया है। अपने हितों के लिए चुनाव में जातिवादी व्यवस्था को कायम रखने की फिराक में भी ये राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहते हैं। दलितों और मुस्लिमों के ठेकेदार बनकर अपनी सियासत को चमकाने के लगे हुए है। प्रदेश और कौम के विकास का मुद्दा इनके एजेंडे से खत्म-सा हो चला है। देश में जब हर स्तर पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, तो इन परिवारिक कुनबे वाली पार्टियों को भी अपने परिवार को आगे बढ़ाने की नीति को पीछे छोड़कर देश के विकास को महत्व देना होगा। अगर देश में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की बात होनी चाहिए, तो इन पार्टियों को भी राजनीतिक दायरे में रहकर कार्य करना होगा।
परिवारवाद के रास्ते रोजगार का हिस्सा बनती जा रही है भारतीय राजनीति
भारतीय राजनीति में विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म यूँही नहीं हुआ, इसका कारण केवल और केवल यह है कि ब्राह्मणवाद के चलते पहले से ही वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियां अलोकतांत्रिक होती जा रही हैं। अलोकतांत्रिक होती जा रही इन वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियों के गिरते राजनीतिक आचरण के कारण विभिन्न क्षेत्रीय दलों का न केवल जन्म हुआ अपितु उनमें से कई पार्टियां सत्ता तक भी पहुंचीं। विगत और वर्तमान राजनीतिक फलक इस बात का साक्षी है। आज समय है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल अपने भरोसे चुनाव लड़ने से कतरा रही है। हो ये रहा है कि छोटे-छोटे विभिन्न दलों को लेकर गठबंधन की राजनीति को बल मिल रहा है। यदि सत्ता पक्ष की बात करें तो भाजपा के एन डी ए के गठबंधन में कहने को तो लगभग 38 राजनीतिक दल शामिल हैं। उनमें ज्यादातर ऐसे दल हैं, जिनका न तो कोई विधायक और न ही सांसद है। विपक्षी राजनीतिक दलों के गठबंधन में अपना-अपना वजूद रखने वाले लगभग 26/ 27 दल शामिल हैं, किंतु इस गठबंधन के सामने जो सवाल मुंह बाए खड़ा है, वो है अपने-अपने वर्चस्व को बनाए रखने का।
किंतु पिछले छह/ सात दशक में पहली बार राजनीतिक अस्मिता खतरे से बाहर नजर नहीं आ रही। राजनीतिक अस्मिता ही नहीं, जातीय अस्मिता, क्षेत्रीय अस्मिता, परिवार की या कोई और कुछ भी तो सुरक्षित नहीं रहा है। आज के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर न केवल अस्मिता की राजनीति को धता बता ‘आकांक्षा’ की राजनीति को खड़ा करने का सफल प्रयास किया है, अपितु राजनीतिक अस्मिता/राज-धर्म को रसातल में पहुँचा दिया है। इसका अफसोस गए समय में तो नहीं हुआ था किन्तु भाजपा का ऐसा आचरण आज साफ तौर पर देखा जा सकता है। सत्ता पक्ष ने राजनीतिक अस्मिता/राज-धर्म को किनारे करके लोकशाही में तानाशाही में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आने वाले दिनों में मोदी के चहेतों को इस सत्य का एहसास जरूर होगा, इसमें दो राय नहीं है।
