Jagannath Ratha Yatra 2025: अलारनाथ भगवान के चेहरे और हाथ पर पड़ गए थे फफोले, मूर्ति पर आज भी दिखते हैं दाग; पढ़ें प्राचीन कथा

पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर में हर साल स्नान पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा का विशेष अभिषेक होता है। 108 पवित्र कलशों से स्नान कराने की यह परंपरा बहुत पुरानी है। इस महास्नान के बाद एक विशेष बात होती है, भगवान अगले 15 दिनों तक भक्तों को दर्शन नहीं देते। इसे अनासार काल कहा जाता है। इन 15 दिनों तक तीनों देवी देवता अपने भक्तों को श्री मंदिर मंदिर में दर्शन नहीं देते, उस दौरान उन्हें पुरी के श्रीमंदिर से लगभग 30 किलोमीटर दूर अलारनाथ मंदिर में पूजा जाता है। अलारनाथ जी से जुड़ी एक और प्राचीन पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है।

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चतुर्भुज रूप में है भगवान

कहा जाता है कि सतयुग में ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के दर्शन पाने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप धारण किया और ब्रह्मा के सामने प्रकट होकर कहा कि वे उनकी तपस्या से प्रसन्न हैं। भगवान ने उन्हें निर्देश दिया कि वे मेरी एक मूर्ति बनाएं और उसकी पूजा करें। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की आज्ञा का पालन करते हुए काले मृगमुगुनी पत्थर पर उनकी सुंदर मूर्ति बनाई। यह मूर्ति आज जो मंदिर में विराजमान है। वहीं अलारनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। उस स्थान को बाद में ब्रह्मगिरि कहा जाने लगा क्योंकि वहीं ब्रह्मा जी ने तपस्या की थी।

एक और पौराणिक कथा के अनुसार, राजा इंद्रद्युम्न के शासनकाल में ब्रह्मा जी श्रीमंदिर की स्थापना के लिए धरती पर आए थे। उन्होंने जिस स्थान पर प्रथम बार पाँव रखा और पूजा की, वह स्थान भी बाद में ब्रह्मगिरि के नाम से जाना गया। वहीं पर भगवान विष्णु की पूजा की गई, जो आगे चलकर अलारनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है की इस दौरान कुछ समय के लिए भगवान अलारनाथ की यह प्रतिमा अपूज्य भी हो गई थी।

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भगवान अलारनाथ के नाम कैसे पड़ा?

एक बार कई दिनों तक भगवान अलारनाथ अपूज्य हो गए थे तब तमिलनाडु से आए हुए अलवर संप्रदाय के भक्तों ने अलारनाथ मंदिर में चतुर्भुज भगवान की स्थापना की थी। इसी अलवर संप्रदाय के ब्राह्मण आज भी भगवान की सेवा और पूजा करते हैं। ‘अलारनाथ’ नाम की उत्पत्ति भी द्रविड़ संस्कृति से जुड़ी है। दरअसल, द्रविड़ भाषा में ‘आलोयार’ शब्द का अर्थ होता है – भक्त। इसी आधार पर ‘आलोयारनाथ’ यानी भक्तों के स्वामी। समय बीतने के साथ यह शब्द अपभ्रंश होकर ‘अलावंधानाथ’, ‘अलवरनाथ’, ‘अलालानाथ’ और अंततः ‘अलारनाथ’ में बदल गया। यही नाम आज स्थानीय लोकसंस्कृति में गहराई से रच-बस गया है।

कैसे पड़े भगवान को छाले?

अलारनाथ मंदिर से जुड़ी एक और बहुत ही भावुक कर देने वाली और प्रसिद्ध लोककथा है क्षीरिभोग की कथा। एक बार, अलारनाथ मंदिर में भगवान की सेवा करने वाला एक पुजारी श्रीकेतन कुछ दिनों के लिए अपने गाँव से बाहर गया। जाने से पहले उसने अपने छोटे बेटे से कहा कि वह भगवान को प्रतिदिन क्षीर यानी दूध की खीर अर्पित करे। वह बालक पूजा-पद्धति से अनभिज्ञ था, लेकिन पूरी श्रद्धा से भगवान के पास गया, खीर की हांडी रखी और आंखें बंद कर भगवान को बुलाने लगा। जब आंखें खोली, तो देखा – खीर गायब है! हांडी खाली थी। बालक हांडी लेकर घर लौटा और माँ को सारी बात बताई। माँ को विश्वास नहीं हुआ। उसे लगा कि हो सकता है बिल्ली खीर खा गई हो, या कहीं गिर गया हो। संदेह में वह रातभर सो नहीं पाई।

