मानवधर्म / वर्णधर्म तथा आश्रमधर्म के सदृश ही मोक्ष भी मान्य धर्म – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश) – ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज सनातन धर्म की विशेषताओं की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि प्रश्न उठता है कि यदि सर्वधर्मो का गन्तव्य एक ही है, सबका आदर्श एक ही है, तब सनातन धर्म के अतिरिक्त धर्म, मत, पन्थ या मजहब कुछ काल तक ही किसी व्यक्ति, वर्ग और क्षेत्र विशेष को प्रभावित कर विलुप्त क्यों हो जाते हैं ? उत्तर स्पष्ट है कि सनातन धर्म में सन्निहित समस्त दिव्यताओं के समादर के अभाव के कारण विविध वादों, पन्थों और तन्त्रों का किञ्चित् उत्कर्ष के बाद पतन सम्भावित और सुनिश्चित है। वस्तुतः क्रिश्चियन रिलिजन, मुसलिम मजहब को उनकी दृष्टि से धर्म मानना भी अनुचित है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जिससे लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्ष हो ; तद्वत् मोक्ष संज्ञक निःश्रेयस सिद्धि में हेतुभूत आत्मज्ञान हो, वह अभ्युदय है। अतः मानवधर्म, वर्णधर्म तथा आश्रमधर्म के सदृश ही मोक्ष भी धर्म मान्य है। यह तथ्य महाभारत तथा श्रीमद्भागवतादि आर्ष ग्रन्थोंके अनुशीलनसे सिद्ध है। पूर्वमीमांसा के अनुसार वेदविहित प्रयोजन की सिद्धि में हेतुभूत अनुष्ठेय यज्ञादि का नाम धर्म है।धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष संज्ञक पुरुषार्थ चतुष्टय में परिगणित धर्म चितशोधक यज्ञादि कर्म एवम् श्रद्धादि शुद्ध मनोभाव का द्योतक है ; अतएव वह स्थावर जङ्गम प्राणियों के सहित पृथ्वी का धारक और पोषक है l धर्म, काम, अर्थसाधक वसु और वासुकि, मोक्षप्रदायक अनन्त तथा कपिल एवम् पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि में हेतुभूत काल – ये सात पृथ्वी के धारक हैं। धृ – धातु धारण – पोषण और महत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त होती है। इसी धातु से धर्म शब्द निष्पन्न हुआ है। महत्त्वशील और धारक होने से यह धर्म – धर्म कहा जाता है। धर्म धारण करता है, अर्थात् अस्तित्व और आदर्श की रक्षा कर अधोगति से बचाता है, इसलिये उसे धर्म कहा गया है। धर्म ने ही सारी  प्रजा को धारण कर रखा है। अतः जिससे धारण और पोषण सिद्ध होता हो, वही धर्म है, ऐसा सत्पुरुषों का निश्चय है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं। अतएव जो धारण – प्राणरक्षा के युक्त हो, जिसमें किसी जीव का उत्पीड़न — शोषण – अहित ना हो, वह धर्म है, ऐसा शास्त्रों का सिद्धान्त है। कोई भी धर्म निष्प्रयोजन या निष्फल नहीं है। उसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। भूत संज्ञक सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म और स्वर्गादि साधक भव्य संज्ञक अनुष्ठेय यज्ञादि की सिद्धि के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है। पृथिवी से पुरुष पर्यन्त सांख्य सम्मत पचीस सिद्ध वस्तुओं का नाम भूत है। अभिप्राय यह है कि पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्वात्मिका बुद्धि, अहंकार, मन, शब्दादि पञ्च तन्मात्रात्मक अपञ्चीकृत पञ्च महाभूत, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय तथा पञ्च स्थूल भूत संज्ञक पचीस तत्त्व की भूत संज्ञा है।

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