दरअसल, पिछले वर्षों में भाजपा की प्रतिष्ठा का ग्राफ इतना गिर चुका है कि गए दिनों में भाजपा के शासन में हुए राज्यों के चुनावों में भाजपा की जो फज़ीहत हुई है, इसके चलते भाजपा और इसके समर्थक दलों और पैत्रिक संस्था आरआरएस को यह तो सोचना ही होगा कि लोकसभा के चुनावों में भाजपा के हक में हुआ बदलाव महज एक ही बार की बात है या फिर स्थाई। गौर तलब है ऐसे परिवर्तन राजनीति में ज्यादा दूर तक का सफर तय नहीं कर पाते। वही हालत आज भाजपा की है। भाजपा की पैत्रिक संस्था की असल चिंता यह है कि यदि 2024 के आम चुनावों में भाजपा सरकार नहीं बना पाती है तो उसके सामाजिक/ धार्मिक सभी एजेंडे कहीं दरक न जाएं। इसलिए आरएसएस भाजपा के समर्थन में खुलकर आगे आ गई है। और समाज के हाशियाकृत तबकों/जातियों से सीधे संपर्क साधने की भूमिका में आ गई है।
यथोक्त के आलोक में यह स्मरण रखने की जरूरत है कि आजकल भाजपा के अनेक नेता कोविंद जी के आवास पर निरंतर दौरा करने पर लगे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार तीन जून को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पैतृक गांव कानपुर देहात के परौंख गांव पहुंचे। इस मौक़े पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद थे। पहली बार अपने पैतृक गाँव पहुँचे पीएम मोदी का स्वागत करने के लिए राष्ट्रपति कोविंद प्रोटोकॉल तोड़ते हुए ख़ुद हेलीपैड तक पहुंच गए। प्रधानमंत्री ने बाद में कहा कि राष्ट्रपति कोविंद की इस गर्मजोशी ने उन्हें ‘हैरान’ कर दिया और वो ‘शर्मिंदगी’ महसूस कर रहे हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मोदी जी ने राम कोविंद जी के राष्ट्रपति रहते हुए कभी भी वो सम्मान नहीं दिया जो सम्मान राम कोविंद जी ने मोदी जी को दिया। इस प्रकार मोदीजी द्वारा कोविंद जी की प्रशंसा करना महज एक राजनीतिक कारण है, मनोभाव का नहीं। प्रधानमंत्री ने परौंख की एक सभा में कहा, ‘ये कहना कि परौंख की मिट्टी से राष्ट्रपति जी को जो संस्कार मिले हैं, उसकी साक्षी आज दुनिया बन रही है और मैं आज देख रहा था कि एक ओर संविधान और दूसरी तरफ़ संस्कार और आज गांव में राष्ट्रपति जी ने पद के द्वारा बनी हुई सारी मर्यादाओं से बाहर निकलकर के मुझे आज हैरान कर दिया। वे स्वयं हेलीपैड पर मुझे रिसीव करने आए। मैं बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था कि उनके मार्गदर्शन में हम काम कर रहे हैं। उनके पद की एक गरिमा है, एक वरिष्ठता है।’ मोदी जी के इस कथन का क्या आशय है। क्या इस कथन में किसी जमीनी सोच का प्रमाण मिलता है। शायद नहीं, क्योंकि यह कथन केवल और केवल एक राजनीतिक कथन है। यह एक औपचारिकता भर है। पीएम की इस दौरे का मकसद केवल और केवल कोली समाज के मत बैंक पर सेंध लगाना है।
प्रधानमंत्री ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से भेंट कर उन्हें सपरिवार दीपावली की शुभकामनाएं दीं। मोदीजी के इस दौरे पर एक इंटरव्यु में लखनऊ के ख्याति प्राप्त प्रोफेसर ने साफ-साफ कहा कि मोदी का कोविंद के यहाँ दौरे का मकसद महज कोंविंद जी की उपयोगिता का लाभ उठाने का है। वे आगे कहते हैं कि मुझे इस अवसर पर हर्ष तो इसलिए हो रहा है कि मैं भी उसी कोली समाज से आता हूँ जिससे कोविंद जी आते है और विषाद इसलिए है कि कोविंद जी ने कभी भी अपने समाज के हित में कोई भी काम नहीं किया। कोविंद जी ने राष्ट्रपति रहते सवर्ण समाज के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10% आरक्षण पर बिना कोई टिप्पणी किए चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए। आपको यह जानकर अफसोस होगा कि नए संसद भवन के भूमि-पूजन के समय कोविंद को निमंत्रण तक नहीं दिया गया। एक दलित राष्ट्रपति का इतना अपमान कोविंदजी चुपचाप सहकर रह गए। यही हाल वर्तमान जनजाति वर्ग के राष्ट्रपति माननीय द्रोपदी मूर्मू का भी है, उन्हें भी नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में भी नहीं बुलाया गया। लगता तो ये है कि किसी भी दलित को राष्ट्रपति बनाने के पीछे मोदी जी का महज एक ही मकसद रहा कि कोई भी दलित राष्ट्रपति मोदी जी के किसी सही/ गलत काम पर आवाज न उठा सके। यही हालत भाजपा के बैनर के तले चुने गए दलित/ओबीसी के सांसदों की है, वह मुँह न खोलने के लिए मजबूर है।
