ब्रेकिंग न्यूज: भीषण गर्मी के बीच गरियाबंद के जंगलों से निकला ‘जंगली सोना’, सरई बोड़ा मशरूम ने मचाया बाज़ार में तहलका — 1200 रुपए किलो बिक रहा ‘वन का स्वाद’, प्रशासन बेखबर

गरियाबंद (गंगा प्रकाश)। मई की चिलचिलाती गर्मी, झुलसाती हवाओं और तापमान के 44 डिग्री के पार जाने के बीच जब आम जनता राहत के लिए बारिश की बूंदों को तरस रही थी, तब गरियाबंद जिले में मौसम ने अचानक एक अनोखा रूप दिखाया। 11 और 12 मई को आई तेज आंधी, बिजली कड़कने और हल्की बारिश के बाद जंगलों की मिट्टी से निकला एक दुर्लभ प्राकृतिक उपहार —सरई बोड़ा मशरूम।
आमतौर पर यह मशरूम वर्षा ऋतु की शुरुआत में निकलता है, जब मिट्टी की ऊपरी परत गीली हो जाती है। परंतु इस बार यह समय से पहले ही प्रकट हो गया। और फिर क्या था — गरियाबंद के गाँव-गली, चौक-चौराहों, हाट-बाज़ारों में अचानक इस ‘जंगली स्वाद’ की बहार छा गई। मशरूम की मांग इतनी बढ़ी कि इसकी कीमतें 1000 से बढ़कर 1200 रुपए किलो तक जा पहुँचीं।
जंगल से सीधे बाजार तक — बोड़ा बना भीषण गर्मी में बरसात की सौगात
सरई पेड़ के नीचे मिलने वाला यह मशरूम न केवल स्वाद में लाजवाब है, बल्कि पोषण से भरपूर और औषधीय गुणों से युक्त भी माना जाता है। आदिवासी समाज इसे विशेष पकवानों में उपयोग करता है और इसकी तुलना अमूल्य संपदा से करता है।
ग्रामीण की महिलाएं बताती हैं, “हम हर साल जून-जुलाई में बोड़ा तोड़ने जाते हैं, लेकिन इस बार मई में ही यह निकल आया। 2 घंटे के अंदर मेरी सारी टोकनी बिक गई और 1200 रुपए मिल गए। ये हमारे लिए किसी तोहफे से कम नहीं।”
स्थानीय होटल और शौकीन ग्राहक भी इसे खरीदने में पीछे नहीं हैं। गरियाबंद नगर में किराना व्यापारी कहते हैं, “बोड़ा की खुशबू और उसका देसी स्वाद ऐसा है कि लोग पूछते हैं — और है क्या? एक दिन में 10 किलो बिक गया, जितना लाया था सब खत्म।”

पर्यावरणीय संकेत या बदलाव की चेतावनी?
विशेषज्ञों का मानना है कि मई महीने में सरई बोड़ा मशरूम का निकलना सामान्य मौसम चक्र से हटकर है। गरियाबंद के पर्यावरणविद् डॉ. कहते हैं, “यह घटना दो बातें दिखाती है — पहली, कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के चक्र असामान्य हो रहे हैं। और दूसरी, कि प्रकृति अपने ढंग से संकेत दे रही है कि हमें चेत जाना चाहिए। अगर हम जंगलों के दोहन को नहीं रोकेंगे तो भविष्य में ऐसे संसाधन अस्थायी बनकर रह जाएंगे।”
प्रशासन बेखबर, जंगल से निकल रहा खजाना बन रहा अनियंत्रित व्यापार
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इस पूरे घटनाक्रम में प्रशासन की ओर से कोई सक्रियता नजर नहीं आ रही है। जंगल से बेतरतीब मशरूम संग्रहण हो रहा है, बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक जंगलों में जा रहे हैं, मगर न तो वन विभाग ने इसे लेकर कोई दिशा-निर्देश जारी किया है, और न ही स्थानीय पंचायतों को कोई स्पष्ट नीति दी गई है।
लोग बिना दस्ताने और सही संग्रहण तकनीक के इसे तोड़ रहे हैं। इससे न केवल मशरूम की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है, बल्कि आने वाले वर्षों में इसके उत्पादन पर भी असर पड़ सकता है।
बाज़ार में इसकी मांग को देखते हुए कुछ व्यापारी इसे बड़े शहरों — रायपुर, महासमुंद, धमतरी — में भेजने की योजना बना रहे हैं। लेकिन यह सारा व्यापार असंगठित और बिचौलियों के भरोसे चल रहा है, जिसमें आदिवासी समुदाय को उसका वाजिब लाभ नहीं मिल पा रहा।
क्या सरकार आदिवासियों के इस प्राकृतिक अधिकार को संरक्षित करेगी?
सरई बोड़ा मशरूम जैसे वन उत्पादों से आदिवासी समुदाय को स्थायी जीविका मिल सकती है, बशर्ते सरकार इसके लिए योजनाबद्ध कदम उठाए। लघु वनोपज संघ और वन विभाग यदि इस पर ध्यान दें तो न केवल इसकी तुड़ाई, संग्रहण और विपणन को एक संरचित रूप दिया जा सकता है, बल्कि इस जैव विविधता को भी संरक्षित रखा जा सकता है।
अब वक्त आ गया है कि गरियाबंद प्रशासन इस मौके को एक अवसर के रूप में देखे, न कि एक तात्कालिक घटना के रूप में। यदि समय रहते नीतियाँ नहीं बनीं, तो यह ‘वन का स्वाद’ कुछ चंद हाथों में सीमित रह जाएगा और इसका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक लाभ मूल संरक्षकों तक नहीं पहुँच पाएगा।
निष्कर्ष
भीषण गर्मी के बीच गरियाबंद में निकला यह सरई बोड़ा मशरूम महज एक खाद्य पदार्थ नहीं, बल्कि प्रकृति का संकेत, आदिवासी संस्कृति का गौरव और संभावित आर्थिक संपदा है। प्रशासन को चाहिए कि वह इसे गंभीरता से लेते हुए संरक्षित और योजनाबद्ध तरीके से विकसित करे — नहीं तो आने वाले वर्षों में यह सिर्फ एक ‘बीते वक्त की कहानी’ बनकर रह जाएगा।