अलारनाथ मंदिर

अगली सुबह, जब पुजारी श्रीकेतन घर वापस लौटे तो उनकी पत्नी ने उन्हें पूरी बात बताई। तभी दम्पत्ति ने बेटे को फिर से हांडी देकर मंदिर भेजा, और खुद भगवान की मूर्ति के पीछे छिपकर सब देखने लगी। जैसे ही बालक ने सच्चे मन से भगवान को बुलाया, अलारनाथ स्वयं मूर्ति से बाहर आकर खीर खाने लगे। यह दृश्य देख श्रीकेतन हैरान रह गए और दौड़ कर भगवान को पकड़ने के लिए भागे, तभी – गर्म खीर भगवान के हाथ और मुख पर गिर पड़ी, जिससे उनके शरीर पर फफोले पड़ गए। यह घटना यहीं नहीं रुकी। जैसे ही श्रीकेतन ने भगवान का हाथ पकड़ा , भगवान अलरनाथ ने उनसे एक वर मांगने को कहा पर श्रीकेतन उनसे बहस करने लगे और उनसे शिकायत करने लगे की सारा भोग तो वह खा गए तो परिवार के लिए क्या बचा? भगवान अलारनाथ के बार बार वर मांगने को कहने के बावजूद श्री केतन ने बहस जारी रखा तभी क्रोधित हो कर भगवान अलारनाथ ने उन्हें श्राप दे दिया। श्राप ऐसा की श्रीकेतन के साथ उनका पूरा परिवार समुद्र में समा जाएगा और श्रीकेतन के वंश का नाश हो जाएगा। सिर्फ उनके भक्त और श्री केतन के पुत्र मधुसूदन को स्वर्ग जाने का मौका मिलेगा।

अपूज्य हो गए भगवान अलारनाथ

श्रीकेतन के वंश का नाश हो जाने के बाद कई वर्षों तक भगवान अलारनाथ अपूज्य हो गए और उन्हें खीर खिलाने वाला, उनकी पूजा करने वाला कोई नहीं बचा। खीर के लिए अपने आप को आहत कर लेने वाले भगवान वर्षों तक खीर भोग के लिए तड़पते रहे क्योंकि एक ही वंश था जो पूजा विधि और भोग लगाने की विधि को जानता था। इस घटना को हुए कई साल बीत चुके थे। अब समय आ गया था कलिंग में गजपति पुरुषोत्तम देव के शाशन काल का। ग्रामीणों ने गजपति पुरुषोत्तम देव को घटना के बारे में बताया और गुजारिश की कि भगवान अलारनाथ को पूजने और उन्हें भोग लगाने वाला कोई भी नहीं है। उनकी पूजा करने वाले पंडितों का वंश समाप्त हो चुका है और अब ऐसा कोई भी नहीं जिसे भगवान अलारनाथ को भोग लगाने और पूजा करने की विधि पता हो।

राजा ने मांगी मनोकामना

गजपति राजा पुरुषोत्तम देव बहुप्रसिद्ध कांची अभियान में जाने ही वाले थे तभी उन्होंने भगवान अलारनाथ से मनोकामना की और कलिंगवासियों से वादा किया की अगर वे कांची अभियान में जीत जाते हैं और उनकी मनोकामना पूरी हो जाती है तो वे अलारनाथ के मंदिर के लिए स्वयं एक पूजा पंडा और सूपकार रखेंगे जो भगवान अलारनाथ की रोज पूजा अर्चना करेंगे और उन्हे खीर का भोग लगाएंगे।

हुआ भी ऐसा ही कांची अभियान में गजपति राजा पुरुषोत्तम देव की जीत हुई और उन्होंने अलारनाथ मंदिर में एक पूजा पंडा और एक सूपकार पंडा की नियुक्ति की जो आज भी कई पीढ़ियों से मंदिर की सेवा कर रहे हैं और भगवान अलारनाथ को नित्य खीर का भोग लगाते हैं। आज भी मंदिर के पुजारी भगवान के चेहरे पर उस जलने के निशान को दिखाते हैं। यही नहीं, तभी से मंदिर में भगवान को अर्पित की जाने वाली खीर को विशेष पवित्रता और आदर के साथ प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। भक्तों का विश्वास है कि अलारनाथ स्वयं आज भी खीर का भोग स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि यहाँ की क्षीरिभोग (खीर) न केवल स्वाद के लिए, बल्कि आस्था और चमत्कार के प्रतीक के रूप में भी पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है।

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