सत्ता में बने रहने के लिए हर हद से गुजरने वाले जनता के मोर्चे पर शून्य हैं
असल में सबसे बड़ी बात ये है कि पिछ्ले कुछ दशकों से भारतीय राजनीति एक रोजगार/व्यवसाय का हिस्सा बनती जा रही है। इसका जीता जागता प्रमाण है भारतीय राजनीति में जड़ जमाता/जन्मता परिवारवाद/वंशवाद। दरअसल वंशवाद अथवा परिवारवाद शासन की वह प्रणाली है जिसमें एक ही परिवार, वंश या समूह से एक के बाद एक कई शासक बनते चले जाते हैं। यह भाई-भतीजावाद की परिपाटी लोकतंत्र के लिए खतरनाक तो है ही, यह अधिनायकवाद को जन्म देने वाली भी हो सकती है। आदर्श तो ये है कि लोकतंत्र में वंशवाद के लिये कोई स्थान नहीं है किन्तु भारत में लोकतंत्र की शुरुआत से ही परिवारवाद की राजनीति हावी रही। प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो वंशवाद/परिवारवाद निम्न स्तर का असंवैधानिक आरक्षण है। इसे राजतंत्र/ एकतंत्र का एक सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है। वंशवाद, आधुनिक राजनैतिक सिद्धान्तों एवं प्रगतिशीलता के विरुद्ध है। पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि लोकतंत्र पूंजीवाद हावी हो गया है। सरकार को विपक्षियों की सही/गलत कमजोरियां तों दिखती हैं, अपने दल के नेताओं की नहीं। यहाँ तक कि विपक्षी राजनैतिक दलों का कथित भ्रष्टाचारी यदि भाजपा में शामिल हो जाता है तो वो भाजपा की वाशिंग मशीन में साफ-सुथरा करके उपमुख्य मंत्री अथवा अन्य किसी लाभकारी पद पर आसीन कर दिया जाता है।
जातीय/ क्षेत्रीय अस्मिता, दोनों ही भावनात्मक छोर की ओर ले जाती हैं। यद्यपि अस्मिता की राजनीति लोगों को ज्यादा गुणकारी लगती है, तथापि भारत में जातिवाद और क्षेत्रवाद के भाव लोगों को लामबन्द कर देते हैं और वोटिंग के समय मतदाता देश तो क्या, यहाँ तक कि अपने निजी और सामाजिक हितों को भी ताक पर उठाकर रख देते हैं। राज्य से निकलकर क्षेत्रीय दल राजनीतिक गठबन्धन के चलते केंद्र की सत्ता में तक पहुंच गए। इस प्रकार कई जातीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का सशक्तीकरण हुआ। यह कोई बुरी बात भी नहीं है क्योंकि यह राजनीतिक बदलाव समाज के निचले तबके को रास आने लगा। किंतु दुख की बात तो ये है कि समाज के निचले वर्ग की समस्याएं जहाँ की तहाँ हैं। क्योंकि क्षेत्रीय दलों की यह नाकामी रही कि वे क्षेत्र और जाति की अस्मिता को उचित प्रतिनिधित्व देने में सफल न हो सके और राष्ट्रीय पटल पर अपना कोई वर्चस्व कायम न कर सके। दलित और पिछड़े वर्ग से आए नेता अपने ऐशो-आराम की जिन्दगी जीने के जुगाड़ में मशगूल हो गए। कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय और जातीय दलों के उभार का सामाजिक स्तर पर इतना तो फायदा हुआ कि अब निचली माने वाली जातियां बिना राजनीतिक संरक्षण के भी सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए लामबन्द होने लगी हैं। लेकिन शासन के स्तर पर इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निचली माने वाली जातियों के राजनेता सत्ता के विर्मश और सामाजिक विकास से जैसे बाहर हो गए।।।कारण कि वे अपने वर्चस्वशाली राजनीतिक आकाओं के सामने मुंह न खोलने को बाध्य हैं। उसकी कीमत पूरे दलित और पिछड़े समाज को चुकानी पड़ रही है। यहाँ तक कि उन लोगों को भी जिनके भले के लिए इस राजनीति का दावा किया जा रहा था।
