धर्मानुष्ठान और उसके लिये अपेक्षित संस्कारों का मूल है सनातन वर्णाश्रम व्यवस्था – पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी 

जगन्नाथपुरी (गंगा प्रकाश)– हिन्दुओं के सार्वभौम धर्मगुरु एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रणेता पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी वेदोक्त मन्त्रों की महत्ता की चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि धर्मशास्त्रों के अनुशीलन से अद्भुत प्रज्ञा का उदय होता है। देह से अतिरिक्त तथा अतीत नित्य और चेतन आत्मा के अस्तित्व में आस्था धर्मानुष्ठान का मूल है। देह के भेद से आत्मभेद और देह के नाश से आत्मनाश असिद्ध है। विविध स्वप्नगत स्व तथा पर विविध शरीरों के भेद तथा नाश से आत्मभेद और नाश अमान्य है। धर्मानुष्ठान के लिये पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म में एवं उत्क्रमण और अधोगति में परम्परा प्राप्त आस्था और आगमिक युक्तियों के बल पर विश्वास आवश्यक है। धर्मानुष्ठान से जन्म, उत्क्रमण, अधोगति रहित आत्मस्थिति रूपा मुक्ति के लिए अपेक्षित बल, वेग और अभिरुचि रूपा अधिकार सम्पदा सुलभ होती है। धर्मानुष्ठान और उसके लिये अपेक्षित संस्कारों का मूल सनातन वर्णाश्रम व्यवस्था है। संस्करण का नाम संस्कार है। सूत्र से भूषण अर्थ में सुट् आगम करने पर संस्कार शब्द बनता है। सूत्र के भाष्य में श्रीशबरपाद महाभाग ने संस्कार को परिभाषित करते हुए कहा है कि संस्कार वह होता है, जिसके उत्पन्न होने पर पदार्थ किसी प्रयोजन के लिये योग्य होता है। तन्त्रवार्तिककार श्रीभट्टपाद के अनुसार संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं। मलापनयन, हीनाङ्गपूर्ति और अतिशयाधान भेद से संस्कार तीन प्रकार के होते हैं। विजातीय द्रव्य के योग से मलिन सुवर्ण को घर्षणादि के द्वारा निर्मल बनाना मलापनयन है। आभूषण के रूप में स्थैर्य प्रदान करने के लिये उसमें किञ्चित् ताम्रधातु का सन्निवेश हीनाङ्गपूर्ति है। उसे आभूषण का रूप प्रदान कर उसमें यथास्थान हीरा, मोती आदि का योग अतिशयधान है। वस्तु को भोग या अपवर्ग के अनुरूप बनाने की विधा संस्कार है। जगत् नाम (समाख्या), रूप, कमत्मिक है। सनातन शास्त्रों में इन्हें संस्कृत करने की अपूर्व विधा का वर्णन है। देव, ऋषि, पितर और परमेश्वर के प्रसाद का तथा देवी सम्पत् का अभिव्यञ्जक कर्म तथा भाव संस्कार है। सत्ता, स्फूर्ति तथा सुखोपलब्धि उसका फल है। दोषापनयन तथा गुणाधान से संस्कार की सिद्धि होती है। मलिन दर्पण पर ईट का चूर्ण रगड़ने से दर्पण संस्कृत हो जाता है। यह दोषापनयन का उदाहरण है। बीजपूर (बिजौरी नीबू) आदि के फूल को लाख के रस से तर कर देने पर उसका फल अन्दर से लाल हो जाता है। यह गुणाधान संस्कार है। वैदिक संस्कार सम्पन्न ब्राह्मणादि द्विज होते हैं। मन्त्रों का विनियोग संस्कारों में होता है। मन्त्र से यह संस्कार कर्तव्य है ऐसा बोध ब्राह्मण भाग के द्वारा सम्भव है। इति कर्त्तव्यता (सहायक व्यापार) का बोध सूत्रोंसे होता है। सूत्र से ब्राह्मण की और ब्राह्मण से मन्त्र की सार्थकता सिद्ध होती है। वैदिक संस्कारों से देह, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण का शोधन होता है। लौकिक तथा पारलौकिक अभ्युदय सुलभ होता है तथा निःश्रेयस रूप मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। अतएव इस लोक में तथा देहत्याग के पश्चात् परलोक में सुखप्रद जीवन की भावना से ब्राह्मणादि वर्णों का पवित्र संस्कार वेदोक्त मन्त्रों से अवश्य करना चाहिये।

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