
झूंड से अलग होकर रिहायशी इलाके में पहुंचा हाथी, झोपड़ी में सो रहे ग्रामीण को कुचलकर मार डाला, गांव में दहशत
प्रकाश कुमार यादव
गरियाबंद(गंगा प्रकाश):-छत्तीसगढ़ में हाथियों का आतंक लगातार जारी है। गरियाबंद जिले के वन परिक्षेत्र मैनपुर में शुक्रवार तड़के 4 बजे एक जंगली हाथी ने झोंपड़ी में सो रहे ग्रामीण को सूंड से खींचकर निकाला और पटककर पैरों से कुचल दिचा। ग्रामीण की मौके पर मौत हो गई। सूचना पर वन और पुलिस का अमला गांव पहुंचा। पुलिस ने मर्ग कायम कर शव पीएम के लिए भेज दिया है। वन विभाग ने हाथी की मौजूदगी वाले इलाके में ग्रामीणों को नहीं जाने मुनादी कराई है।मिली जानकारी के मुताबिक तहसील मुख्यालय मैनपुर से लगभग 10 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत जिडार के आश्रित ग्राम सिहार में पहाड़ी किनारे झोपड़ी बनाकर ग्रामीण गंगाराम (56 वर्ष) निवास करता था। शुक्रवार सुबह लगभग 4 बजे के आसपास एक हाथी झूंड से बिछड़कर गांव पहुंच गया। हाथी ने ग्रामीण गंगाराम को उसके झोपड़ी से खींचकर बाहर निकाला और सूंड से पटककर पैरों से कुचल दिया। हाथी की दस्तक से गांव में दहशत है।
हाथी की निगरानी करने वन अमला तैनात
वन विभाग के एसडीओ राजेंद्र प्रसाद सोरी ने बताया कि एक हाथी दल से बिछड़कर घूम रहा है। उनके द्वारा एक ग्रामीण गंगाराम सोरी जाति कमार को पटककर मार दिया है। वन विभाग द्वारा पंचनामा की कार्यवाही कर पीड़ित परिवार को मुआवजा दिया जाएगा। सोरी ने बताया कि हाथी की मौजूदगी वाले इलाके में ग्रामीणों को नहीं जाने मुनादी कराई गई है। हाथी की निगरानी के लिए वन अमला भी तैनात कर दिया गया है।
छत्तीसगढ़ में जंगली हाथियों के हमले में 210 से अधिक लोगों की मौत,52 हाथी से अधिक मारे गए

छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में जंगली हाथियों के हमले में 204 लोगों की मौत हुई है जबकि 81 लोग घायल हुए है। वहीं बिजली का करंट लगने सहित अन्य कारणों से 45 हाथियों की मौत हुई है।15 मार्च 2022 को छत्तीसगढ़ विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के विधायक रजनीश कुमार सिंह के एक सवाल के लिखित जवाब में राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने बताया था कि एक जनवरी, 2019 से एक फरवरी, 2022 के बीच राज्य में हाथियों द्वारा किए गए जन—धन हानि के कुल 72,112 प्रकरण दर्ज किए गए हैं।मंत्री अकबर ने बताया था कि ‘‘हाथियों के हमले में इस दौरान 204 लोगों की मौत हुई है जबकि 81 लोग घायल हुए हैं। वहीं इस अवधि में फसलों को नुकसान होने के 63,603 मामले, घरों को नुकसान पहुंचने के 5,232 मामले और अन्य संपत्तियों को नुकसान पहुंचने के 2,992 मामले दर्ज किए गए हैं।मंत्री ने बताया था कि हाथियों के हमले की घटनाओं में लोगों की मौत, उनके घायल होने तथा फसलों, मकानों और अन्य संपत्तियों को नुकसान के कुल 72,112 मामलों में इन तीन साल में 60,56,89,481 रुपए का मुआवजा दिया गया है।उन्होंने बताया कि इनमें से 664 मामलों में 1,01,22,554 रुपए का मुआवजा लंबित है।वन मंत्री ने यहा भी कहा था कि सात अक्टूबर, 2021 को राज्य सरकार ने 1,995.48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेमरू हाथी रिजर्व के रूप में अधिसूचित किया था। लेमरू हाथी रिजर्व के अंतर्गत दो कोयला ब्लॉकों में 39 कोयला खदानें हैं। मांड रायगढ़ और हसदेव अरंड कोल ब्लॉक लेमरू हाथी रिजर्व की सीमा के भीतर आते हैं। वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के अंतर्गत भारत सरकार ने हाथी आरक्षित क्षेत्र में किसी भी खदान में खनन की अनुमति नहीं दी है।
अपना काम बनता भांड में जाए जनता के तर्ज पर इंसानों और हाथियों की नहीं,सरकार को बस हैं अपने निजी और राजस्व के मुनाफे की चिंता है?