हैरत की बात है कि आजकल मतदाता भी पूरी तरह से भ्रमित है। इसलिए वह किसी व्यक्ति के गुण-दोष देखकर वोट नहीं करता अपितु सबके अपने-अपने राजनितिक दल हैं फलत: वो प्रत्याशी को नहीं, राजनीतिक दल विशेष को वोट करता है। यह भी कि यदि लोकतंत्र में किसी भी राजा की व्यक्ति पूजा आरम्भ हो जाती है तो राजा तानाशाही प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है। ऐसे में माननीय काशीराम का ये कहना कतई भी भ्रामक नहीं है कि लोकतंत्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं अपितु कमजोर सरकार की जरूरत है। इसका मुख्य कारण ये है कि पूर्ण बहुमत की सरकार न केवल समाज के हाशियाकृत समाज की उपेक्षा करने लगती है अपितु देश के पूंजीपतियों की गिरफ्त में आकर केवल और केवल पूंजिपतियों के काम करती है। कारण कि पूंजीपति ही राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन की आपूर्ति करते हैं। यही सब आज के भारत में हो भी रहा है।
ज्ञात हो कि पूर्ण बहुमत की सरकारें धर्म और असामाजिक गतिविधियों से जुड़े एजेंडे को साधने के लिए सामाजिक हितों को सूली पर चढ़ा देते हैं। आज आम मतदाता केवल इस बात से संतुष्ट होने को तैयार नहीं है कि वोट मांगने वाला उसकी जाति, धर्म या क्षेत्र का है। लेकिन राजनीतिक गुंडातत्व जाति, धर्म या क्षेत्र को ज्यादा महत्त्व देता है। आम मतदाता को लगता है कि अस्मिता की राजनीति भूमिगत हो गई है।मतदाता अस्मिता की राजनीति की अपील करता है। वह परिवर्तन के लिए प्रयोग करने को तैयार है। शायद इसलिए कि अस्मिता की राजनीति दिन प्रति दिन खत्म होती जा रही है। आज ये कहना गलत नहीं होगा कि अस्मिता की राजनीति खतरे में है।
इन हालातों में यदि गहनता से विचार करें तो आम मतदाता की कोशिश यह होनी चाहिए कि देश किसी एक दल को सत्तारूढ़ न कर गठबंधन की सरकार बनाने पर जोर देना चाहिए ताकि सरकारें सत्ता में बने रहने के लिए मतदाताओं के हितों के लिए काम करें। पूर्ण बहुमत की सरकार ने जनता के हितों की अनदेखी करके एक राजनीतिक कारोबार का रूप ले लिया है। पीएम का ये कहना कि देश के लगभग 81 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का वितरण किया जाता है, यह इस बात का प्रमाण है कि राजनीति के गलियारों में परिवारवाद के खिलाफ कितनी भी हायतौबा की जाती हो लेकिन भारतीय राजनीति के व्यवहार/आचरण से परिवारवाद दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। परिवारवाद की राजनीति से कोई भी राजनीतिक दल अछूता हो, ऐसा नहीं है। तमाम राजनीतिक दल परिवारवाद की राजनीति का खुला खेल रहे हैं। अब चुनाव लोकसभा के हों अथवा राज्यों की विधान सभाओं के, धरती-पकड़ नेता अपने परिवार के किसी न किसी सदस्य को आगे लाने में लगे रहते हैं।
