अध्यात्म गति परम तत्त्व के चिन्तक समस्त प्राणियों की गति के होते हैं मर्मज्ञ – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी(गंगा प्रकाश)। हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि अनुष्ठेय यज्ञादि शोधक क्रिया एवम् श्रद्धादि शुद्ध मनोभाव का नाम भव्य है। यज्ञादि भव्य और ब्रह्म तथा ब्रह्माधिष्ठिता प्रकृति से समुद्भूत आकाशादि भूत धारक होने के कारण धर्म हैं। शम, दम, धैर्य, सत्य, शौच, सरलता, यज्ञ, धृति तथा आत्मज्ञान रूप धर्म के निरन्तर सेवन की आर्ष विधि है। इनके परिपालन से ऋषियों की प्रसन्नता सुनिश्चित है। उक्त रीति से वेदादि शास्त्र सम्मत सर्वधारक पोषक प्रकाशक तथा आह्लादक यज्ञादि कर्म, श्रद्धादि मनोभाव तथा सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर धर्म है। पृथिवी में गन्ध, जल में रस, तेज में रूप, वायु में स्पर्श, आकाश में शब्द के सदृश विश्व में सन्निहित सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर की सर्वधारकता, पोषकता, प्रकाशकता तथा आह्लादकता समुद्धृत वचनों के अनुशीलन से सिद्ध हैं। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार पृथ्वी में पुण्य गन्ध, जल में रस, अग्नि में तेज, पवन में पवित्रता, आकाश में शब्द – मूलक अस्तित्व और उपयोगिता के ख्यापक तथा दिशा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र सहित त्रिभुवन के विधारक, परिपोषक और आह्लादक सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर हैं। जीवात्म तत्त्व की धारकता ;  अतएव धर्मरूपता समुद्धृत वचनों के अनुशीलन से सिद्ध है। वस्तु स्थिति यह है कि विचार कुशल मनीषिगण व्यावहारिक मान्यताओं को ताक पर रखकर ही तत्त्व विचार करते हैं। सर्वात्मदर्शी तत्त्वज्ञ की ज्ञानात्मिका शक्ति कभी नष्ट नहीं होती ; अर्थात् सदा तत्त्व दर्शनशीला होती है, परम तत्त्व के विशेषज्ञ की परम तत्त्व तक गति सुनिश्चित है, अध्यात्म गति परमतत्त्व के चिन्तक समस्त प्राणियों की गति के मर्मज्ञ होते हैं ; अर्थात् परमतत्त्व सबका गन्तव्य है, उन्हें इस तथ्यका ज्ञान होता है। तथ्यात्मक तत्त्व का पक्षधर होना बुद्धि (जीव) का स्वभाव है । उपरोक्त सूक्तियों में आस्थान्वित रहते हुये उक्त प्रश्न का उत्तर हृदयङ्गम करने योग्य है।

 सनातनधर्म में लक्ष्य का निर्धारण सुस्पष्ट प्रलयोत्तर महासर्ग के प्रारम्भ में सर्वेश्वर जीवों के देह, इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करण से युक्त जीवन की तथा बाह्य जगत् की संरचना इस अभिप्राय से करते हैं कि पूर्व कल्पों में अकृतार्थ प्राणी पुरुषार्थ चतुष्टय के माध्यम से भोग और मोक्ष सुलभ कर सके। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय हैं। भोग्य सामग्री का नाम अर्थ है। भोग्य – सामग्री के उपभोग का नाम काम है। अर्थोपार्जन और विषयोपभोग की भोग और मोक्ष के अविरुद्ध और अनुकूल विधा का नाम धर्म है। मृत्यु, मोह, दुःख, परतन्त्रता और अनियामकता की आत्यन्ति की निवृत्ति और स्वतन्त्रता तथा प्रभुता सम्पन्न सच्चिदानन्द रूपता की समुपलब्धि मुक्ति या मोक्ष है। दुःख का हेतु जन्म है। जन्म का हेतु धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति का मूल राग – द्वेष रूप दोष है। दोष का बीज मिथ्या ज्ञान है। जैसे कफ के निवारण से कफ से उद्भूत ज्वर का निवारण सम्भव है, वैसे ही जन्म के निवारण से दुःख का, धर्माधर्म के निवारण से जन्म का, राग – द्वेष के निवारण से धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का और मिथ्याज्ञान के निवारण से रागद्वेष रूप दोष का निवारण सुनिश्चित है।

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