विकास की आड़ में विनाश की स्क्रिप्ट ! धनवादा कंपनी की मनमानी, प्रशासन की चुप्पी और ग्रामीणों की जान पर संकट, आखिर कब जागेगा प्रशासन??…

विकास की आड़ में विनाश की स्क्रिप्ट ! धनवादा कंपनी की मनमानी, प्रशासन की चुप्पी और ग्रामीणों की जान पर संकट, आखिर कब जागेगा प्रशासन??…

 

रायगढ़ (गंगा प्रकाश)।जिला अंतर्गत धरमजयगढ़ थाना क्षेत्र के भालूपखना गांव में चल रही लघु जल विद्युत परियोजना अब लोगों के लिए ‘विकास’ नहीं, बल्कि ‘विनाश’ का दूसरा नाम बनती जा रही है। धनवादा कंपनी ने यहां कानून-कायदे को जेब में रखकर, जंगल-जमीन और जनजीवन तीनों को दांव पर लगा दिया है। विस्फोटकों की गूंज से पहाड़ ही नहीं, ग्रामीणों के दिल भी दहल रहे हैं। लेकिन जिला प्रशासन, पुलिस और वन विभाग सभी ने जैसे आँख, कान और ज़ुबान बंद कर ली है।

बिना मापदंड के ब्लास्टिंग, ग्रामीणों की जान के साथ खुला खिलवाड़ :

 भालूपखना के जंगलों में भारी विस्फोट हो रहे हैं, जिनके लिए न तो कोई मापदंड अपनाया गया, न ही सुरक्षा उपाय। घरों की दीवारें दरक रही हैं, लोग रातों को जागकर गुजारने को मजबूर हैं, लेकिन प्रशासन के पास न कोई जवाब है, न कोई कार्रवाई। क्या यही है ‘नवभारत का निर्माण’, जिसमें लोगों की सुरक्षा को ठेंगा दिखाकर मुनाफाखोर कंपनियों को खुली छूट दी जा रही है?

‘ऊपर से आदेश है’ – क्या अब जनता की सुरक्षा से ऊपर हैं कॉरपोरेट फरमान? :

 जब एक अधिकारी से पूछा गया कि अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई, तो उसने नाम न छापने की शर्त पर कहा –  “ऊपर से आदेश है, काम बंद नहीं होना चाहिए।” अब सवाल यह उठता है कि यह ‘ऊपर’ कौन है? और क्या अब लोकतंत्र में ‘जनादेश’ की जगह ‘कॉरपोरेट आदेश’ ने ले ली है?

जब ग्रामीणों ने उठाई आवाज़, तो प्रशासन ने दिखाई ताकत… पर कंपनी के सामने मौन? :

कुछ दिन पूर्व ग्रामीणों ने जब अवैध कार्य रोकने की कोशिश की, तो एसडीएम से लेकर थाना प्रभारी तक की फौज आ गई। ग्रामीणों को धमकाया गया, दबाव बनाया गया और काम फिर से शुरू करवा दिया गया। लेकिन जब वही अधिकारी धनवादा कंपनी की अनियमितताएं देख रहे हैं, तो कार्रवाई करने के बजाय ‘चुपचाप लौट जाना’ क्या साबित करता है? क्या अधिकारियों का झुकाव अब जनता की बजाय पूंजीपतियों की ओर है?

वन भूमि पर निर्माण, फिर भी वन विभाग मौन – क्या यह भ्रष्टाचार नहीं? :

 धनवादा कंपनी ने वन विभाग से बिना अनुमति लिए वनभूमि पर निर्माण शुरू कर दिया। कई अखबारों में इस बात की खबरें छपीं, लेकिन न तो कोई नोटिस जारी हुआ और न ही कोई एफआईआर। आखिर क्यों? क्या विभागीय चुप्पी की कीमत वन भूमि और आदिवासियों की ज़िंदगी से चुकाई जा रही है?

ग्रामीणों का सवाल – क्या हमारी जान की कोई कीमत नहीं? :

 ग्रामीणों का आक्रोश फूटने लगा है। वे पूछ रहे हैं कि क्या हमारी ज़िंदगी की कीमत अब ठेकेदारों की सुविधा से तय होगी? क्या छत्तीसगढ़ सरकार, जिला प्रशासन और पर्यावरण मंत्रालय की नींद तब खुलेगी जब कोई बड़ा हादसा हो जाएगा?

अब सवाल सिर्फ निर्माण कार्य का नहीं, पूरे सिस्टम की साख का है।

अगर अब भी कार्रवाई नहीं होती, तो यह साफ होगा कि ‘जनता’ नहीं, अब ‘धनता’ ही शासन करती है!

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