एक समय हुआ करता था कि जब देश की लोकसभा में 75% सांसद ब्राह्मण और बनिया वर्ग के हुआ करते थे, आज 67% सांसद अनुसूचित जाति / जन-जाति और पिछड़े वर्ग से चुनकर लोकसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। किंतु सांसद या मंत्री बनते ही वो ये भूल जाते हैं कि भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग के लिए उनका कोई दायित्व भी है। भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग की कमोवेश आज भी वो ही हालत है जो विगत में थी। कुछ मोडरेट जरूर हो गई है। भेदभाव के नए तौर-तरीके, अत्याचार के तौर-तरीकों में आया नयापन राजनेताओं को विकास नजर आता है। आज के भारत में भाजपा सरकार के चलते जितना हिंसक अत्याचार दलितों और अल्पसंख्यकों पर हो रहा है, शायद ही कभी पहले इस दर्जे की क्रूर क्रियाएं हुई हों। किंतु सत्ता पक्ष में बैठे इस वर्ग से आए सांसदों और मंत्रियों की जुबान को जैसे लकवा मार गया हो, किसी का भी मुंह नहीं खुला। बाबा साहेब अम्बेडकर ने ठीक ही कहा था कि पालतू कुत्ता मालिक की सोटी खाकर भी केवल पूंछ ही हिलाता है, भौंक सकने की ताकत वह खो चुका होता है।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद पार्टियों की नियति बन चुकी है
पिछली कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि एक व्यक्ति के करिश्मे पर टिकी परिवारवादी पार्टियों में आगे चल कर असंतोष या बगावत देखने में आई है। एन.सी.पी. में भतीजे अजित पवार की खुली बगावत के बाद चाचा शरद पवार द्वारा स्थापित पार्टी चर्चाओं में आ गई है और एक बार फिर से उन पार्टियों की बात होने लगी है जिनमें सर्वमान्य नेता माने जाने वाले लीडर को अपने ही परिवार के लोगों द्वारा चुनौती दी गई?
ऐसे में नाम याद आता है तेलगुदेशम पार्टी का जिसमें एन.टी. रामाराव सर्वोच्च नेता थे लेकिन नब्बे के दशक में उन्हीं के दामाद एन. चंद्रबाबू नायडू ने उनके खिलाफ बगावत कर दी और पार्टी के कई बड़े चेहरे उनके साथ हो गए। आगे चलकर नायडू ही तेलगुदेशम के पर्यायवाची बन गए। पवार ही नहीं एक अन्य भतीजे ने भी बगावत की थी। राज ठाकरे को हावभाव और राजनीतिक शैली के कारण बालसाहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी समझा जाता था। पर एक वक्त ऐसा आया जब उनकी राहें अलग-अलग हो गईं हालांकि ठाकरे और पवार भतीजों में फर्क यह रहा कि राज ठाकरे ने अपना अलग नया दल बना लिया।
आपस के मनमुटाव से कद्दावर चौटाला परिवार भी नहीं बच पाया और हरियाणा के इन दिग्गज नेताओं के मतभेद लम्बे समय तक अखबारों की सुर्खियां बने रहे। हालांकि कुछ अपवाद भी हैं, कश्मीर में नैशनल कांफ्रैंस की बात लें या तमिलनाडु में डी.एम.के. की बात करें इन पार्टियों में भी परिवारवाद ही हावी है लेकिन अभी तक आपस में कोई असंतोष की खबर नहीं आई है। अनेक राज्यों में यह परिवारवादी पार्टियां या तो सत्ता में हैं या रही हैं और आज विपक्ष की भूमिका निभा रही हैं। इनके परिवारों के आपसी मतभेद, महत्वाकांक्षा इत्यादि का सीधा असर राज्य और देश की राजनीति पर पड़ता है। इससे इतर भाजपा है।
यहां नेताओं के बेटे, बेटी इत्यादि राजनीति में तो हैं लेकिन दल में वैसा वर्चस्व नहीं होता है जैसा इन परिवारवाद वाली पाॢटयों में होता है। कांग्रेस पार्टी में एक परिवार की इच्छा अनुरूप होता तो है लेकिन फिर भी उसे शिव सेना, एन.सी.पी., डी.एम.के. जैसी पार्टियों की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता है।