छत्तीसगढ़ सरकार हाथियों के संरक्षण को लेकर पहले काफी गंभीर नजर आई थी, लेकिन कोल भंडार के खुलासे के बाद अब छत्तीसगढ़ की तस्वीर ही बदल गई है…ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में इंसानो और हाथियों के बीच जंग छिड़ गयी है। हाथी ग्रामीणों को उनके गांव से खदेड़ना चाहते हैं तो वही दूसरी ओर इंसान हाथियों को जंगल से।इस जंग में किसका पलड़ा भारी रहेगा ये तो वक्त ही बताएगा,लेकिन जमीन को लेकर छिड़ी जंग में कभी इंसान तो कभी हाथियों को अपनी जान गवानी पड़ रही है।छत्तीसगढ़ के कोरबा और अंबिकापुर,सहित महासमुंद, गरियाबंद,धमतरी, कांकेर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों पर बसे सैकड़ो गांव में लोगो की जान पर बन आयी है।जिनका जीवन अब दहशत के साए में बीत रहा हैं।हालांकि वन विभाग, पुलिस और प्रशासन की टीम गांव के करीब घुसे हाथियों को खदेड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे है।उधर हाथी भी टस से मस नहीं हो रहे हैं।वो दो कदम पीछे और चार कदम आगे बढ़ कर ग्रामीणों पर ही हमले की तैयारी में हैं।
इन हाथियों को खदेड़ने के लिए कभी देशी पटाखों,आंसू गैस के गोलों,सायरन और शोरगुल का इस्तेमाल होता है तो कई बार तरह तरह के देशी जुगाड़ भी ताकि हाथी लोगों की चीख पुकार सुनकर वापस जंगल की ओर चले जाएं, कुछ देर के लिए हाथी जरुर जंगल का रुख कर लेते हैं।लेकिन मौका पाते है फिर इन गांव वालों पर टूट पड़ते हैं।छत्तीसगढ़ इन जिलों के सैकड़ो गांव में इस तरह का नजारा आम है गरियाबंद, महासमुंद, धमतरी,कांकेर,कोरबा,रायगढ़, चांपा जांजगीर,कोरिया, अंबिकापुर और जशपुर में कभी इंसानों की तो कभी हाथियों की जान पर बन आती है।सरकारी रिकॉर्ड में बीते पांच वर्षों में 52हाथियों की मौत इस संघर्ष में हुई है।लेकिन गैर सरकारी आकड़ो के मुताबिक़ कभी करेंट लगा कर तो कभी जहर देकर ग्रामीणों ने भी कई हाथियों को मौत के घाट उतार डाला है। जंगल में कई दिनों तक पड़े रहकर हाथियों का शव सड़ गल जाता है।फिर लोग मौका पाते ही हाथियों के अवशेषों को ठिकाने लगाना शुरू कर देते है।
दाने-पानी की तलाश में जानलेवा बनते हाथी
ग्रामीणों के मुताबिक कभी दाने पानी की तलाश में तो कभी हरी भरी फसलों को रौंदने के लिए हाथियों का दल गांव पर हमला कर देता है।इस दौरान उनकी राह में रोड़ा बने ग्रामीणों को हाथी अपने पैरों तले कुचल देते हैं। इन हाथियों पर हमला करना आसान नही होता। लिहाजा मौका पाते ही घर बार छोड़ कर ये ग्रामीण अपनी जान बचाते हैं।जारी खरीफ सीजन में करीब पांच सौ के लगभग गांव में हाथियों ने सैकड़ों एकड़ हरीभरी फसलो को नष्ट कर दिया है।जिस इलाके में लोग सब्जी भाजी के अलावा धान ,मक्का और दाल तिलहन ,गन्ना उपजाते है। यही वो खाद्य पदार्थ है जिस पर हाथियों की नजरें लगी रहती हैं।फसलों के पकने की खुशबु जंगल में फैलते ही हाथियों का झुण्ड गांव की ओर रुख कर लेता है।फिर छिड़ जाती है हाथियों और इंसानो के बीच खूनी जंग।सरकार का दावा है कि वो हालात पर नजर रखे हुए है. हाथियों को काबू में करने की कोशिशें की जा रही है।लेकिन अब इन इलाको में हाथी आतंक का पर्याय बन चुके है।हाथी प्रभावित इलाकों में पीड़ितों को सरकार दोनों सूरत में मुआवजा देती है- जान गवाने पर और फसलो के नष्ट होने पर भी,लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर हैं।
