
गरियाबंद/छुरा (गंगा प्रकाश)। कभी रेल हादसे की नैतिक जवाबदेही स्वीकारते हुए तत्कालीन रेल मंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे सुचिता का जो मापदंड स्थापित किया था क्या वे आज के समय में फिट नहीं बैठता है? जमाना बदल चुका है आज इक्कीसवी सदी में नये भारत का अभ्युदय होना बताया जा रहा है जो टैक्नोलॉजी आधारित विकास की दौड़ में शामिल है जिसमें जीवन मूल्य पिछड़ेपन की निशानी बनती जा रही है। निश्चित ही पुराना और पुरातन को कोई देना नही चाहेगा सिवाय जो समाज मूर्दा हो। बावजूद क्या जीवन मूल्य के विषय को भी बीते जमाने की बात कहकर इंकार किया जा सकता है सवाल इसका है। प्रगतीवादी होना कोई बुरी बात नही है और ना ही आधुनिकता कोई पाप है। देश, काल और परिस्थितियाँ ही किसी भी समाज के जीवन की दिशा निर्धारित करते है ऐसा माना जाता रहा है। अर्थ प्रधान इस युग में जिसमें हम सब जी रहे है जिसमें कोई मूल्य आखिर टिकेंगे की नही बस देखना बाकी रह गया है। और उसे देखने के लिए निष्पक्ष ऑख तो चाहिए ही इससे भला कौन इंकार कर सकता है।
और निष्पक्ष ऑख कहती है कि आज सार्वजनिक जीवन में से कोई भी आदमी उठा लो जो पावर में है उसकी सम्पत्ति उसकी आमदनी से मैच नही खायेगी। कोई शासकीय कर्मी की जो नीति निर्धारण ही नही बल्कि उसके अनुपालन में शामिल हो उसकी संपत्ति का थाह ले पा भी संभव नही। राजस्व विभाग का एक अदना कर्मचारी पटवारी तक की संपत्ति उसके आय से तालमेल नही खाता है। सरकारी विभाग का एक बाबू भी आज अपने वेतन से ज्यादा खर्च करता है और ठाठ से रहता है। समाज के दूसरे वर्गों को मूह चिढ़ाता हर शासकीय कर्मी आज अपने इनकम से ज्यादा में खेल रहा है खासकर प्रशासनिक ओहदे में यदि बैठा हो। इनको देखकर आखिर कौन नही जानता कि यह सब क्यो और कैसे किया जा रहा है। आखिर सभी तो समाज के हिस्से है और सबको ही रोज दो-चार होते रहना होता है। सभी का पाला शासन प्रशासन में बैठे निठल्लों से रोज ही होता है जिसमें एक रूपये तक की उत्पादकता क्वालिटी नही है फिर भी ठाठ राजा-महाराजाओं से कम नही? आखिर क्यों?
भ्रष्ट्राचार के अनगिनत मामलों को आज ठंडे बस्ते में डालने की नई परंपरा चल पड़ी है जो हैरान करने वाली बात है बावजूद प्रशासन और शासन के महत्तवपूर्ण ऑहदे में बैठे लोगो को इसमें कोई हैरान करने वाली बात नजर नही आती। वे कहते है कि आज के समय में कुछ लोगों को कोई काम ही नही रह गया है सिर्फ मीन-मेख निकालने के अलावा कुछ आता ही नही है इसलिये ऐसे लोगो और मामलो को इग्नोर करना ही श्रेयस्कर है। एक दैनिक समाचार पत्र के संपादक ने तो इस पंक्ति के लेखक को बिना लाग लपेट बोल दिया कि देखों भाई सिर्फ 1 प्रतिशत लोगों के भरोसे संसार टिका हुआ है बाकि 99 प्रतिशत को यही सब चाहिए जिसे आप भ्रष्ट्राचार कहते है इसलिए मामले को ज्यादा तूल देने से अच्छा अपनी सेहत का ख्याल रखा करे। और यह महोदय अपनी बात बेबाक रूप से लिखने मशहूर बताये जाते है। लेकिन मिलने पर वह भी प्रेक्ट्रिकल निकले।
अनुमान लगाना कठिन ना था कि नई पीढ़ी के रगों में यह सब रच-बस गया है और जीवन का अभिन्न हिस्सा भ्रष्ट्राचार आज बन चुका है जिससे आज कोई भी अछूता नही है। हॉ, यह हो सकता है कि जो बचा है उसे शायद मौका नही मिला हो और वे भी मौके की तालाश में हो। राजनीति ही नही सामाजिक और धार्मिक मामलों में भी यही सब होता दिखाई देता है जो चिंता पैदा करता है कि कही विकास का दंभ भरते भरते समाज गड्ढ़े में ना गिर जाए। मूल्यों का पतन समाज हित में और मानवता के हित में तो कदापि नही कहा जा सकता है इसलिए इसे बचाने मूर्धन्यों को तो आगे आना ही होगा। आखिरकर प्रतीक्षा भी तो उनकी हो ही रही है। क्यों कि मूल्यों के हास में वे ही तो आशा की एक किरण बचे है।