फसलों के बर्बाद होने की वजह बनते हाथी
ग्रीष्म ऋतु में जंगलो में हरी भरी घास और वो पेड़ पौधे सुख जाते है जो हाथियों को पसंद हैं।जंगलो के भीतर के नदी, नाले और पानी के श्रोत भी सूख जाते हैं।लिहाजा दाने पानी की तलाश में हाथियों का दल गांव की ओर रुख कर लेता हैं।लेकिन इन इलाको में साल दर साल हाथियों के हमलो में तेजी आई है। अब गर्मी के दो तीन माह नहीं बल्कि पूरे साल भर हाथियों की आवाजाही होती है।हाथी अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए खेत खलियानों का रुख कर लेते हैं।जंगल की जमीन औद्योगिग उपयोग और दूसरी परियोजनाओं के लिए आवंटित होने लगी है।वही जंगलों के भीतर इंसानी आबादी पैर पसारती जा रही है।इन इलाको में जब से इंडस्ट्रलाइजेशन शुरू हुआ है, तब से जंगलों के आने जाने वाले रास्ते कई हिस्सो में बट गए हैं।नतीजतन हाथी भी अपने आवाजाही के रास्ते से भटक कर गांव में आने लगे हैं और भूख प्यास मिटाने के लिए ग्रामीणों के घरो में भी घुसने लगे हैं।किसानो को मुआवजा देकर सरकारी अफसर अपनी औपचारिकताएं पूरी तो कर लेती है।लेकिन इन हाथियों की आवाजाही रोकने के लिए वो कोई ठोस प्रयास नहीं कर रही है।
आखिर क्यों लेटलतीफी बरती जा रही रही प्रोजेक्ट एलिफेंट को लेकर
यह योजना क्यों ठंडे बस्ते में डाल दी गयी है, हमने इसका भी जायजा लिया हैं। दरअसल कोल लॉबी या एक ख़ास वर्ग नहीं चाहता की प्रोजेक्ट एलिफेंट योजना परवान चढ़ पाए,राज्य के जिन जिलों के हिस्से में एलिफेंट कॉरिडोर ना केवल प्रस्तावित हुआ बल्कि उस पर काम भी शुरू हो गया था,लेकिन एकाएक इस परियोजना को ठप्प कर दिया गया।क्योकि एलिफेंट कॉरिडोर के जंगलों में कोयले के बड़े भंडार मिल गए थे। इससे होने वाली करोड़ों की आमदनी ने सरकार और कोल लॉबी की आंखे खोल दी हैं।कोल भंडारों के खुलासे के बाद सरकार की निगाहो में हाथियों के संरक्षण की बजाए कोयले से होने वाली कमाई ज्यादा कारगर नजर आने लगी,छत्तीसगढ़ सरकार हाथियों के संरक्षण को लेकर पहले काफी गंभीर नजर आई थी।लेकिन जैसे ही यह पता चला कि जंगलों के भीतर कोयले के भंडार हैं, तमाम रिपोर्टो की पड़ताल के बाद सरकार का हाथियों के संरक्षण का दावा खोखला साबित हुआ हैं।यहां तक की राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण को लेकर अपना मुह फेर लिया हैं।दरअसल राज्य में तीन अलग अलग इलाकों में प्रोजेक्ट एलिफेंट को मंजूरी दी गयी थी।इसमें कोरबा जिले में लेमरु, अंबिकापुर में तमोलपिंगला और जशपुर में बादलखोल वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को सरगुजा, जशपुर हाथी रिजर्व में तब्दील कर दिया गया था।लेकिन जैसे ही जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (GSI) और सेंट्रल माइनस प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (CMPDI) की रिपोर्ट आई उसने हाथियों को लेकर सरकार की सोच बदल डाली।इन रिपोर्ट में कुल दर्जन भर नए कोल ब्लॉकों और उसमे कोयले के अथाह भंडारों का हवाला दिया गया।नतीजतन एलिफेंट कॉरिडोर का निर्माण लटक गया।कोरबा स्थित लेमरु एलिफेंट कॉरिडोर में तीन बड़े कोल ब्लॉक शामिल हैं।इसमें नटिया कोल ब्लॉक जिसका रकबा 3427 हेक्टियर, श्यांग 2120 हेक्टियर, फतेहपुर 2110 हेक्टियर और फतेहपुर ईस्ट कोल ब्लॉक का रकबा 1400 हेक्टियर है।सरगुजा जशपुर हाथी रिजर्व जो कि बादलखोल, तमोलपिंगला और सेमरसुद अभ्यारण को मिलकर बनाया गया है इसके भीतर ही तीन कोल ब्लॉक पाये गए है। इसमें रजकमार दीपसाइड, रजकमार दीपसाइड देवनारा और केसलनाल शामिल है।इन तीनो इलाको में लगभग एक लाख चौदह हजार तीन सौ चौतीस हेक्टियर के जंगल में कोयले के अथाह भंडार है।इसके चलते हाथियों को उनकी मूल शरणस्थलीय से खदेड़ने के लिए राज्य और केंद्र सरकार ने अपनी कमर कस ली है।
सरकार को बस मुनाफे की चिंता
कोल ब्लॉकों के आवंटन की प्रक्रिया जारी है और वही दूसरी ओर हाथियों का पलायन,वाइल्ड लाइफ ऐक्टिविस्ट आलोक शुक्ला कहते है कि छत्तीसगढ़ का इलाका बहुत ही रिच फारेस्ट का इलाका है। काफी डेन्स फारेस्ट इलाका है और यहां की बायोसिटी रिच है।इकोलॉजिकली यह संपन्न इलाका है और ये माना गया था कि इस इलाके को संरक्षित करना चाहिए. लेकिन सिर्फ माइनिंग लॉबी के प्रेशर के कारण कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचाने के कारण तमाम प्रावधानों को नजरअंदाज करते हुए माइनिंग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है।जो पर्यावरण के लिए भी काफी घातक सिद्ध होने वाला है।
दरअसल 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद से ही प्रदेश में एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण को लेकर आवाजें उठने लगी थीं। जंगलो के भीतर बसने वाली एक बड़ी आबादी की मांग थी कि उनकी जानमाल की रक्षा के लिए लगभग दो लाख वर्ग किलोमीटर के इलाके का एलिफेंट कॉरिडोर के रूप में विकसित किया जाए।
साथ ही इन इलाकों में उन पेड़ पौधों को उपजाया जाए जो हाथियों के खाने पिने के लिए उपयोगी होते हैं।मसलन केला , अमरुद , शहतूत व अन्य जंगली पेड़ पौधे, यही नही एलिफेंट कॉरिडोर के भीतर ऐसे जल श्रोत भी निर्मित किये जाए जहां गर्मी के मौसम में भी हाथियों के लिए पानी की किल्ल्त न हो।
लिहाजा राज्य सरजकार ने 2005 में एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण के लिए विधान सभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया था PA शासन काल में 2007 में केंद्रीय वन और पर्यावरण मंर्तालय ने इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे दी थी केंद्र सरकार ने 2010 तक इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के निर्देश भी दे दिए थे। लेकिन GSI और CMPDI की रिपोर्ट ने एलिफेंट कॉरिडोर के निर्माण की योजना को ठप्प कर दिया,2010 के बाद से यह परियोजना सिर्फ काजग में सिमट कर रह गयी है। जबकि कोल आवंटन के के मामले दिन दुगनी और रात चौगुनी प्रगति हो रही है।एलिफेंट कॉरिडोर में कोल आवंटन की प्रक्रिया कहीं पर्यावरण नियमों की अनदेखी के चलते कही रुक ना जाए इसके लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को आधी अधूरी रिपोर्ट भेजी गयी।राज्य सरकार की ओर से कोल आवंटन के दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को सौपी जाने वाली इन्वायरमेंटल इम्पैक्ट असिस्मेंट रिपोर्ट में इस तथ्य को छिपाया गया कि इन तमाम कोल ब्लॉकों का इलाका पहले से ही रिजर्व फारेस्ट की कैटेगरी में है।
दूसरा एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी नजर अंदाज कर दिया गया कि कोल ब्लॉकों के इर्दगिर्द दस किलोमीटर के दायरे में इकोलॉजिकल एरिया मौजूद है।